ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अच्छा॒ सिन्धुं॑ मा॒तृत॑मामयासं॒ विपा॑शमु॒र्वीं सु॒भगा॑मगन्म। व॒त्समि॑व मा॒तरा॑ संरिहा॒णे स॑मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्ती॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । सिन्धु॑म् । मा॒तृऽत॑माम् । अ॒या॒स॒म् । विपा॑शम् । उ॒र्वीम् । सु॒ऽभगा॑म् । अ॒ग॒न्म॒ । व॒त्सम्ऽइ॑व । मा॒तरा॑ । सं॒रि॒हा॒णे इति॑ स॒म्ऽरि॒हा॒णे । स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अनु॑ । स॒म्ऽचर॑न्ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा सिन्धुं मातृतमामयासं विपाशमुर्वीं सुभगामगन्म। वत्समिव मातरा संरिहाणे समानं योनिमनु संचरन्ती॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ। सिन्धुम्। मातृऽतमाम्। अयासम्। विपाशम्। उर्वीम्। सुऽभगाम्। अगन्म। वत्सम्ऽइव। मातरा। संरिहाणे इति सम्ऽरिहाणे। समानम्। योनिम्। अनु। सम्ऽचरन्ती॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यथा मातृतमां सिन्धुं प्राप्नुवन्ति तथैव वयं विपाशमूर्वीं सुभगामध्यापिकामुपदेशिकामगन्म। यथा संरिहाणे समानं योनिमनुसञ्चरन्ती मातरा वत्समिव मामध्यापनशिक्षार्थं प्राप्नुयातस्ते अहमच्छायासम् ॥३॥
पदार्थः
(अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सिन्धुम्) समुद्रम् (मातृतमाम्) अतिशयेन मातरो मातृवत्पालिका नद्यः। मातर इति नदीना०। निघं० १। १२। अत्र सुपां व्यत्ययः। (अयासम्) अयासिषं प्राप्नुयाम। अत्र वाच्छन्दसीतीडभावः। (विपाशम्) विगता पाट् बन्धनं यस्यान्ताम् (उर्वीम्) महतीम् (सुभगाम्) सौभाग्ययुक्ताम् (अगन्म) प्राप्नुयाम (वत्समिव) यथा गौर्वत्सम् (मातरा) मातृवद्वर्त्तमाने (संरिहाणे) सम्यगास्वादकर्त्र्यौ (समानम्) (योनिम्) गृहम् (अनु) (सञ्चरन्ती) सम्यग्गच्छन्त्यौ जानन्त्यौ ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समुद्रं नद्यो वत्सान् गावो दम्पती समानं गृहं च प्राप्नुतस्तथैवाऽध्यापिकोपदेशिका अस्मान् प्राप्नुवन्तु वयं च याः कन्याः सौभाग्यवत्यश्च ताः प्राप्नुयाम ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जैसे (मातृतमाम्) अत्यन्त माता के सदृश पालन करनेवाली नदियाँ (सिन्धुम्) समुद्र के प्रति प्राप्त होती हैं वैसे ही हम (विपाशम्) बन्धनरहित (उर्वीम्) बड़ी (सुभगाम्) सौभाग्य से युक्त पढ़ाने और उपदेश देनेवाली स्त्री को (अगन्म) प्राप्त हों और जैसे (संरिहाणे) उत्तम प्रकार आस्वाद करनेवाली स्त्रियाँ (समानम्) तुल्य (योनिम्) गृह को (अनु) (सञ्चरन्ती) अनुकूलता से उत्तम प्रकार चलतीं और जानती हुईं (मातरा) माता के सदृश वर्त्तमान (वत्समिव) जैसे गौ बछड़े को वैसे मुझको पढ़ाने और शिक्षा देने के लिये प्राप्त होवें उनको मैं (अच्छ, अयासम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र को नदियाँ और बछड़ों को गौवें और स्त्री पुरुष एक गृह को प्राप्त होते हैं, वैसे ही पढ़ाने और उपदेश देनेवाली स्त्रियाँ हम लोगों को प्राप्त हों और हम लोग जो कन्या और सौभाग्यवाली स्त्रियाँ हों, उनको प्राप्त हों ॥३॥
विषय
इडा [सुषुम्णा],सुभगा [इडा]
पदार्थ
[१] मैं विश्वामित्र (मातृतमाम्) = मेरे जीवन के निर्माण में सर्वोत्तम स्थान रखनेवाली, (सिन्धुम्) = उस प्रभु की ओर निरन्तर ले चलनेवाली सुषुम्णा की (अच्छा) = ओर (अयासम्) = आता हूँ । इसमें प्राणों के संयम द्वारा इसके जागरण का प्रयत्न करता हूँ। [२] (उर्वीम्) = अन्धकार दूर करके ज्ञानप्रकाश को फैलानेवाली (सुभगाम्) = उत्तम ज्ञानैश्वर्यवाली (विपाशम्) = अज्ञान की उत्पाटिका इस इडा को भी (अगन्म) = प्राप्त होता हूँ । इसमें प्राणसंयम द्वारा मस्तिष्क-गगन में ज्ञानसूर्य के उदय का प्रयत्न करता हूँ। [३] (इव मातरा) = जैसे दो गौ माताएँ (वत्सं संरिहाणे) = बछड़े को चाटकर उसे चमका रही होती हैं, इसी प्रकार ये इडा व सुषुम्णा मेरे जीवन को उज्ज्वल बनाती हुई उस (समानं योनिम्) = प्राणिमात्र के समान निवास स्थान प्रभु की ओर (अनुसञ्चरन्ती) = गति करती हुई हैं। इनमें प्राणों का संयम करनेवाला प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता चलता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुषुम्णा की साधना मेरे जीवन का निर्माण करती है तो इडा की साधना मुझे ज्ञानैश्वर्य प्राप्त कराती है।
