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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - नद्यः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद॒ङ्ग त्वा॑ भर॒ताः सं॒तरे॑युर्ग॒व्यन्ग्राम॑ इषि॒त इन्द्र॑जूतः। अर्षा॒दह॑ प्रस॒वः सर्ग॑तक्त॒ आ वो॑ वृणे सुम॒तिं य॒ज्ञिया॑नाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ङ्ग । त्वा॒ । भ॒र॒ताः । स॒म्ऽतरे॑युः । ग॒व्यन् । ग्रामः॑ । इ॒षि॒तः । इन्द्र॑ऽजूतः । अर्षा॑त् । अह॑ । प्र॒ऽस॒वः । सर्ग॑ऽतक्तः । आ । वः॒ । वृ॒णे॒ । सु॒ऽम॒तिम् । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदङ्ग त्वा भरताः संतरेयुर्गव्यन्ग्राम इषित इन्द्रजूतः। अर्षादह प्रसवः सर्गतक्त आ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अङ्ग। त्वा। भरताः। सम्ऽतरेयुः। गव्यन्। ग्रामः। इषितः। इन्द्रऽजूतः। अर्षात्। अह। प्रऽसवः। सर्गऽतक्तः। आ। वः। वृणे। सुऽमतिम्। यज्ञियानाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अङ्ग ! यद्यं त्वा भरताः सन्तरेयुः स ग्राम इषित इन्द्रजूतः प्रसवः सर्गतक्तो गव्यन् भवानहार्षात्। हे विद्वांसो यथाहं यज्ञियानां वः सुमतिमावृणे तथा यूयं मम प्रज्ञां स्वीकुरुत ॥११॥

    पदार्थः

    (यत्) यम् (अङ्ग) मित्र (त्वा) त्वाम् (भरताः) सर्वेषां धर्त्तारः पोषकाः (सन्तरेयुः) (गव्यन्) गौरिवाचरन् (ग्रामः) मनुष्यसमूह इव (इषितः) प्रेरितः (इन्द्रजूतः) इन्द्रो विद्युदिव प्रतापयुक्तः (अर्षात्) प्राप्नुयात् (अह) विनिग्रहे (प्रसवः) प्रकृष्टैश्वर्य्यः (सर्गतक्तः) जलस्य संकोचकः। सर्ग इत्युदकना०। निघं० १। १२। (आ) समन्तात् (वः) युष्माकम् (वृणे) स्वीकुर्वे (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (यज्ञियानाम्) यज्ञस्य साधकानाम् ॥११॥

    भावार्थः

    यथा विद्वांसो विद्यापारं गत्वा प्राज्ञा जायन्ते तथेतरे मनुष्या अपि भवन्तु एवं कृते सर्वे दुःखान्तं गत्वा सुखिनः स्युः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) मित्र ! (यत्) जिस (त्वा) आपको (भरताः) सबके धारण वा पोषण करनेवाले (सन्तरेयुः) संतरे अर्थात् आपके स्वभाव से पार हो वह (ग्रामः) मनुष्यों के समूह के समान (इषितः) प्रेरणा को प्राप्त (इन्द्रजूतः) बिजुली के सदृश प्रताप और (प्रसवः) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त (सर्गतक्तः) जल के संकोच करनेवाले (गव्यन्) गौ के तुल्य आचरण करते हुए आप (अह) ग्रहण करने में (अर्थात्) प्राप्त होवैं वा हे विद्वानो ! जैसे मैं (यज्ञियानाम्) यज्ञ के सिद्ध करनेवाले (वः) आप लोगों की (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को (आ) सब प्रकार (वृणे) स्वीकार करता हूँ, वैसे आप लोग मेरी बुद्धि को स्वीकार करिये ॥११॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् लोग विद्या के पार जाय अर्थात् सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के बुद्धिमान् होते हैं, वैसे और लोग भी हों, ऐसा करने से सम्पूर्ण जन दुःख के पार जाय अर्थात् दुःख को उल्लङ्घन करके सुखी होवैं ॥११॥

