Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 39 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज्योति॑र्वृणीत॒ तम॑सो विजा॒नन्ना॒रे स्या॑म दुरि॒ताद॒भीके॑। इ॒मा गिरः॑ सोमपाः सोमवृद्ध जु॒षस्वे॑न्द्र पुरु॒तम॑स्य का॒रोः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्योतिः॑ । वृ॒णी॒त॒ । तम॑सः । वि॒ऽजा॒नन् । आ॒रे । स्य॒म॒ । दुः॒ऽइ॒तात् । अ॒भीके॑ । इ॒माः । गिरः॑ । सो॒म॒ऽपाः॒ । सो॒म॒ऽवृ॒द्ध॒ । जु॒षस्व॑ । इ॒न्द्र॒ । पु॒रु॒ऽतम॑स्य । का॒रोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्योतिर्वृणीत तमसो विजानन्नारे स्याम दुरितादभीके। इमा गिरः सोमपाः सोमवृद्ध जुषस्वेन्द्र पुरुतमस्य कारोः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्योतिः। वृणीत। तमसः। विऽजानन्। आरे। स्याम। दुःऽइतात्। अभीके। इमाः। गिरः। सोमऽपाः। सोमऽवृद्ध। जुषस्व। इन्द्र। पुरुऽतमस्य। कारोः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सोमवृद्धेन्द्र सोमपा त्वं पुरुतमस्य कारो इमाः गिर जुषस्व यथा विजानञ्ज्योतिरस्माकमारेऽभीके दुरितात्पृथग् भूत्वा तमसो ज्योतिर्वृणीत तथैतस्यैताः सेवित्वा वयं विद्वांसः स्याम ॥७॥

    पदार्थः

    (ज्योतिः) प्रकाशमिव विद्याम् (वृणीत) स्वीकुर्य्यात् (तमसः) अन्धकारादविद्याया इव (विजानन्) विशेषेण विदन् (आरे) दूरे (स्याम) (दुरितात्) दुष्टाचाराच्छ्रेष्ठाचारात् (अभीके) समीपे (इमाः) (गिरः) वाचः (सोमपाः) सोममैश्वर्यं पाति। अत्र कर्त्तरि क्विप्। (सोमवृद्ध) सोमेन विद्यैश्वर्येण वृद्धस्तत्सम्बुद्धौ (जुषस्व) सेवस्व (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (पुरुतमस्य) अतिशयेन बहुविद्यायुक्तस्य (कारोः) कारकरस्य शिल्पिनः ॥७॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यथा वयं पापाचरणात् पृथग् भूत्वा धर्माचरणमविद्यायाः पृथग् भूत्वा विद्यां वरित्वाऽऽत्मबोधं शिल्पक्रियाकौशलं च जुषामहे तथैव यूयमपि भवत, सर्वे वयं दूरे समीपे च स्थिता अपि मैत्रीं न जह्याम ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (सोमवृद्ध) विद्यारूप ऐश्वर्य्य से वृद्ध और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा करनेवाले ! आप (पुरुतमस्य) अत्यन्त बहुत विद्या से युक्त (कारोः) शिल्पीजन की जो (इमाः) उन (गिरः) वाणियों का (जुषस्व) सेवन करो और जैसे (विजानन्) विशेष प्रकार से जानते हुए आप हम लोगों से (आरे) दूरस्थल और (अभीके) समीप स्थल में (दुरितात्) दुष्ट आचरण से पृथक् होकर श्रेष्ठ आचरण और (तमसः) अविद्या से पृथक् होकर विद्या और (ज्योतिः) प्रकाश के समान विद्या को (वृणीत) स्वीकार करैं, वैसे इन आपकी उन वाणियों का सेवन करके हम लोग विद्वान् होवें ॥७॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग पाप के आचरण से पृथक् होकर धर्म के आचरण और अविद्या से पृथक् होकर विद्या का ग्रहण करके आत्मसम्बन्धी ज्ञान और शिल्प क्रिया कौशल का सेवन करते हैं, वैसे ही आप लोग भी सेवन करनेवाले हूजिये और हम सब लोग दूर और समीप में वर्त्तमान हुए भी मित्रता का त्याग नहीं करें ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अज्ञानान्धकार व पाप 'का विनाश'

