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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    असू॑त॒ पूर्वो॑ वृष॒भो ज्याया॑नि॒मा अ॑स्य शु॒रुधः॑ सन्ति पू॒र्वीः। दिवो॑ नपाता वि॒दथ॑स्य धी॒भिः क्ष॒त्रं रा॑जाना प्र॒दिवो॑ दधाथे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असू॑त । पूर्वः॑ । वृ॒ष॒भः । ज्याया॑न् । इ॒माः । अ॒स्य॒ । शु॒रुधः॑ । स॒न्ति॒ । पू॒र्वीः । दिवः॑ । न॒पा॒ता॒ । वि॒दथ॑स्य । धी॒भिः । क्ष॒त्रम् । रा॒जा॒ना॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । द॒धा॒थे॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असूत पूर्वो वृषभो ज्यायानिमा अस्य शुरुधः सन्ति पूर्वीः। दिवो नपाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असूत। पूर्वः। वृषभः। ज्यायान्। इमाः। अस्य। शुरुधः। सन्ति। पूर्वीः। दिवः। नपाता। विदथस्य। धीभिः। क्षत्रम्। राजाना। प्रऽदिवः। दधाथे इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे नपाता राजाना युवां यथा पूर्वो वृषभो ज्यायानिमाः पूर्वीः शुरुधोऽसूताऽस्य सकाशाद् वृष्टिकाः सन्ति तथैव दिवो विदथस्य प्रदिवो धीभिः क्षत्रं दधाथे ॥५॥

    पदार्थः

    (असूत) सूते (पूर्वः) पालकः प्रथमः (वृषभः) वर्षकः (ज्यायान्) महान्वृद्धः (इमाः) (अस्य) (शुरुधः) याः शु शीघ्रं रुध्नन्ति ताः (सन्ति) (पूर्वीः) प्राचीनाः (दिवः) अन्तरिक्षात् (नपाता) यौ न पततो विनश्यतस्तत्सम्बुद्धौ (विदथस्य) विज्ञानकरस्य (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (क्षत्रम्) रक्षितव्यं राज्यम् (राजाना) सूर्यविद्युताविव प्रकाशमानौ राज्यन्यायेशौ (प्रदिवः) प्रकृष्टान् विद्याविनयप्रकाशान् (दधाथे) धरथः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽनुक्रमेण सूर्यो जलधारणवर्षणाभ्यामस्य जगतो हितं करोति तथैव शुभगुणन्यायैः सह वर्त्तमानाः सन्तो राजादयः सुरक्षितं राज्यं पान्तु ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (नपाता) नाशरहित (राजाना) सूर्य्य और बिजुली के सदृश प्रकाशयुक्त राजा और न्यायाधीश ! आप दोनों जैसे (पूर्वः) पालन करनेवाला प्रथम (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता (ज्यायान्) बड़ा वृद्ध (इमाः) इन (पूर्वीः) प्राचीन (शुरुधः) शीघ्र रुचिकारकों को (असूत) उत्पन्न करता है और (अस्य) इसके समीप से वृष्टिका वर्षायें हैं वैसे ही (दिवः) अन्तरिक्ष से (विदथस्य) विज्ञान करनेवाले के (प्रदिवः) विद्या और विनय के प्रकाशों को तथा (धीभिः) बुद्धि वा कर्मों से (क्षत्रम्) रक्षा करने योग्य राज्य को (दधाथे) धारण करते हो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे क्रम से सूर्य्य जल के धारण और वृष्टि से इस संसार का हित करता है, वैसे ही उत्तम गुण और न्यायों के सहित वर्त्तमान हुए राजा आदि लोग उत्तम प्रकार रक्षित राज्य का पालन करैं ॥५॥

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    विषय

    इन्द्र+वरुण=शक्ति+ज्ञान

    पदार्थ

    [१] जो व्यक्ति (असूत) अपने अन्दर सोम का उत्पादन करता है, वह (पूर्व:) = अपना पालन व पूरण करनेवाला होता है। (वृषभः) = शक्तिशाली बनता है, (ज्यायान्) = यह प्रशस्त जीवनवाला होता है । (इमाः) = ये रेतः कण रूप जल [आपः] (अस्य) = इस सोम का पान करनेवाले पुरुष के (शुरुधः सन्ति) = शोक को रोकनेवाले होते हैं-ये इसकी स्थिति को कभी शोचनीय नहीं होने देते। (पूर्वी:) = ये इसका पालन व पूरण करते हैं। [२] इस सोम का पान करनेवाले के जीवन में इन्द्र और वरुण । इन्द्र शक्ति देवता है 'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य', वरुण 'प्रचेता:' होता हुआ प्रकृष्ट ज्ञान को प्राप्त कराता है। शक्ति व पाप-निवारण के देवता (दिवः नपाता) = ज्ञान को नष्ट न होने देनेवाले होते हैं, (राजाना) = ये इसके जीवन को व्यवस्थित [Regvlated] व दीप्त [राज् दीप्तौ] बनाते हैं । ये इसके जीवन में (विदथस्य धीभिः) = ज्ञान प्राप्ति की बुद्धियों द्वारा (दिव:) = ज्ञानों को तथा (क्षत्रम्) = बल को (प्रदधाथे) = प्रकर्षेण धारण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा इन्द्र हमारे में बल को धारण करता है तो वरुण [प्रचेता:] हमारे में ज्ञान को स्थापित करता है।

