ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 12
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
य॒ज्ञो हि त॑ इन्द्र॒ वर्ध॑नो॒ भूदु॒त प्रि॒यः सु॒तसो॑मो मि॒येधः॑। य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑व य॒ज्ञियः॒ सन्य॒ज्ञस्ते॒ वज्र॑महि॒हत्य॑ आवत्॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञः । हि । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वर्ध॑नः । भूत् । उ॒त । प्रि॒यः । सु॒तऽसो॑मः । मि॒येधः॑ । य॒ज्ञेन॑ । य॒ज्ञम् । अ॒व॒ । य॒ज्ञियः॑ । सन् । य॒ज्ञः । ते॒ । वज्र॑म् । अ॒हि॒ऽहत्ये॑ । आ॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञो हि त इन्द्र वर्धनो भूदुत प्रियः सुतसोमो मियेधः। यज्ञेन यज्ञमव यज्ञियः सन्यज्ञस्ते वज्रमहिहत्य आवत्॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञः। हि। ते। इन्द्र। वर्धनः। भूत्। उत। प्रियः। सुतऽसोमः। मियेधः। यज्ञेन। यज्ञम्। अव। यज्ञियः। सन्। यज्ञः। ते। वज्रम्। अहिऽहत्ये। आवत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह।
अन्वयः
हे इन्द्र हि यतस्तेऽहिहत्ये वर्षकर्मनिमित्तो यज्ञो वर्धनः सुतसोमो मियेध उत प्रियो भूत्। यस्य ते यज्ञो वज्रमावत्स यज्ञियः संस्त्वं यज्ञेन यज्ञमव ॥१२॥
पदार्थः
(यज्ञः) सङ्गन्तव्यो व्यवहारः (हि) यतः (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (वर्धनः) उन्नेता (भूत्) भवति (उत) अपि (प्रियः) प्रीतिसम्पादकः (सुतसोमः) सुतं निष्पन्नं सोम ऐश्वर्य्यं यस्मात्सः (मियेधः) येन मिनोति दुःखं प्रक्षिपति सः। अत्र बाहुलकादौणादिक एध प्रत्ययः। (यज्ञेन) सङ्गतेन कर्मणा (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (अत्र) रक्ष (यज्ञियः) यज्ञेषु कुशलः (सन्) (यज्ञः) सङ्गतो व्यवहारः (ते) तव (वज्रम्) शस्त्रविशेषम् (अहिहत्ये) अहेर्मेघस्य हत्या हननं पतनं येन तस्मिन्। निमित्तार्थेऽत्र सप्तमी। (आवत्) रक्षेत् ॥१२॥
भावार्थः
हे मनुष्या यूयं यदि सत्क्रियया सत्क्रिया वर्धयेत तर्हि यूयं रक्षिताः सन्तोऽन्यानपि रक्षितुमर्हत ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के प्राप्त करानेवाले ! (हि) जिससे कि (ते) आपका (अहिहत्ये) वर्षा का निमित्त (यज्ञः) पदार्थों का संयोग करनारूप व्यवहार (वर्धनः) उन्नतिकर्त्ता (सुतसोमः) ऐश्वर्य्य की उत्पत्तिकर्त्ता (मियेधः) दुःख का नाशकर्त्ता (उत) और भी (प्रियः) प्रीति की उत्पत्ति करनेवाला (भूत्) होता है जिन (ते) आपका (यज्ञः) पदार्थों का मेल करना रूप व्यवहार (वज्रम्) शस्त्रविशेष की (आवत्) रक्षा करे वह (यज्ञियः) यज्ञों में चतुर (सन्) हुए आप (यज्ञेन) सङ्गत कर्म से (यज्ञम्) सङ्गत व्यवहार की (अव) रक्षा करो ॥१२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग जो उत्तम क्रिया से उत्तम क्रियाओं को बढ़ावैं तो आप लोग रक्षित हुए अन्य जनों की भी रक्षा करने के योग्य होवें ॥१२॥
विषय
यज्ञों में व्यापृति
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यज्ञः) = यज्ञ (हि) = निश्चय से (ते) = तेरा (वर्धनः) = बढ़ानेवाला भूत् हो । यज्ञ द्वारा तू अपने जीवन को पवित्र बना सके 'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्'। यह तेरी सब इष्ट कामनाओं को पूर्ण करता हुआ तुझे बढ़ाये 'एष वोऽस्त्विष्टकामधुक्' । (उत) = और यह यज्ञ तुझे (प्रियः) = प्रिय हो–यज्ञ में तेरी रुचि हो । यज्ञ में लगे रहने से (सुतसोम:) = तू सोम का सम्पादन करनेवाला हो। यज्ञ में व्यापृति तुझे वासनामय दुनिया से दूर रखेगी और तू सोम का रक्षक होगा शक्ति को शरीर में सुरक्षित कर पाएगा। इस शक्तिरक्षण से (मियेध:) = तू पवित्र होगा । [२] इस प्रकार (यज्ञियः) = यज्ञों में प्रवृत्त रहनेवाला (सन्) = होता हुआ तू (यज्ञेन) = इन यज्ञों द्वारा (यज्ञम्) = उस उपास्य प्रभु को (अव) = प्राप्त होनेवाला हो [अव् गतौ] । (यज्ञः) = यह उपास्य प्रभु (अहिहत्ये) = वासना को विनष्ट करने के निमित्त ते वज्रम्-तेरे क्रियाशीलतारूप इस वज्र को आवत् रक्षित करे। प्रभु की उपासना से तू क्रियाशील बने और इस क्रियाशीलता द्वारा वासना का शिकार होने से बचा रहे।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञों में सदा लगे रहें। यही प्रभु की उपासना का भी मार्ग है और प्रभु हमें वासनाओं से बचाने के लिये ही इन यज्ञों में प्रेरित करते हैं ।
