ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 8
तदिन्न्व॑स्य सवि॒तुर्नकि॑र्मे हिर॒ण्ययी॑म॒मतिं॒ यामशि॑श्रेत्। आ सु॑ष्टु॒ती रोद॑सी विश्वमि॒न्वे अपी॑व॒ योषा॒ जनि॑मानि वव्रे॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । स॒वि॒तुः । नकिः॑ । मे॒ । हि॒र॒ण्ययी॑म् । अ॒मति॑म् । याम् । अशि॑श्रेत् । आ । सु॒ऽस्तु॒ती । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे । अपि॑ऽइव । योषा॑ । जनि॑मानि । व॒व्रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्न्वस्य सवितुर्नकिर्मे हिरण्ययीममतिं यामशिश्रेत्। आ सुष्टुती रोदसी विश्वमिन्वे अपीव योषा जनिमानि वव्रे॥
स्वर रहित पद पाठतत्। इत्। नु। अस्य। सवितुः। नकिः। मे। हिरण्ययीम्। अमतिम्। याम्। अशिश्रेत्। आ। सुऽस्तुती। रोदसी इति। विश्वमिन्वे इति विश्वम्ऽइन्वे। अपिऽइव। योषा। जनिमानि। वव्रे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
योऽस्य सवितुः सकाशाद्दीप्तिमिव यां हिरण्ययीममतिं योषापीव जनिमानि वव्रे सुष्टुती विश्वमिन्वे रोदसी न्वाशिश्रेत्तदिन्मे नकिर्माभूत् ॥८॥
पदार्थः
(तत्) (इत्) (नु) (अस्य) सूर्य्यस्येव (नकिः) निषेधे (मे) मम (हिरण्ययीम्) हिरण्यादिबहुधनयुक्ताम् (अमतिम्) सुरूपां लक्ष्मीम् (याम्) (अशिश्रेत्) आश्रयेत् (आ) (सुष्टुती) सुष्ठुप्रशंसया (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजाव्यवहारौ (विश्वमिन्वे) विश्वव्यापिके (अपीव) समुच्चिता इव (योषा) भार्या (जनिमानि) जन्मानि (वव्रे) वृणोति ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रादयो लोकाः सूर्य्यप्रकाशमाश्रित्य सुशोभिता दृश्यन्ते यथा स्त्री हृद्यं स्वप्रियं शुभलक्षणान्वितं पतिं प्राप्य सन्तानान् जनयित्वाऽऽनन्दति तथैव पृथिवीराज्यं प्राप्य नष्टदुःखाः सन्तो राजानः सततमानन्देयुः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो (अस्य) इस (सवितुः) सूर्य्य की प्रगटता से उत्पन्न हुए प्रकाश के सदृश (याम्) जिस (हिरण्ययीम्) सुवर्ण आदि बहुत रत्नों से युक्त (अमतिम्) उत्तम शोभायुक्त लक्ष्मी को (योषा) स्त्री (अपीव) इकट्ठा की गई सी (जनिमानि) जन्मों को (वव्रे) स्वीकार करती और (सुष्टुती) उत्तम प्रशंसा से (विश्वमिन्वे) सर्वत्र व्यापक (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी के सदृश राजा और प्रजा के व्यवहारों का (नु) निश्चय (आ, अशिश्रेत्) आश्रय करै (तत्) वह (इत्) ही (मे) मेरे (नकिः) नहीं हुई ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे चन्द्र आदि लोक सूर्य के प्रकाश का आश्रय करके उत्तम शोभित देख पड़ते हैं और जैसे स्त्री स्नेहपात्र अपने प्रिय और उत्तम लक्षणों से युक्त पति को प्राप्त होकर सन्तानों को उत्पन्न करके आनन्द करती है, वैसे ही पृथिवी के राज्य को प्राप्त होकर दुःखों से रहित हुए राजजन निरन्तर आनन्द करैं ॥८॥
विषय
उत्तम मस्तिष्क व शरीर
पदार्थ
[१] (इत् नु) = निश्चय से अब (अस्य) = इस (सवितुः) = सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक (मे) = मेरी (हिरण्ययीम्) = अत्यन्त ज्योतिर्मयी (अमतिम्) = दीप्ति को (नकि:) = कोई भी परिच्छिन्न नहीं कर पाता। (तत्) = अतः यह दीप्ति वह है, (याम्) = जिसको (अशिक्षेत्) = यदि एक उपासक सेवित करता है, तो वह (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (आवव्रे) = सर्वथा वृत करनेवाला होता है, (इव) = जैसे (योषा) = एक स्त्री (जनियानि) = उत्पन्न सन्तान का अपि [वव्रे]-वरण करती है। द्यावापृथिवी को वह वृत करनेवाला होता है, इस वाक्य का भाव यही है कि यह प्रभु की ज्योति का सेवन करनेवाला अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को तथा शरीररूप पृथिवीलोक को बड़ा सुन्दर बनाने का प्रयत्न करता है । [२] उसके ये मस्तिष्क व शरीर (सुष्टुती) = [शोभना स्तुतिर्ययोः] उत्तम स्तुति के योग्य होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान के सूर्य से उज्ज्वल होता है, तो शरीर पृथिवी की तरह दृढ़ होता है। सभी इसके मस्तिष्क व शरीर की प्रशंसा करते हैं। उसके मस्तिष्क व शरीर (विश्वमिन्वे) = सब को संतृप्त करनेवाले होते हैं। इसका मस्तिष्क व शरीर सभी के हितसाधन में प्रवृत्त होता है। यह ज्ञान व शक्ति से औरों का कल्याण ही कल्याण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की दीप्ति को कोई भी परिच्छिन्न नहीं कर सकता। जो भी इसका धारण करता वह स्तुत्य-मस्तिष्क व शरीरवाला होता है।