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    विषय

    मेघवत् राजा का शासन। परमेश्वर और आत्मा के शासन का उत्तम नमूना।

    भावार्थ

    (पूर्वः वृषभः असूत) जिस प्रकार जल से पूर्ण मेघ जलधाराओं को उत्पन्न करता है। उसके ही सामर्थ्य से (शुरुधः) वे जलधाराएं (शुरुधः) तृष्णादि को रोकने वाली उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार (पूर्वः) ऐश्वर्य से पूर्ण एवं प्रजा का पालक (वृषभः) बलवान् (ज्यायान्) सबसे अधिक श्रेष्ठ होकर (असूत) शासन करे। (अस्य) इसके शासन में (इमाः) ये (पूर्वी) पूर्व, परम्परा से प्राप्त (शुरुधः) स्वयं वेग से बढ़कर शत्रुओं को रोकने वाली सेनाएं (सन्ति) हों। इस प्रकार राजा और प्रजा वा राजा और रानी दोनों ही (दिवः) प्रकाशमान, कामनायोग्य (विदथस्य) प्राप्त करने योग्य राज्यैश्वर्य को (नपाता) न गिरने देने वाला, उसके रक्षक होकर (राजाना) अपने २ गुणों और प्रतापों से एक दूसरे का मन अनुरञ्जन करते हुए, तेजों से प्रकाशित होते हुए (धीभिः) धारण करने वाले कर्मों और बुद्धियों से (प्रदिवः) उत्तम कोटि के काम्य और प्रकाशयुक्त विज्ञानों वा ऐश्वर्यो और (क्षत्रं) बलवीर्य, राज्यैश्वर्य का (दधाथे) धारण करें। (२) परमेश्वर पक्षमें—(पूर्व) सबसे पूर्व विद्यमान और सबसे अधिक पूर्ण परमेश्वर सुखों का वर्षक, सबसे बड़ा, महान् होकर इस जगत् को उत्पन्न करता है। वे (पूर्वीः शुरुधः अस्य) पूर्ण वा सबसे पूर्व विद्यमान प्रकृति की मात्राएं, जो वेग के कर्म को रोके हुए थीं, निश्चल थीं वा वे परमेश्वर के ‘शुच्’ अर्थात् दीप्ति, तेज को अपने भीतर धारण करने वाली रहीं । वे भी उसके ही शासन में सदा से रही हैं। आत्मा और परमात्मा ये दोनों (राजाना) स्वप्रकाश होने से राजा हैं। दोनों ही (दिवः विदथस्य नपाता) प्रकाश और ज्ञान को विनष्ट नहीं होने देते। वे दोनों (धीभिः) प्रज्ञाओं और धारणशक्तियों से (प्रदिवः दधार्थ) उत्कृष्ट ज्ञानों, कामनाओं और बड़े २ लोकों को धारण करते हैं। इति त्रयोविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य क्रमानुसार जल धारण करून वृष्टीने या जगाचे हित करतो तसेच राजाने उत्तम गुण व न्यायपूर्वक संरक्षण देऊन राज्याचे पालन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, first and eternal lord, supreme, generous and omnipotent, creates these forms of existence. These ancient forms of this world are life-inspired and life- giving. Two immortal powers, both ruling and brilliant, Indra and Varuna, Spirit and Energy, ruler and people, with their will and action from the light of heaven hold and sustain the divine yajnic order of nature and humanity and promote the light of knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and judge! you are shining like the sun and lightning, and do not go down (swerve from the path of duty). The sun is first protector and then showers benefits. The greatest sun generates all objects and eradicates the diseases and miseries. Because of the solar rays the rains come from the firmament. In the same manner, you uphold the State and protect it from all sides through the wisdom and actions of the enlightened men. They are givers of wisdom and you also uphold (maintain) the sublime light of knowledge and humility.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun is benevolent to the world by upholding and raining down the water, in the same manner, it is the duty of the king and his officers to protect and keep safe their kingdom, by becoming noble, virtuous and just.

    Foot Notes

    (शुरुधः ) याः शु शीघ्रम् रुन्धन्ति ताः । = Which soon destroys diseases and miseries. ( राजाना) सूर्य विद्युताविव प्रकाशमानौ राजान्यायेशौ The king and judge who shine like the sun and the lightning or electricity. (विदथस्य) विज्ञानकरस्य । = Giver of wisdom or knowledge. (प्रदिवः) प्रकृष्टान् विद्याविनयप्रकाशान्। = Sublime light of knowledge and humility,

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