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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॒ मधु॒ संभृ॑तमु॒स्रिया॑यां प॒द्वद्वि॑वेद श॒फव॒न्नमे॒ गोः। गुहा॑ हि॒तं गुह्यं॑ गू॒ळ्हम॒प्सु हस्ते॑ दधे॒ दक्षि॑णे॒ दक्षि॑णावान्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । मधु॑ । सम्ऽभृ॑तम् । उ॒स्रिया॑याम् । प॒त्ऽवत् । वि॒वे॒द॒ । श॒फऽव॑त् । नमे॑ । गोः । गुहा॑ । हि॒तम् । गुह्य॑म् । गू॒ळ्हम् । अ॒प्ऽसु । हस्ते॑ । द॒धे॒ । दक्षि॑णे । दक्षि॑णऽवान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मधु संभृतमुस्रियायां पद्वद्विवेद शफवन्नमे गोः। गुहा हितं गुह्यं गूळ्हमप्सु हस्ते दधे दक्षिणे दक्षिणावान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। मधु। सम्ऽभृतम्। उस्रियायाम्। पत्ऽवत्। विवेद। शफऽवत्। नमे। गोः। गुहा। हितम्। गुह्यम्। गूळ्हम्। अप्ऽसु। हस्ते। दधे। दक्षिणे। दक्षिणऽवान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    य इन्द्रो उस्रियायां पद्वच्छफवन्न मधु सम्भृतं नमे विवेद गोर्गुहा हितमप्सु गुह्यं गूढं दक्षिणावानिव दक्षिणे हस्ते दधे तं सर्वे जानन्तु ॥६॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) विद्युदिव नरः (मधु) मधुरादिकं रसम् (सम्भृतम्) सम्यग्धृतम् (उस्रियायाम्) भूमौ (पद्वत्) पद्भ्यां तुल्यम् (विवेद) (शफवत्) शफा विद्यन्ते यस्मिन् पदे तत् (नमे) नमेत् (गोः) वाचः (गुहा) गुहायां बुद्धौ (हितम्) स्थितम् (गुह्यम्) गुप्तम् (गूढम्) (अप्सु) प्राणेषु जलेषु वा (हस्ते) (दधे) दध्यात् (दक्षिणावान्) दक्षिणा विद्यते यस्य स इव ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्याः पद्भ्यां पशवः शफैर्गमनं कृत्वा देशान्तरं साक्षात्कुर्वन्ति तथैव बाह्याभ्यन्तरस्थां विद्युतं विद्वानेव हस्तगतदक्षिणावद्विदित्वाऽऽभ्यन्तरं स्वात्मानं परमात्मानं च बाह्यं सूर्यादिकं विजानात्येतत्सहायेन धर्मार्थकाममोक्षान् सर्वे साध्नुवन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    जो (इन्द्रः) बिजुली के समान मनुष्य (उस्रियायाम्) भूमि में (पद्वत्) पैरों के और (शफवत्) खुरों के सदृश (मधु) मधुर आदि रस (सम्भृतम्) जो कि उत्तम धारण किया गया उसे (नमे) नमें स्वीकार करे (विवेद) जाने (गोः) वाणी और (गुहा) बुद्धि में (हितम्) स्थित (अप्सु) प्राणों वा जलों में (गुह्यम्) गुप्त और (गूढ़म्) ढपे हुए व्यवहार को (दक्षिणावान् दक्षिणा को धारण किये हुए के समान (दक्षिणे) दाहिने (हस्ते) हाथ में (दधे) धारण करे उसको सब लोग जानो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य पैरों और पशुखुरों में गमन करके दूसरे स्थान को प्रत्यक्ष करते हैं, वैसे ही बाहर भीतर वर्त्तमान बिजुली को विद्वान् पुरुष हस्तप्राप्त दक्षिणा के सदृश जानकर और हृदय में वर्त्तमान अपने आत्मा और परमात्मा तथा बाह्य सूर्य आदि को जानता है, इसके सहाय से धर्म अर्थ काम और मोक्षों को सब सिद्ध करें ॥६॥