विषय
यज्ञ से इन्द्र राजा की वृद्धि।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! ( यज्ञः हि) निश्चय से यज्ञ अर्थात् हमारा नाना करादि का देना और त्याग ही (ते) तुझे (वर्धनः) बढ़ाने वाला (उत प्रिय) प्रिय, तृप्त करने वाला (सुतसोमः) ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाला और (मियेधः) सब दुःखों और संकटों को नाश करने हारा है। हे राजन् ! तू (यज्ञियः) उत्तम पूजा, सत्संग और दान के योग्य (सन्) होकर (यज्ञेन) अपने उत्तम त्याग, सत्संग और मैत्रीभाव से (यज्ञम् ) प्रजा के त्याग, संगति और मैत्री-भाव की रक्षा कर। (ते यज्ञः) अर्थात् तेरा दान, त्याग और मैत्रीभाव ही (अहिहत्ये) अभिमुख खड़े शत्रु को विनाश करने के काम में (वज्रम्) शस्त्रास्त्र बल की (आवत्) रक्षा करता है। (२) (यज्ञः) देवपूजा और परमेश्वर का परम दान और सत्संग ही हे परमेश्वर ! तेरे गुणों को बढ़ाने वाला, सबको प्रिय, जीव को पवित्र करने वाला, परम पवित्र कार्य है। तू सर्वस्तुत्य होकर अपने महान् दान और सखाभाव से ही इस सुसंगत जीव की रक्षा कर अन्धकार को नाश करने के लिये तेरी उपासना और सख्य ही (वज्रम्) अज्ञाननाशक ज्ञान-वैराग्य रूप वज्र की रक्षा करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही उत्तम कार्य करून त्यांचे वर्धन कराल तर रक्षित असलेल्या व इतर लोकांचेही रक्षण करण्यायोग्य बनाल. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world and giver of honour and excellence, your yajnic action, social and generous programme, is the mode of progress and promotion: It creates joy and prosperity, eliminates poverty and suffering, and promotes love and social cohesion. Be the leader of yajna, protect and promote yajna by yajna, and let your yajna protect and promote your thunder- arm in breaking the cloud of darkness for the rain showers of prosperity and joy in plenty.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the men are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you are Conveyor of prosperity, because of the Yajna ( act of unification ), which augments the act of killing the cloud or bringing in the rains. The Yajna which leads you to prosperity and drives away misery and in which Soma is effused, is dear to you. Therefore being expert in the performance of Yajnas, protect the Yajna (unifying act) with harmonious tendencies and let this Yajna protect your thunderbolt-like powerful weapon.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if you augment the effect of a good action with the performance of other good actions, you will be safe and will be able to save and protect others also.
Foot Notes
(यज्ञ:) सङ्गन्तव्यो व्यवहारः। = Act of unification. (यज्ञेन) सङ्गतेन कर्मणा | = With properly coordinated act. (मियेध:) येन मिनोति दुःखं प्रक्षिपति सः । अत्र बाहुलकादोणादिक: एध प्रत्यय: । ( मियेध:) मीञ् -हिंसायाम् (क्रया.)। = Which drives away all misery. (अहिहत्थे) अहैर्मेघस्य हत्या हननं पातनं येन तस्मिन् । निमित्तार्थेऽत्र सप्तमी । अहिरिति मेघनाम (N. G. 1, 10) = In the act of killing the cloud or making it rain down the water.
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