ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒तद्वचो॑ जरित॒र्मापि॑ मृष्ठा॒ आ यत्ते॒ घोषा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॑। उ॒क्थेषु॑ कारो॒ प्रति॑ नो जुषस्व॒ मा नो॒ नि कः॑ पुरुष॒त्रा नम॑स्ते॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । वचः॑ । ज॒रि॒तः॒ । मा । अपि॑ । मृ॒ष्ठाः॒ । आ । यत् । ते॒ । घोषा॑न् । उत्ऽत॑रा । यु॒गानि॑ । उ॒क्थेषु॑ । का॒रो॒ इति॑ । प्रति॑ । नः॒ । जु॒ष॒स्व॒ । मा । नः॒ । नि । क॒रिति॑ कः । पु॒रु॒ष॒ऽत्रा । नमः॑ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्वचो जरितर्मापि मृष्ठा आ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि। उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्व मा नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते॥
स्वर रहित पद पाठएतत्। वचः। जरितः। मा। अपि। मृष्ठाः। आ। यत्। ते। घोषान्। उत्ऽतरा। युगानि। उक्थेषु। कारो इति। प्रति। नः। जुषस्व। मा। नः। नि। करिति कः। पुरुषऽत्रा। नमः। ते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे जरितस्त्वमेतद्वचो माऽपि मृष्ठास्ते यद्यान्युत्तरा युगानि घोषान् प्राप्नुयुस्तान्युक्थेषु नोऽस्मान् प्राप्नुवन्तु। हे कारो तैर्नोऽस्मान्प्रत्याजुषस्व पुरुषत्रा नो मा नि कोऽतस्ते नमोऽस्तु ॥८॥
पदार्थः
(एतत्) (वचः) (जरितः) प्रशंसक (मा) निषेधे (अपि) (मृष्ठाः) सहेः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (आ) (यत्) यानि (ते) तव (घोषान्) वाक्प्रयोगान् (उत्तरा) उत्तराणि युगानि वर्षाणि (उक्थेषु) प्रशंसनीयेषु व्यवहारेषु (कारो) यः करोति तत्सम्बुद्धौ (प्रति) (नः) अस्मान् (जुषस्व) सेवस्व (मा) (नः) अस्मान् (नि) (कः) निकुर्य्याः (पुरुषत्रा) पुरुषान् (नमः) (ते) तुभ्यम् ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या यावान् भूतकालो गतस्तत्रत्यानां कर्मणां शिष्टं कार्य्यं कर्त्तव्यं विज्ञाय वर्त्तमाने भविष्यति च यथोन्नतिर्भूत्वा विघ्नानि निवर्त्तेरँस्तथैवाऽनुतिष्ठत ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (जरितः) प्रशंसा करनेवाले आप ! (एतत्) इस (वचः) वचन को (मा) नहीं (अपिमृष्ठाः) सहो (ते) आपके (यत्) जो (उत्तरा) आगे के (युगानि) वर्ष (घोषान्) वाणी के प्रयोगों को प्राप्त होवे वह (उक्थेषु) प्रशंसा करने योग्य व्यवहारों में (नः) हम लोगों को प्राप्त होवैं। हे (कारो) हे कर्त्ता पुरुष ! उनसे (नः) हम लोगों की (प्रति, आ, जुषस्व) सेवा करो हम (पुरुषत्रा) पुरुषों का (मा, नि, कः) अपकार मत करो इससे (ते) आपके लिये (नमः) नमस्कार हो ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जितना भूतकाल गया, उसमें व्यतीत हुए कर्मों के शेष करने योग्य कार्य्य को जान के वर्त्तमान और भविष्यत् काल में जिस प्रकार उन्नति हो के विघ्न निवृत्त होवें, वैसे ही करो ॥८॥
विषय
प्रभु-भजन
पदार्थ
[१] हे (जरितः) = स्तोतः ! (एतद् वचः) = प्रभु के लिए किये जानेवाले इन स्तुति-वचनों को (मा अपिमृष्ठा:) = तू मत भूल जाना। प्रभु स्तवन तुझे विस्मृत न हो जाए। (यत्) = जो (ते) = तेरे उत्तरा युगानि आनेवाले जीवन के काल हों वे आघोषान् प्रभु के नामों का घोषण करनेवाले हों। उत्तरोत्तर तेरी स्तवन की वृत्ति बढ़ती जाए। (२) हे कारो-स्तुति करनेवाले जीव ! उक्थेषु इन स्तोत्रों में नः = हमें प्रति जुषस्व तू प्रतिदिन प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला हो। नः = हमें मा निकः = निरादृत न करना । प्रभु को भूल जाना ही प्रभु का निरादर करना है। पुरुषत्रा= पुरुषों में ते नमः = तेरे लिए आदर का भाव हो । तुझे प्रभु-भक्त जान तुझे वे अपने हृदयों में उचित मान देनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु-भजन करनेवाले हों। उत्तरोत्तर हमारी प्रभु-भक्ति बढ़ती चले। प्रभु भजन के कारण ही लोगों के हम समादरणीय हों।
विषय
उपदेष्टा और शासक को उपदेश।
भावार्थ
हे (जरितः) उपदेश करने हारे विद्वन् ! हे आज्ञापक ! ( एतद् वचः) इस वचन को तू (मा अपि मृष्ठाः) कभी सहन मत कर (यत्) कि (ते) तेरे (उत्तरा युगानि) आगे आने वाले वर्षों में (घोषान्) उद्घोषित घोषणाओं को (प्रति) पालन न करें। हे (कारो) क्रियाकुशल पुरुष ! ( उक्थेषु) प्रशंसनीय उपदेशादि कर्मों में (नः) हमें प्रजाओं स्त्रियों, और सेनाओं को (प्रति जुषस्व ) अवश्य प्रेम कर। और (नः) हमें कभी तू (पुरुषत्रा) पुरुषों के बीच (नि कः) निरादर मत कर। ( नमः ते) हम तेरे प्रति सदा नमस्कार और आदर भाव दर्शाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! भूतकाळात झालेले कार्य व त्यापैकी शेष कार्य जाणून वर्तमान व भविष्यकाळात ज्याप्रकारे उन्नती होऊन विघ्न नाहीसे होईल असे करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O singer and celebrant, neglect not, nor forget these holy words of yours which the ages to come will honour and resound. O poet of divinity, master maker and artist of eminence, love us and serve us with faith in your yajnic programmes. Be not arrogant to us or to noble people in general. Salutations to you!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of man are further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O praiser of Indra (God or the righteous and just king) ! do not forget the words proclaimed even in future ages (the all-time truth). May much noble words be received by us in our all noble dealings. O doer of good deeds! be favorable to us with such good words. Do not treat us in arrogant fashion of men or do not insult us. Our salutations to you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! think over what has been done by you in the past, and what has yet to be done. Try to do it right now and in future, so that all obstacles may be set aside and there may be all-round progress.
Foot Notes
(जरितः) प्रशसंकः। जरिता इति स्तोतृनाम (NG3, 16) = Praiser of Indra.(God and or righteous noble king.) (द्योषान्) वाक्प्रयोगान् । घोष इति वाङ्नाम (NG 1, 11 ) = Words or expressions of speech. (निक:) निकुर्य्या: = Insult.
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