ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सखा॑ ह॒ यत्र॒ सखि॑भि॒र्नव॑ग्वैरभि॒ज्ञ्वा सत्व॑भि॒र्गा अ॑नु॒ग्मन्। स॒त्यं तदिन्द्रो॑ द॒शभि॒र्दश॑ग्वैः॒ सूर्यं॑ विवेद॒ तम॑सि क्षि॒यन्त॑म्॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑ । ह॒ । यत्र॑ । सखि॑ऽभिः । नव॑ऽग्वैः । अ॒भि॒ऽज्ञु । आ । सत्व॑ऽभिः । गाः । अ॒नु॒ऽग्मन् । स॒त्यम् । तत् । इन्द्रः॑ । द॒शऽभिः॑ । दश॑ऽग्वैः । सूर्य॑म् । वि॒वे॒द॒ । तम॑सि । क्षि॒यन्त॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखा ह यत्र सखिभिर्नवग्वैरभिज्ञ्वा सत्वभिर्गा अनुग्मन्। सत्यं तदिन्द्रो दशभिर्दशग्वैः सूर्यं विवेद तमसि क्षियन्तम्॥
स्वर रहित पद पाठसखा। ह। यत्र। सखिऽभिः। नवऽग्वैः। अभिऽज्ञु। आ। सत्वऽभिः। गाः। अनुऽग्मन्। सत्यम्। तत्। इन्द्रः। दशऽभिः। दशऽग्वैः। सूर्यम्। विवेद। तमसि। क्षियन्तम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यत्र नवग्वैः सखिभिः सहाऽभिज्ञु सखा सत्त्वभिर्ह गा आनुग्मन् यत्सत्यं दशग्वैर्दशभिः सहेन्द्रो तमसि क्षियन्तं सूर्य्यं विवेद तद्विवेद तदनुकरणं सर्वे कुर्वन्तु ॥५॥
पदार्थः
(सखा) (ह) खलु (यत्र) (सखिभिः) (नवग्वैः) नवीनगतिभिः (अभिज्ञु) आभिमुख्ये जानुनी यस्य सः (आ) समन्तात् (सत्त्वभिः) पदार्थैः सह (गाः) सुशिक्षिता वाचो भूमिर्वा (अनुग्मन्) अनुकूलं गच्छन् (सत्यम्) सत्सु साधु (तत्) तम् (इन्द्रः) विद्युत् (दशभिः) दशविधैर्वायुभिः (दशग्वैः) दशविधा गतयो येषान्तैः (सूर्य्यम्) (विवेद) विन्दति (तमसि) अन्धकारे रात्रौ (क्षियन्तम्) निवसन्तम् ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सखिवद्वर्त्तमानेन वायुना विद्युदाख्योऽग्निरन्धकारे सूर्य्यपरिणामं प्राप्य सर्वान् प्रकाश्याऽऽनन्दति तथैव धार्मिकैर्मित्रैः सहितो सुहृद्विद्वान् शुद्धान्तःकरणतया विद्यया च प्रकटीभूत्वा सर्वेषामात्मनः प्रकाश्याऽऽनन्दति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्र) जिस स्थल में (नवग्वैः) नवीन गतियों और (सखिभिः) मित्रों के साथ (अभिज्ञु) सन्मुख जांघों से युक्त (सखा) मित्र (सत्त्वभिः) पदार्थों के साथ (ह) निश्चय (गाः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी वा भूमियों के (आ, अनुग्मन्) अनुकूल प्राप्त होता हुआ जो (सत्यम्) श्रेष्ठ व्यवहारों में उत्तम अर्थात् सच्चापन जैसे हो वैसे (दशग्वैः) दश प्रकार की गतियों से युक्त (दशभिः) दश प्रकार के पवनों के साथ (इन्द्रः) बिजुली (तमसि) रात्रि में (क्षियन्तम्) निवास करते अर्थात् अपना काम प्रकाश न करते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (विवेद) प्राप्त होती है (तत्) उस को जो जानता है उसका अनुकरण सब लोग करो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मित्र के तुल्य वर्त्तमान वायु से बिजुली नामक अग्नि अन्धकार में सूर्य के परिणाम को प्राप्त हो और सबको प्रकाशित कर आनन्द देती है, वैसे ही धार्मिक मित्रों के सहित मित्र विद्वान् शुद्धान्तःकरणता तथा विद्या से प्रकट होकर सबके आत्माओं का प्रकाश करके आनन्द देता है ॥५॥
विषय
ज्ञान-सूर्य का उदय
पदार्थ
[१] जीवन के नौवें दशक पर्यन्त जानेवाले अंगिरस् व्यक्ति 'नवग्व' कहलाते हैं। दसवें दशक तक पहुँचनेवाले ये 'दशग्व' नामवाले हैं । (यत्र) = जहाँ (नवग्वैः) = नव्वे वर्ष तक पहुँचनेवाले अभिज्ञु 'अभिगतजानुकं यथा स्यात्तथा' घुटने टेककर (सत्वभिः) = (सद्) प्रभु की उपासना में बैठनेवाले (सखिभिः) = मित्रों के साथ (सखा) = मित्रभाववाला व्यक्ति ह निश्चय से (गाः अनुग्मन्) = वेदवाणियों का अनुगमन करता हुआ सूर्यं विवेद ज्ञानसूर्य को प्राप्त करता है। [२] (सत्यं तत्) = वह बात सत्य है कि (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (दशग्वैः) = दसवें दशक तक चलनेवालीठीक कार्य करनेवाली, (दशभिः) = इन दस इन्द्रियों से (तमसि क्षियन्तम्) = अन्धकार में निवास करते हुए, अर्थात् (अस्त) = हुए हुए (सूर्यम्) = ज्ञान-सूर्य को (विवेद) = प्राप्त करता है। अजितेन्द्रिय पुरुष के जीवन में ज्ञान सूर्य अस्त हो जाता है । इन्द्रियों को जीतकर यह सूर्य का फिर उदय करनेवाला होता है। यह जितेन्द्रिय पुरुष वेदवाणियों का अनुगमन करता है और ज्ञान के सूर्य को अपने जीवन में उदित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय बनकर हम ज्ञान के सूर्य को अपने जीवन में उदित करें।
