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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - नद्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ना व॒यं पय॑सा॒ पिन्व॑माना॒ अनु॒ योनिं॑ दे॒वकृ॑तं॒ चर॑न्तीः। न वर्त॑वे प्रस॒वः सर्ग॑तक्तः किं॒युर्विप्रो॑ न॒द्यो॑ जोहवीति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ना । व॒यम् । पय॑सा । पिन्व॑मानाः । अनु॑ । योनि॑म् । दे॒वऽकृ॑तम् । चर॑न्तीः । न । वर्त॑वे । प्र॒ऽस॒वः । सर्ग॑ऽतक्तः । कि॒म्ऽयुः । विप्रः॑ । न॒द्यः॑ । जो॒ह॒वी॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एना वयं पयसा पिन्वमाना अनु योनिं देवकृतं चरन्तीः। न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तः किंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एना। वयम्। पयसा। पिन्वमानाः। अनु। योनिम्। देवऽकृतम्। चरन्तीः। न। वर्तवे। प्रऽसवः। सर्गऽतक्तः। किम्ऽयुः। विप्रः। नद्यः। जोहवीति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    या एना पयसा पिन्वमाना देवकृतं योनिमनु सञ्चरन्तीर्नद्यो वर्त्तवे न भवन्ति न निवर्त्तन्ते ता वयं प्राप्नुयाम। यः सर्गतक्तः प्रसवः किंयुर्विप्रो जोहवीति सोऽस्मान्प्राप्नुयात् ॥४॥

    पदार्थः

    (एना) एनेन (वयम्) (पयसा) उदकेन (पिन्वमानाः) सिञ्चमानाः (अनु) (योनिम्) उदकम्। योनिरित्युदकना०। निघं० १। १२। (देवकृतम्) देवैर्विद्वद्भिः कृतं निष्पादितं शास्त्रम् (चरन्तीः) प्राप्नुवन्त्यः (न) (वर्त्तवे) वरितुं स्वीकर्त्तुम् (प्रसवः) सन्तानः (सर्गतक्तः) यः सर्ग उत्पत्तौ तक्तो हसितः। अत्र वाच्छन्दसीतीडभावः। (किंयुः) आत्मनः किमिच्छुः। अत्र वाच्छन्दसीति क्यच् प्रतिषेधो न। (विप्रः) मेधावी (नद्यः) सरितः (जोहवीति) भृशं शब्दयति ॥४॥

    भावार्थः

    यथा सोदका नद्यः सर्वोपकारका भवन्ति कदाचिज्जलहीना न भवन्ति तथैव यः कृतब्रह्मचर्य्ययोः स्त्रीपुरुषयोः सन्तानो भूत्वा धर्म्येण ब्रह्मचर्य्येणाऽखिला विद्याः प्राप्य विद्वान् जायते स एव सर्वानुपर्त्तुं शक्नोति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    जो (एना) इस (पयसा) जल से (पिन्वमानाः) सींचती हुईं (देवकृतम्) विद्वानों ने किये शास्त्र और (योनिम्) जल को (अनु, चरन्तीः) अनुकूल प्राप्त होनेवाली (नद्यः) नदियाँ (वर्त्तवे) स्वीकार करने को (न) नहीं निवृत्त होती हैं उनको (वयम्) हम लोग प्राप्त होवें जो (सर्गतक्तः) उत्पत्ति में प्रसन्न (प्रसवः) सन्तान (किंयुः) अपने को क्या इच्छा करनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् पुरुष (जोहवीति) बारम्बार शब्द करता है, वह हम लोगों को प्राप्त होवे ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे जलसहित नदियाँ सबकी उपकार करनेवाली होतीं और कभी जल से हीन नहीं होती हैं, वैसे जो ब्रह्मचर्य से युक्त स्त्री और पुरुष का सन्तान उत्पन्न हो और धर्मसम्बन्धी ब्रह्मचर्य्य से सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त होकर विद्वान् होता है, वही सबका उपकार कर सकता है ॥४॥