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार गोदुग्ध का सेवन करनेवाला (विजानन्) = समझदार पुरुष (तमसः) = अन्धकार को छोड़कर (ज्योतिः वृणीत) = प्रकाश का वरण करे। इसकी प्रार्थना यही हो कि 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' । इस ज्ञान को प्राप्त करके हम (दुरितात् आरे) = पाप से दूर (अभीके) = भयरहित स्थान में (स्याम) = हों। ज्ञान से हमारे में निष्पापता हो, निष्पापता से हम निर्भयता प्राप्त करें। [२] हे (सोमपाः) = सोम का वीर्य का रक्षण करनेवाले (सोमवृद्ध) = रक्षित सोम से बढ़ी हुई शक्तियोंवाले (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक जीव! तू (पुरुतमस्य) = [पुरून् तमयति] कितने ही शत्रुओं के विनष्ट करनेवाले, (कारोः) = कुशलता से सब कार्यों को करनेवाले उस प्रभु की (इमाः गिरः) = इन ज्ञान की वाणियों का (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कर। ये ज्ञानवाणियाँ ही वस्तुतः उसे ज्ञानवृद्धि द्वारा दुरित से ऊपर उठाएँगी ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु से दी गई ज्ञान की वाणियों का सेवन करें। इन से हमारा अज्ञानान्धकार दूर होगा और हम पाप में न फँसकर निर्भय जीवन बिता सकेंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    असत्य से सत्य के और अन्धकार से प्रकाश के विवेक का उपदेश।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य उत्पन्न होकर (तमसः ज्योतिः वृणीते) अन्धकार से प्रकाश को पृथक कर देता है उसी प्रकार (विजानन्) विशेष ज्ञानवान् पुरुष सदा (तमसः) अन्धकार से (ज्योतिः) प्रकाश को, अविद्या से विद्या को (वृणीत) सदा पृथक् २ करे, विवेक करता रहे। हम लोग (दुरिताद् आरे) दुष्टाचरण से पृथक् और (अभीके) भय रहित सत्याचरण में (स्याम) लगे रहें। हे (सोमपाः) ज्ञान और ऐश्वर्य को पान और पालन करनेहारे हे (सोमवृद्ध) ज्ञान और ऐश्वर्य के द्वारा बढ़े हुए, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध और धनाध्यक्ष ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ज्ञानदर्शिन् ! तू (पुरुतमस्य) बहुतों में श्रेष्ठ, बहुत से शत्रुओं और विघ्नों के नाशक (कारोः) क्रियाकुशल, विद्वान् पुरुष की (इमाः गिरः) इन उपदेश-वाणियों को (जुषस्व) प्रेम से ग्रहण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे आम्ही पापाच्या आचरणापासून दूर होऊन धर्माचे आचरण करतो व अविद्येपासून पृथक होऊन विद्येचे ग्रहण करून आत्म्यासंबंधीचे ज्ञान प्राप्त करून शिल्प-क्रिया-कौशल्याचे सेवन करतो तसेच तुम्हीही व्हा. आपण सर्वांनी दूर व समीप असलेल्या मैत्रीचा त्याग करता कामा नये. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The man of knowledge discriminates and separates light from darkness. Let us be fearless, far from sin and evil. Indra, O man elevated by the light and inspiration of the spirit of divinity, O defender of truth and piety, listen and live by these words of the learned poet and artist.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O opulent Indra! you are advanced because of the wealth of wisdom and are protector of wealth. You accept the praises of a highly learned artist. The enlightened you accept light and separate it from darkness. May we also stay away from evil conduct by ever secure serving and following Indra.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! we keep ourselves away from all sinful and observe righteous conduct. Free from ignorance, we seek knowledge along with technology. So you should also do. Whether we remain near or far, we may never give up your friendship.

    Foot Notes

    (अभीके) समीपे। = Near. (भीमपा:) सोमम् ऐश्वर्य पातीति । = The protector or guardian of wealth. (आरे) दूरे । आरे इति दूरनाम (NG 3, 26) = Far.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top