Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 33 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - नद्यः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    उद्व॑ ऊ॒र्मिः शम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत। मादु॑ष्कृतौ॒ व्ये॑नसा॒ऽघ्न्यौ शून॒मार॑ताम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । वः॒ । ऊ॒र्मिः । शम्याः॑ । ह॒न्तु॒ । आपः॑ । योक्त्रा॑णि । मु॒ञ्च॒त॒ । मा । अदुः॑ऽकृतौ । विऽए॑नसा । अ॒घ्न्यौ । शून॑म् । आ । अ॒र॒ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्व ऊर्मिः शम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत। मादुष्कृतौ व्येनसाऽघ्न्यौ शूनमारताम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। वः। ऊर्मिः। शम्याः। हन्तु। आपः। योक्त्राणि। मुञ्चत। मा। अदुःऽकृतौ। विऽएनसा। अघ्न्यौ। शूनम्। आ। अरताम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 13
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे स्त्रियो भवन्त्यः शम्या आप इव दुःखं हन्तु यो व ऊर्मिरिवोत्साहेन योक्त्राणि यूयं मुञ्चत। हे स्त्रीपुरुषौ युवामदुष्कृतौ दुष्टं मारतां व्येनसाघ्न्यौ सत्यौ पतिः पत्नी च द्वौ शूनं सुखमुदारतां प्राप्नुताम् ॥१३॥

    पदार्थः

    (उत्) उत्कृष्टे (वः) युष्मान् (ऊर्मिः) तरङ्ग इवोत्साहः (शम्याः) शम्यां कर्मणि भवाः (हन्तु) दूरीकुर्वन्तु (आपः) जलानीव (योक्त्राणि) योजनानि (मुञ्चत) त्यजत (मा) निषेधे (अदुष्कृतौ) अदुष्टाचारिणौ (व्येनसा) विनष्टपापाचरणेन (अघ्न्यौ) हन्तुमनर्हे (शूनम्) सुखम्। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (आ) (अरताम्) प्राप्नुताम् ॥१३॥

    भावार्थः

    यौ स्त्रीपुरुषौ दुःखबन्धनानिच्छित्वा दुष्टाचारं विहाय विद्योन्नतिं कुर्य्यातां तौ सततं सुखमाप्नुयातामिति ॥१३॥ अत्र मेघनदीविद्वत्सखिशिल्पिनौकादिस्त्रीपुरुषकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे स्त्रियो ! आप (शम्याः) कर्म में उत्पन्न (आपः) जलों के सदृश दुःख को (हन्तु) दूर करैं और (वः) आपका जो (ऊर्मिः) तरंग के सदृश उत्साह उससे (योक्त्राणि) जोड़नों को तुम (मुञ्चत) त्याग करो हे स्त्री और पुरुष ! तुम दोनों (अदुष्कृतौ) दुष्टाचरण से रहित हुए दुष्ट कर्म को (मा) नहीं प्राप्त होओ (व्येनसा) पाप का आचरण नष्ट होने से (अघ्न्यौ) नहीं मारने योग्य होते हुए पति और स्त्री दोनों (शूनम्) सुख को (उत्) उत्तम प्रकार (आ) (अरताम्) प्राप्त होवैं ॥१३॥

    भावार्थ

    जो स्त्री और पुरुष दुःख के बन्धनों को काट और दुष्ट आचरण को त्याग के विद्या की उन्नति करें, तो वे निरन्तर सुख को प्राप्त होवैं ॥१३॥ इस सूक्त में मेघ, नदी, विद्वान्, मित्र, शिल्पी, नौका आदि स्त्री पुरुष का कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेतीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उत्साह व निष्पापता