विषय
राजा प्रजा का परस्परवरण। परमेश्वर सर्व तेजोमय।
भावार्थ
(याम्) जिस (हिरण्ययीम्) सुवर्णादि धनैश्वर्ययुक्त (अमतिं) कान्ति को समस्त लोक (अशिश्रेत्) सेवन करता है (तत् इत् नु) वह सब निश्चय (मे सवितुः) मुझ सूर्य के समान तेजस्वी, सबके उत्पादक, शासकस्वरूप (मे) मेरी हो। उसका (नकिः) कोई और प्राप्त न कर सके। और जिस प्रकार (योषा जनिमानि वव्रे) स्त्री उत्पन्न सन्तानों को स्वीकार करती और वस्त्रादि से ढांपती है मैं (सुस्तुती) सूर्य समान तेजस्वी पुरुष (सुस्तुती) उत्तम स्तुति या उपदेश से (विश्वमिन्वे) समस्त विश्व को अन्नादि से संतुष्ट, प्रसन्न एवं तृप्त करने वाले (रोदसी) सूर्य भूमि के समान स्त्री और पुरुषों को (आ वव्रे) आवरण: करूं। शिष्य प्रजा पुत्रादि रूप से वरण करूं। परमेश्वर पक्ष में—जिस, तेजोमयी कान्ति या दीप्ति को मनुष्य सेवते हैं वह (नकिः मे) मेरी नहीं प्रत्युत (तत् इत् नु अस्य सवितुः) वह सब उसी प्रभु, सर्वोत्पादक परमेश्वर की है। वह प्रभु परमेश्वर पुत्र पुत्री आदि सन्तानों को माता के समान विश्वव्यापी सूर्य पृथ्वी दोनों के (इव अपि वव्रे) आवरण करता, अपने अंचरे में ढके सा रहता है, उनको प्रशस्त रीति से पालता रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चंद्र इत्यादी गोल सूर्याच्या प्रकाशामुळे शोभून दिसतात व जशी स्त्री हृद्य व स्वप्रिय शुभलक्षणयुक्त पती प्राप्त करून संतानांना उत्पन्न करून आनंदी होते तसेच पृथ्वीचे राज्य प्राप्त करून दुःखांनीरहित होऊन राजजनांनी आनंद प्राप्त करावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
No one can deny nor destroy the light and beauty of the golden gifts of this lord Savita, creator of this beautiful world, or of my recreation of it in word or material or institutional form. Whoever takes to it for support or sustenance wins the showers of universal joy from all pervading heaven and earth just as a young mother receives the pleasure and bliss of the birth of her baby.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of rulers is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra, the ruler prays that let not the luster like that of the Sun leave me. It takes shelter in the beautiful Lakshmi (wealth) full of gold and other metals. As a virtuous wife brings up her noble progeny, the same way, that luster sparks in the dealings between the king and his people, living between the heaven and earth, i.e. everywhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile in the mantra. As the moon and other planets look beautiful with the light of the sun, as a wife having an agreeable good and virtuous husband delights by giving birth to some children, in the same manner, the king should enjoy the people's bliss (faithfulness) constantly by getting elected to the rulership of the land and by driving away all miseries.
Foot Notes
(अमतिम् ) सुरूपां लक्ष्मीम् । अमतिरिति रूपनाम (NG 3,7) = Charming wealth. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजाव्यवहारो रोदसीति द्यावापृथिवीनाम (NG 3,30) = The dealings between the king and his people which are like the heaven and earth. (योषा ) भार्यां । = Wife. (अपीव) समुच्चिता इव। = Virtuous, endowed with various virtues.
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