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    विषय

    भरत

    पदार्थ

    [१] हे अंग = (अगि गतौ) गतिशील नाड़ीचक्र ! (त्वा) = तुझे (भरता:) = अपना उचित भरण पोषण करनेवाले व्यक्ति (संतरेयुः) = तैर जाएँ। नाड़ी-चक्र में उत्पन्न हो जानेवाले दोषों के वे दूर कर सकें। यह भरतों का ग्राम: समूह गव्यन्- इन्द्रियों को अपनाने की कामनावाला है इन्द्रियों का शक्तिवर्धन उसका उद्देश्य है । इषित:- यह इसी उद्देश्य से निरन्तर प्रेरित हो रहा है, शक्तिवर्धन के कार्यों में निरन्तर लगा हुआ है। इन्द्रजूतः उस सर्वशक्तिमान् प्रभु से निरन्तर प्रेरित होकर ही यह कार्यों में व्याप्त होता है । (२) इन भरतों का सर्गतक्त:- यह गमन में प्रवृत्त प्रसवः - उद्योग अह निश्चय से अर्षात् गतिवाला बना रहे, अर्थात् ये अपने इस कार्य में कभी शिथिल न हो जाएँ। ये साधना में लगे ही रहें। मैं भी वः आपके (इन नाड़ियों के) यज्ञियानाम् (यज संगतिकरणे) इन संगतिकरण में उत्तम पुरुषों की सुमतिम्- कल्याणी मति को आवृणे- सर्वथा वरता हूँ। जो पुरुष इस नाड़ी-चक्र की शुद्धि की साधना में प्रवृत्त हैं, उन पुरुषों की सुमति का मैं भी वरण करता हूँ, अर्थात् मैं भी उनकी ही तरह साधना में प्रवृत्त होता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा प्राणसाधना द्वारा नाड़ी-चक्र शोधन का कार्य अविरतरूप से सदा चले। इस कार्य में प्रवृत्त होने पर हम युक्ताहार-विहार द्वारा अपना ठीक से भरण करनेवाले 'भरत' बनें ।

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    विषय

    स्त्रियों के प्रति आदर भाव।

    भावार्थ

    (अङ्ग) हे अभिलाषा करने योग्य स्त्रि ! (भरताः) भरण पोषण करने में समर्थ पुरुषो ! (यत्) जब (त्वा) तुझको (सम् तरेयुः) अच्छी प्रकार प्राप्त कर अपने मनोरथ में सफल हो जाते हैं तव (गव्यन्) स्तुति, आशीष् वाणी कहता हुआ (इन्द्र-जूतः) विद्वान् पुरुषों से प्रेरित (ग्रामः) विद्वान् जनों का संघ (इषितः) इच्छुक होकर (अर्षात्) प्राप्त हो। (अह) और अनन्तर (सर्गतक्तः) जलों के समान सुप्रसन्न या निसर्गतः सुप्रसन्न उत्तम सन्तति (अर्षात्) प्राप्त हो। मैं (यज्ञियानाम्) मैत्री भाव और संग करने के योग्य, उपदेय एवं अभिभावकों द्वारा देने योग्य (वः) तुम स्त्रियों की (सुमतिम्) शुभ मति को (आवृणे) अच्छी प्रकार स्वीकार करूं वा आप लोगों के विषय में सदा शुभ मति, उत्तम बुद्धि रक्खूं। (२) प्रजा राजा पक्ष में—(भरताः) राष्ट्र- पालक जन तुम प्रजा या सेना को अच्छी प्रकार प्राप्त होओ, (इन्द्र-जूतः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता नायक द्वारा प्रेरित इच्छावान् सैन्यसमूह (गव्यम्) भूमि विजय की कामना करता हुआ (अर्थात्) आगे बढ़े। जलों से हरा भरा (प्रसवः) उत्तम अभिषेक हो। (वः यज्ञियानां) करप्रद एवं मैत्री और सत्संग, सुप्रबन्ध रचना में योग्य तुम लोगों की भी (सु-मतिं) उत्तम मति का मैं राजा सदा आदर करूं। (३) अध्यात्म में इन्द्र—आत्मा, ग्रामः प्राणगण।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विद्वान लोक संपूर्ण विद्या शिकून बुद्धिमान होतात तसे इतर लोकांनीही व्हावे. असे करण्याने संपूर्ण लोकांचे दुःख नाहीसे होते व ते सुखी होतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O dear streams of water and national economy, as the producers and managers of the nation may cross and manage you with your consent, so may the people of the settlement too, desirous of crossing you, when impassioned and inspired by Indra, ruling light of the world, cross and manage the waters. And then, for sure, may the flood rush on. O managers and planners of the nation’s yajna, worthy of love and reverence, I admire and pray for the vision and wisdom and the good-will of friends and creators like you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O friend! the upholders and sustainers of all support you. They act like a guileless cow, who are representative of the people. In fact, they are actuated by the wise and mighty-like electricity, blessed with much wealth and they channelize water (by building bridges and canals). Let them come to us. O learned persons! as I accept the good advice tendered by you who are adorable, you also should listen and accept my good advice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons become wise by studying well (literally going across the river af knowledge). Same way, other persons should also become like them. In this way, all can enjoy happiness by putting an end to their miseries.

    Foot Notes

    (भरताः ) सर्वेषां धर्त्तार: पोषका: = Upholders and sustainers of all. (प्रसवः) प्रकृष्टैश्वर्य:= Endowed with much wealth. (सर्गतक्त:) जलस्य संकोचकः । सर्ग इत्युदकनाम ( N. G. 1, 12) = Controllers of water by building bridges and canals.

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