विषय
विपाट् साता, का वर्णन । विपाट् माता परमेश्वर ।
भावार्थ
विपाट् माता का वर्णन करते हैं। हम लोग (सुभगाम्) पति द्वारा उत्तम रीति से सुखपूर्वक सेवने योग्य, उत्तम सौभाग्य और ऐश्वर्यादि सुखों की देने वाली, (सिन्धुम्) पति को प्रेम-पाश में बांधने वाली (मातृतमाम्) उत्तम ज्ञानवती वा उत्तम माता के स्वभाव और रूप वाली (विपाशम्) पति को ऋणादि बन्धनों से छुड़ाने वाली, (उर्वीम्) भूमिस्वरूप, बहुत विशाल हृदय वाली स्त्री का (अयासम्) मैं प्राप्त होऊं। और ऐसी ही माता को हम सभी (अगन्म) प्राप्त करें। (मातरा) माता और पिता दोनों ही (वत्सं इव संरिहाणे) बछड़े को प्रेम से चराती गौवों के समान अति स्नेह से युक्त होकर प्रजा सन्तति को (संरिहाणे) अच्छी प्रकार प्रेम करते हुए (समानं योनिम्) एक ही गृह में (अनु) आश्रय लेकर (सं चरन्ती) एक साथ रहते रहें। (२) सबसे श्रेष्ठ माता परमेश्वर विविध बन्धनों को काटने से ‘विपाश’ है। सुख ऐश्वर्यवान् होने से ‘सुभगा’ है। महान् होने से ‘उर्वी’ है। मातृवत् पूज्य होने से माता के समान स्त्रीलिंग में कहा गया है। जीव और प्रभु एक दूसरे को मा बच्चे के समान प्रेम करें। जीव भी ज्ञानी होने से ‘माता’ है। उन दोनों का समान योनि, स्वरूप, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, प्रत्यगात्मरूपता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा नद्या समुद्राला मिळतात व गायींना वासरे प्राप्त होतात आणि पती-पत्नी एकाच घरात राहतात, तसेच शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या स्त्रिया आम्हाला प्राप्त व्हाव्यात. कन्या व सौभाग्यशाली स्त्रियांना आम्ही प्राप्त व्हावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I go to the river, I go to the sea, dearest mother generator and receiver of the rivers.$We go to the river, free, wide and auspicious.$The streams flow to the sea like mother cows hastening to the stalls to meet the calf, loving and caressing, reaching together in equal love and joy living together in one home.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of rivers/ educated women is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the rivers go to the sea, so we approach the great and auspicious female teacher or preacher who is free from the bondage of ignorance and sin. As mother cows eating good food (grass etc.) and grazing hasten to caress the calf, on seeing and meeting it, so the noble teacher and preacher come to me with love to teach. Let me receive them with due reverence and humility.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the rivers rush to the sea, mother cows the approach their calves, and the couple get a common home to dwell, same way, let the noble teacher and preacher come to us lovingly and let us turn our girls and women trained with their knowledge.
Foot Notes
(मातृतमाम् ) अतिशयेन मातरो, मातृवत्पालिका नद्यः । मातर इति नदीनाम (N. G. 1, 12) अत्र सुपां सुलुगितिव्यत्ययः । = The rivers who feed us well with water like mothers. ( विपाशम् ) विगता पाट् बन्धनं यस्यान्ताम् । = Free from the bondage of ignorance and sin. (योनिम् ) गृहम् । योनिरिति गृहनाम् (N. G. 3, 4,) The home or dwelling.
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