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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नकि॑रेषां निन्दि॒ता मर्त्ये॑षु॒ ये अ॒स्माकं॑ पि॒तरो॒ गोषु॑ यो॒धाः। इन्द्र॑ एषां दृंहि॒ता माहि॑नावा॒नुद्गो॒त्राणि॑ ससृजे दं॒सना॑वान्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकिः॑ । ए॒षा॒म् । नि॒न्दि॒ता । मर्त्ये॑षु । ये । अ॒स्माक॑म् । पि॒तरः॑ । गोषु॑ । यो॒धाः । इन्द्रः॑ । ए॒षा॒म् । दृं॒हि॒ता । माहि॑नऽवान् । उत् । गो॒त्राणि॑ । स॒सृ॒जे॒ । दं॒सना॑ऽवान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः। इन्द्र एषां दृंहिता माहिनावानुद्गोत्राणि ससृजे दंसनावान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकिः। एषाम्। निन्दिता। मर्त्येषु। ये। अस्माकम्। पितरः। गोषु। योधाः। इन्द्रः। एषाम्। दृंहिता। माहिनऽवान्। उत्। गोत्राणि। ससृजे। दंसनाऽवान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या य इन्द्रो येऽस्माकं गोषु मर्त्येषु च योधाः पितरः सन्त्येषां दृंहिता माहिनावान् दंसनावान् गोत्राण्युत्ससृजे तं भजत यत एषां निन्दिता नकिर्भवेत् ॥४॥

    पदार्थः

    (नकिः) (एषाम्) (निन्दिता) गुणेषु दोषारोपको दोषेषु गुणारोपकश्च (मर्त्येषु) मनुष्येषु (ये) (अस्माकम्) (पितरः) पालकाः (गोषु) पृथिवीषु (बोधाः) योद्धारः (इन्द्रः) सूर्य इव वर्त्तमानः (एषाम्) (दृंहिता) वर्द्धकः (माहिनावान्) प्रशस्तानि माहिनानि पूजनानि विद्यन्ते यस्य (उत्) (गोत्राणि) वंशान् (ससृजे) (दंसनावान्) प्रशस्तकर्मयुक्तः ॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैस्तथा प्रयतितव्यं यथा मनुष्येषु निन्दितारो न स्युः प्रशंसका भवेयुर्यथा सूर्य्यः सर्वं जगत् पाति तथा रक्षकाः पितरः संसेवनीयाः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान (ये) वा जो (अस्माकम्) हम लोगों के (गोषु) पृथिवियों और (मर्त्येषु) मनुष्यों में (योधाः) योद्धा लोग और (पितरः) पालन करनेवाले हैं (एषाम्) इन लोगों का (दृंहिता) बढ़ानेवाला (माहिनावान्) प्रशंसित पूजन हैं जिसके वह और (दंशनावान्) जो उत्तम कर्मों से युक्त है वह (गोत्राणि) वंशों को (उत्, ससृजे) उत्पन्न करता है उसकी सेवा करो। जिससे (एषाम्) इन लोगों का (निन्दिता) गुणों में दोषों का आरोपक और दोषों में गुणों का आरोपक (नकिः) नहीं होवे ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे निन्दित न हों और आप दूसरों की स्तुति करनेवाले हों और जैसे सूर्य्य संपूर्ण जगत् का पालन करता है, वैसे रक्षा करनेवाले पितरों की सेवा करनी चाहिये ॥४॥

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    विषय

    जितेन्द्रियता व प्रशस्त जीवन

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (अस्माकम्) = हमारे में से कुछ व्यक्ति (गोषु योधाः) = इन्द्रियों के विषय में युद्ध करनेवाले होते हैं, अर्थात् इन्द्रियों को विषयों में आसक्त होने से बचाते हैं, वे (पितरः) = पिता-रक्षक कहलाते हैं। ये विषयों के आक्रमण से अपना रक्षण करते हैं। (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (एषाम्) = इनका (निन्दिता नकिः) = निन्दा करनेवाला कोई नहीं होता। सब इनके जीवन की प्रशंसा ही करते हैं । [२] (माहिनावान्) = अनन्त महिमावाला (इन्द्रः) = वह प्रभु (एषाम्) = इनका (दृंहिता) = दृढ़ करनेवाला है। प्रभु इनके जीवन को दृढ़ बनाते हैं। (दंसनावान्) = उत्तम कर्मोंवाले वे प्रभु (गोत्राणि) = इन पितरों के इन्द्रिय समूहों को (उत् ससृजे) = विषयों में फँसने से बचाते हैं। प्रभु का स्मरण व पूजन इन्हें वह शक्ति देता है, जिससे कि ये विषयवासनाओं को पराभूत करनेवाले होते हैं और अपनी इन्द्रियों को विषयासक्ति से मुक्त रखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियों को विषयों में न फँसने देनेवाला व्यक्ति सदा प्रशस्त जीवनवाला होता है।