विषय
गुरुओं का शिष्यानुगमन और सूर्य-व्रतपालन।
भावार्थ
(यत्र) जिस आश्रम में (नवग्वैः) नवीन २ ज्ञान वाणी में गति करने वाले नवागत (सखिभिः) एक समान नाम वाले व्रतधारी ब्रह्मचारियों सहित (अभिज्ञु, सत्वभिः) आगे को गोड़े किये पालोथी लगाकर बैठने वाले वा (सत्वभिः) सत्कर्म, ज्ञान और बल वीर्यशाली व्रतधारी ब्रह्मचारियों से संगत होकर (इन्द्रः) अध्यात्म या प्रत्यक्ष तत्व को देखने वाला या विद्यार्थियों को, काष्ठों को अग्नि के समान प्रदीप्त करने वाला आचार्य (गाः अनु ग्मन्) ज्ञानवाणियों का अनुगमन या अभ्यास करता रहता है (तत्) उसी आश्रम में वह विद्वान् (दशभिः दशग्वैः) दशों इन्द्रिय सामर्थ्यों से युक्त दशों प्राणों से युक्त होकर (तमसि) अन्धकार में (क्षियन्तं) विद्यमान (सूर्यं) सूर्य के समान उज्ज्वल (सत्यं) सत्य ज्ञान और सत्य बल को (विवेद) प्राप्त करे। (२) सेनानायक दशों वाणियों, दशों धर्मशास्त्रों को जानने वाले दश विद्वानों के साथ मिलकर अज्ञान अन्धकार में सूर्य के समान चमचमाते अनृत असत्य अज्ञान का नाश करते हुए (सत्यं) सत्य न्यायप्रकाश को प्राप्त करे। राजा सत्य न्याय को प्राप्त करने के लिये ‘दशावरा परिषद्’ की स्थापना करे। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा मित्राप्रमाणे वायूपासून विद्युत नामक अग्नी अंधकारात सूर्याला प्राप्त होऊन सर्वांना प्रकाशित करून आनंद देतो. तसेच धार्मिक मित्रांसह विद्वान मित्र शुद्ध अंतःकरणाने व विद्येने सर्वांच्या आत्म्यांना प्रकाशित करून आनंद देतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Where, in the human body, when the soul is anxious to know the mystery of truth and light divine, does it find the holy cows of the Lord Supreme, words and meanings of ultimate reality, the light? Surely then, there in the body itself, with nine friendly faculties of freshest powers (five pranic energies and mind, intellect, memory and self-awareness), and with another team of ten friends (five pranic energies and five senses), following the path of truth in meditation, the soul discovers the sun, Light Divine, self-refulgent, existing in the depth of the self, otherwise covered under existential darkness of ignorance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of the capable persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as a humble friend (with bended knees) carries out the good advice and suggestions of those living friends, who are radicals. With the help of good things and like the electricity with ten kinds of winds, they have movements of ten kinds and generate the sun dwelling in darkness at night. You should also initiate it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The energy is tuned into the sun with the help of air which is like its friend, and by its light the sun gladdens all. In the same manner, a learned friend living in the company of noble, righteous friends manifests himself with purity of mind and wisdom and makes all happy by illuminating the souls of all.
Translator's Notes
The meaning of नवनीतगतय: may also means that friend's movement and conduct should be soft and mild like the butter. The exact nature of ten kinds of movements of the winds is yet a matter for research.
Foot Notes
(इन्द्रः ) विद्युत् । यदशनिदिन्द्रस्तेन (कोषी० 6,9) स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ( Stph 11, 6, 3, 9 ) = Electricity, lightning. (दशग्वै:) दशविधा गतयो येषान्तैः। = The winds which have movements of ten kinds. (नवग्वैः) नवीनगतिभिः । नवग्वाः - नवगतयो नवनीत गतयो वैति निरुक्त (NKT) = Friends of new and ever new movements, ever progressive.
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