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    विषय

    त्रिवेणी-स्नान

    पदार्थ

    [१] इडा, पिंगला, सुषुम्णा आदि नाड़ियों की ही पुरुषविधता को करके उनसे कहलाते हैं कि वयम् हम एना पयसा अपने इस ज्ञानजल से पिन्वमाना:- संतृप्त करती हुई देवकृतं (योनिम्) = प्रभु से निश्चित किये गये मार्ग पर (अनुचरन्तीः) = क्रमशः गति कर रही हैं । [२] हमारा यह (सर्गतक्तः) = गमन में प्रवृत्त प्रसवः - उद्योग वर्तवे न= -रोकने के लिए नहीं होता। एक साधक प्राणसाधना प्रारम्भ करता है, तो उसे इस प्राणसाधना में विच्छेद नहीं करना होता । 'दीर्घकालनैरन्तर्य-आदर सेवितो दृढभूमिः' इस योगसूत्र के अनुसार प्राणसाधना का निरन्तर चलना आवश्यक है। किं-युः = उस आनन्दमय- अनिरुक्त प्रजापति को प्राप्त करने की कामनावाला विप्रः- ज्ञानी पुरुष वद्यः = इन नाड़ियों को जोहवीति-पुकारता है। इनकी साधना से ही तो वह प्रभु को प्राप्त करेगा । इनमें प्राणों के निरोध से सब अशुभवृत्तियां दग्ध हो जाती हैं, जीवन उज्ज्वल बनता है और प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- इडा, पिंगला व सुषुम्णा में प्राणों का निरोध ही त्रिवेणी में स्नान है। इससे जीवन के नैर्मल्य की सिद्धि होती है और साधक प्रभु को प्राप्त करता है।

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    विषय

    नदी जल के दृष्टान्त से प्रजोत्पत्त्यर्थ स्त्री का पाणिग्रहण।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पयसा पिन्वमानाः नद्यः) जल से भरी पूरी नदियां और देशों को सींचती हुई (देवकृतं योनिम् अनु चरन्तीः) परमेश्वर के बनाये स्थान, समुद्र मार्ग को अनुसरण करती हुईं, या (देवकृतं योनिम् अनु चरन्तीः) मेघ से बरसे या सूर्य द्वारा उत्पादित जल को साथ लेकर चलती हुई जाती हैं। उनका (सर्गतक्तः प्रसवः) जलों के द्वारा सुप्रसन्न, वेग से गमन करना (न वर्त्तवे) फिर लौटने के लिये नहीं होता इसी प्रकार (वयम्) हम सभी स्त्री पुरुष (एना पयसा) इस अन्न और दूध से अन्न और जल से (पिन्वमानाः) स्वयं और औरों को पुष्ट करते हुए (देवकृतं योनिम्) परमेश्वर और देव अर्थात् विद्वान् द्वारा या प्रिय कामनायोग्य पति द्वारा बनाये गृह को ही (अनु चरन्तीः) अनुकूल होकर प्राप्त होते हैं। हमारा (सर्गतक्तः प्रसवः) सृष्टिनियम से विकसित उत्तम सन्तान उत्पन्न करने का कार्य (न वर्त्तवे) कभी निवृत्त या समाप्त नहीं हो सकता। तब फिर (विप्रः) विविध कामनाओं को पूर्ण करने हारा विद्वान् पुरुष (किंयुः) करता हुआ (नद्यः) गुणों और विद्याओं में समृद्ध, रूप-यौवन-सम्पन्न युवतियों को (जोहवीति) स्वीकार किया करता है ? उत्तम सन्तान के अतिरिक्त दूसरे किसी और प्रयोजन से विद्वान् लोग स्त्रियों को ग्रहण नहीं किस विशेष कामना को करते। और वह सन्तान का कार्य स्वाभाविक नैसर्गिक कर्म है। स्त्रियें भी सन्तान को दूध आदि से पुष्ट करती हुई सदा पति के गृह में धर्म नियमानुसार आचरण करके रहती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशा जलयुक्त नद्या सर्वांना उपकृत करतात, कधीही जलविहीन नसतात तसे ब्रह्मचर्ययुक्त स्त्री-पुरुषांचे संतान ब्रह्मचर्य पालन व विद्या प्राप्ती करून, विद्वान बनून सर्वांवर उपकार करू शकते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We rivers rising with water and fertilizing the land move on by the same course appointed by the divine maker, never relenting in the flow, our birth itself and flow is never meant to stop.$(The mantra refers to the stream of life, continuance of the race, the family and the tradition of education and culture.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Subject of rivers and female teachers and preachers continues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    These rivers fertilizing and irrigating the lands with water (and fresh earth. Ed.) and feeding thirsty men they flow as ordained by God do not wait for acceptance and do not refrain from their God-appointed duty. Likewise, let us utilize them properly. Let these teachers and preachers be like these benevolent rivers studying the God-revealed Shastra (Veda) and discharging their duties properly. Let ue have good infants with cheerful smiles at their birth, who in due course desire the knowledge of everything and are extraordinarily wise. These infants utter sweet words while addressing their mothers who are benevolent like rivers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the rivers, full of water, are benevolent, in the the same way, the children born of the parents who have observed Brahmacharya and who have become scholars by acquiring the know- ledge of all sciences, can do good to all, and none else.

    Foot Notes

    (पिन्वमाना:) सिञ्चमाना: Irrigating and fertilizing. (योनिम् ) उदकम् । योनिरित्युदकनाम ( N. G 1, 12 ) = The water. ( सर्गतक्तः ) यः सर्ग उत्पत्तॉ तक्तो हसितः । अत्र वाच्छन्दसीतीभाव: = Cheerful or smiling at the time of birth.

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