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    विषय

    विद्वान् वीर योद्धा पालक पितरों का वर्णन।

    भावार्थ

    (अस्माकं) हमारे बीच में से (ये पितरः) जो पालक, रक्षक, माता पिता के समान पूज्य पुरुष (गोषु) भूमियों को प्राप्त करने के लिये (योधाः) युद्ध करने हारे हैं (एषां) उनकी (निन्दिता) निन्दा करने वाला (नकिः) कोई न हो। (एषां) इनका (दृंहिता) दृढ़ करने वाला, उनकी वृद्धि करने वाला, शत्रुहन्ता वीर राजा ही (माहिनावान्) बड़े भारी बल सामर्थ्य का स्वामी हो और वह (दंसनावान्) उत्तम कर्म करने हारा, कुशल पुरुष ही उनके (गोत्राणि) वंशों का (उत् ससृजे) उन्नत करे। आचार्य पक्ष में—हमारे बालक पूज्यों में जो (गोषु योधाः) वेदादि वाणियों में श्रमशील हैं उनका कोई निन्दक न हो। उनका बढ़ाने वाला पूज्य, सत्यकर्मी आचार्य ही उनके गोत्रों को बनाने वाला होता है। इसी आधार पर प्राचीन ऋषियों के गोत्र चले हैं। (३) इसी प्रकार जो (पितरः) व्रतपालक (गोषु योधाः) इन्द्रियग्राह्य विषयों में इन्द्रियों के विजयार्थ युद्ध करते हैं आन्तरिक काम क्रोधादि शत्रुओं से लड़ते हैं उनका निन्दक कोई न हो। परमेश्वर उनको बढ़ाता और उनको (गोत्राणि) इन्द्रियों के रक्षा साधनों को उत्तम दृढ़ करता है। इन्द्रियों का विजय करने से उनका बल वीर्य बढ़ता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी असा प्रयत्न करावा की ज्यामुळे ते निंदित होता कामा नये व दुसऱ्यांचे प्रशंसक बनावेत. सूर्य जसा जगाचे पालन करणारा असतो तसे रक्षण करणाऱ्या पितरांची सेवा करावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    None among living humanity is reviler and maligner of those who are our ancestors, parents and teachers, who are veterans, warriors, in the battles of speech, knowledge and wisdom. Indra, lord of majesty, power and generosity, hero of divine actions, strengthens them with firmness of will and action and creates fortifi cations for their traditions, institutions and familial lines.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subjects of attributes and duties of intelligent persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should serve that Indra (God and/or a great leader shining on account of his virtues like the sun)! you are the source of the strength and progress of our protectors on earth and among men. Indeed, they are great warriors, because they are adorable and doers of admirable deeds. It is he that creates the men belonging to many families. Worship and serve that Indra, so that there may be revilers of our brave guards.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should endeavor to be so good as to deserve the praise of all and there may not be anyone to censure them Like the sun protects the whole world, so our protectors should also be served by all.

    Foot Notes

    (दुहिता) वर्द्धक: । (दुहिता) दृहि -वृद्धौ (भ्वा० ) = Augmenter, source of advancement. (माहिनावान् ) प्रशस्तानि माहिना नि पूजनानि विद्यन्ते यस्य । (माहिनावान् ) मह-पूजायाम् (चुरा० ) = Adorable. (इन्द्रः) सूर्य इव वर्त्तमानः । इन्द्र इति ह्य तमाचक्षते य एष (सूर्य:) तपति ( Stph 4, 6, 7, 11 ) = A great leader shining on account of his virtues, like the sun.

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