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    विषय

    गोदुग्ध के प्रयोग का महत्व

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (उस्त्रियायाम्) = गौ में (संभृतम्) = सम्यक् धारण किये गये (मधु) = ओषधियों के सारभूत दूध को (विवेद) = प्राप्त करता है। इस मधु तुल्य दुग्ध को प्राप्त करने के लिए (गो: नमे) = गौ के प्रह्वीभूत होने पर प्राप्त होने पर (पद्वत्) = पाँववाले और (शफवत्) = खुरोंवाले गोरूप धन को (विवेद) = प्राप्त करता है । [२] गोरूप धन से प्राप्त गोदुग्ध के सेवन से सात्त्विक वृत्तिवाला बनकर यह (दक्षिणावान्) = अत्यन्त दान की वृत्तिवाला बनकर (गुहाहितम्) = हृदयरूप गुहा में स्थापित (गुह्यम्) = रहस्यमय (अप्सु) = सब प्रजाओं में (गूढम्) = छिपे हुए इस प्रभु के ज्ञान को (हस्ते दधे) = हाथ में धारण करता है। उसे यह ज्ञान हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्कृष्ट जीवन के लिए आवश्यक है कि हम [क] गोधन को अपनाएँ, [ख] गोदुग्ध का सेवन करें, [ग] सात्त्विक वृत्तिवाले बनकर दानशील हों, [घ] रहस्यमय आत्मज्ञान को प्राप्त करें ।

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    विषय

    राजा की पशु-सम्पत् प्राप्ति।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता पुरुष (उस्त्रियायाम्) दूध दही आदि उत्पन्न करने वाली गौ के समान ही अन्नादि उत्पन्न करने वाली भूमि में ही (सम्भृतम्) अच्छी प्रकार धारण किये हुए (मधु) मधुर अन्नादि खाद्य सामग्री को और (पद्वत् शफवत्) पैरों और खुरों वाले पशु धन को भी (विवेद) प्राप्त करे। और वह (गोः) भूमि के (गुहाहितम्) गुप्त स्थानों में रक्खे (गुह्यं) गोपन करने योग्य (गूढ़) गुप्त धन को (अप्सु) आप्त जनों में (नमे) प्रदान करें। और उसको (दक्षिणावान्) कुशल बुद्धिमान् पुरुषों का स्वामी (दक्षिणे हस्ते) दांये बलशाली हाथ, अर्थात् प्रबल पुरुष के अधीन (दधे) सुरक्षित रक्खे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी माणसे पायांनी व पशू खुरांनी गमन करतात व दुसऱ्या स्थानी जातात तसे सर्वत्र असलेल्या विद्युतला विद्वान पुरुष प्राप्त झालेल्या दक्षिणेप्रमाणे जाणून हृदयातील आत्मा, परमात्मा व सूर्य इत्यादींना जाणतो. याच्या साहाय्याने सर्वांनी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, the soul in pursuit of knowledge and meditation, discovers the honey sweets of the mystery of existence revealed in the light of divinity in the cave of the heart and in the Voice Divine voluble in the folds of memory. It discovers the secrets of motion and velocity and of production and generosity in the Word and in the Light.$Let man bow in reverence, be humble and generous, and hold the secret, deeper than the deepest within, on the palm of the right hand. (No pride, no arrogance!)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The virtues and duties of the enlightened persons further highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A man active like electricity, knows and accepts on earth all sort of materials-sweet or other tastes-like the men who undertake long walks on feet or ride on animals with their hoofs, in fact, they know the nature and characterics of the land. As a man receives dakshina (sacrificial gift) it in his hand, in the same manner, the enlightened persons, should clearly visualize what is the hidden meaning of a particular word, or what mystery is there in the Pranas or waters. It is beneficial and therefore, all should know these things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men by walking on their feet and riding on animals with their hoofs very well know the nature of the distant lands, in the same manner, it is the enlightened person who knows well the nature of electricity within and outside, like a man who receives a sacrificial gift knows its significance. Moreover, he knows the true nature of his own soul and God—the Universal Soul. Let all try to accomplish Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation) with the help of this knowledge.

    Foot Notes

    (उस्रियायाम् ) भूमौ । उस्रिया इति गोनाम गौरिति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = On earth. (अप्सु) प्राणेषु जलेषु वा । आपौ वा प्राणा: (Stph.3,8.2,4) जैमिनियोपनिषद ब्राह्मणे: 3,10,9 TTRY 1,2,6,1) = In the Pranas (Vital airs or waters). (इन्द्र:) विद्युदिव नरः = A man who is active like electricity.

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