    पदार्थ

    [१] हे नाड़ियो! (वः) = तुम्हारी (ऊर्मिः) = तरंग-उत्साह, (शम्याः आपः) = शान्त स्वभाववाली प्रजाओं को (हन्तु) = प्राप्त हो । नाड़ी-चक्र को वश में करने पर, शक्ति का संयम होकर, जीवन में उत्साह दिखता है। इस साधना को करनेवाले लोग शान्त तो होते ही हैं। इन शान्त कर्म में व्याप्त रहनेवाले लोगों का जीवन सदा उत्साहमय बना रहे।(योक्त्राणि) = संसार- विषयों के साथ आसक्तियों को (मुञ्चत) = छोड़ो। संसार के विषय हमें बाँधनेवाले न हों। [२] हे विषा व शुतुद्रि- इडा व सुषुम्णा नाड़ियो! आप (अदुष्कृतौ) = सब दुष्कृतों से हमारे जीवन को रहित करनेवाली हो । (वि एनसा) = सब पापों व दोषों से आप रहित हो। अतएव (अघ्न्यौ) = नष्ट न करनेवालों में उत्तम हो। आप (मा) = मुझे (शूनम्) = समृद्धि को (आरताम्) = प्राप्त कराओ । वस्तुतः प्राणसाधना की पूर्ति इन नाड़ियों के वशीकरण में ही है। उस समय हमारा जीवन दुष्कृतों व पापों से दूर होता है- हम वास्तविक समृद्धि को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - नाड़ीचक्र का वशीकरण होने पर हमारा जीवन निष्पाप बनता है- हम विषयों के बन्धन से मुक्त होकर वास्तविक समृद्धि को प्राप्त करते हैं। सम्पूर्ण सूक्त 'इडा- सुषुम्णा' आदि नाड़ियों को प्राणसाधना द्वारा वश में करने का निर्देश कर रहा है। यही मोक्ष का मार्ग है। इन्हीं शब्दों से अगले सूक्त का प्रारम्भ होता है

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मचारिणियों को मेखलादि मोचन और शुद्ध हो कर गृहस्थ में प्रवेश।

    भावार्थ

    हे उत्तम स्त्रियो ! आप लोग (आपः) उत्तम पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य और (शम्याः) कर्म कुशल होकर (योक्त्राणि) आचार्य द्वारा बांधी गयी मेखला आदि रज्जुओं को (उत् मुञ्चत) त्याग करो। (वः) आप लोगों का (ऊर्मिः) तरंग उत्साह, हृदय का उत्तम भाव (उत् हन्तु) ऊपर उठे। हे वर वधू ! विवाहित स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (अदुष्कृता) दुष्टाचरण से रहित और (वि-एनसा) अपराधों से रहित शुद्ध चरित्र होकर (अध्न्यौ) एक दूसरे को पीड़ित न करते हुए, सौंदर्य से (शूनम् आ अरताम्) सुख को प्राप्त करो। दुःख को (मा अरताम्) प्राप्त न होओ। अथवा (योक्त्राणि मा मुञ्चत) परस्पर संयोग के प्रेम बन्धनों का त्याग मत करो। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे स्त्री-पुरुष दुःखबंधनातून सुटतात व दुष्ट आचरणाचा त्याग करतात आणि विद्येची वृद्धी करतात ते निरंतर सुख प्राप्त करतात. ॥ १३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O streams and rivers, may your flow, the waves, touch and sanctify the flagpole of yajna. May the waters relieve the yoke of bullocks. May the streams, fast, wide and free, never destructive but blissful, unhurt, protected and developed, auspicious as a boon, bring us peace, prosperity and joy. (Life is a flow, inspiring, energising, sanctifying. Manage it, develop it, live it as a divine gift-)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of persons are further explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O women ! destroy all miseries like the peace-giving waters, and cast aside all knots of ignorance by having enthusiasm, like the waves of the river. O husband and wife ! keep- ing yourselves away from all sins, do not keep the company of the wicked. Being inviolable by giving up all ignoble conduct, you would thus enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those husbands and wives who cut asunder all knots of misery, give up ignoble conduct and make progress in acquiring knowledge. They enjoy happiness incessantly.

    Foot Notes

    (ऊर्मि:) तरङ्ग इवोत्साहः । (ऊर्मिः) ऋगतौ (भ्वा० ) इति धातौ:अर्तेरुच्य ( उणादिकोषे 4, 44 ) इति सूत्रेण नियोर्मिः 4, 43 ) इति अनुवृत्ते:मिः उत् चक्रन्छती गच्छतीति ऊर्मिः जलतरंगो वाअत्र ऊर्मिः इव उत्साह: = Zeal like the waves. ( शम्याः) शम्र्या कर्मणि भवाः । शमीति कर्मनाम (NG 2, 1) = Worn in action.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top