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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - मित्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि यो म॑हि॒ना दिवं॑ मि॒त्रो ब॒भूव॑ स॒प्रथाः॑। अ॒भि श्रवो॑भिः पृथि॒वीम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । यः । म॒हि॒ना । दिव॑म् । मि॒त्रः । ब॒भूव॑ । स॒ऽप्रथाः॑ । अ॒भि । श्रवः॑ऽभिः । पृ॒थि॒वीम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि यो महिना दिवं मित्रो बभूव सप्रथाः। अभि श्रवोभिः पृथिवीम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। यः। महिना। दिवम्। मित्रः। बभूव। सऽप्रथाः। अभि। श्रवःऽभिः। पृथिवीम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मित्रत्वेनेश्वरस्य पदार्थरचनं तत्सेवनं चाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्सप्रथा मित्रो जगदीश्वरः स्वस्य महिना दिवं निर्मायाऽभिबभूव श्रवोभिः पृथिवीं रचयित्वाऽभिबभूव तं नित्यं सेवध्वम् ॥७॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (यः) (महिना) महिम्ना (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्य्यम् (मित्रः) सखेव वर्त्तमानः (बभूव) भवति (सप्रथाः) प्रथसा विस्तृतेन जगता सह वर्त्तमानः (अभि) (श्रवोभिः) अन्नादिभिस्सह (पृथिवीम्) भूमिम् ॥७॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यो महासामर्थ्येन सूर्य्यपृथिव्यादिकं सविस्तरं जगन्निर्मायान्तर्यामिरूपेण सर्वं विज्ञाय धृत्वा नियमयति स एवोपासितुं योग्यः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मित्रपन से ईश्वर के पदार्थरचन और ईश्वरसेवन को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (सप्रथाः) विस्तारयुक्त जगत् के साथ वर्त्तमान वा (मित्रः) मित्र के सदृश वर्त्तमान जगदीश्वर अपनी (महिना) महिमा से (दिवम्) प्रकाशमय सूर्य को रचके (अभि) सन्मुख (बभूव) होता वा (श्रवोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (पृथिवीम्) भूमि को रचके (अभि) सन्मुख होता है, उसकी नित्य सेवा करो ॥७॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो बड़े सामर्थ्य से सूर्य्य और पृथिवी आदि विस्तार सहित संसार को रच और अन्तर्य्यामिरूप से सबको जान और धारण करके नियम में लाता है, वही उपासना करने के योग्य है ॥७॥

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    विषय

    सूर्य की व्यापक महिमा

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (मित्रः) = सूर्य (सप्रथाः) = किरणों द्वारा अत्यन्त विस्तारवाला है, वह (दिवम्) = द्युलोक को (महिना) = अपनी महिमा से (अभिबभूव) = अभिभूत करनेवाला है। सूर्योदय होते ही सारा द्युलोक उसके प्रकाश से व्याप्त हो जाता है । [२] यह सूर्य (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को भी (श्रवोभिः) = [praiseworthy actions] वृष्टि द्वारा अन्नोत्पादनादि व प्राणशक्ति-संचाररूप प्रशंसनीय कार्यों से (अभि) = अभिव्याप्त कर लेता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य द्युलोक को अपने प्रकाश की महिमा से तथा पृथिवी को प्राणशक्ति संचार रूप प्रशंसनीय कर्म से अभिव्याप्त कर लेता है।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (मित्रः) अन्धकार के नाशक, सूर्य के समान (यः) जो सर्व सुहृत राजा, प्रभु (महिना) अपने महान् सामर्थ्य से (दिवम्) महान् आकाश के विस्तृत एवं विजय की कामना करने वाली सेना और नाना व्यवहारकारिणी प्रजा को (अभि बभूव) अपने वश करने में समर्थ होता है वह (सप्रथाः) प्रसिद्ध कीर्त्ति और विस्तृष्ट राष्ट्र के सहित रहता हुआ (श्रवोभिः) यशों और अन्नों से सम्पन्न (पृथिवीं) पृथिवी को भी (अभि-बभूव) वश करने वाला है। (२) परमेश्वर सर्व सखा है। वह महान् (दिवं) आकाश और सूर्य को महान् सामर्थ्य से बनाता, वश करता है। पृथिवी को अन्नों से पूर्ण करता है, वह विस्तृत जगत् के साथ विद्यमान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ मित्रा देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पंक्तिः। ६, ९ निचृद्वायत्री। ७, ८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो अत्यंत सामर्थ्ययुक्त असून सूर्य व पृथ्वी इत्यादी संसार निर्माण करून अंतर्यामीरूपाने सर्वांना जाणून व धारण करून नियमात ठेवतो, तोच उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra, lord of universal love, light and friendship, having created the heaven and earth along with their light, food and energy, manifests himself by the expansive universe, and transcends them both by his supreme omnipotence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    God, Friendly to all has created the Universe and He is to be worshipped.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! worship always that One God alone! Who is Omnipresent friend of all and Who by His might creates the resplendent sun and pervades it, Who creates this earth with food materials etc. and pervades it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! that One God alone is worthy of communion, Who by His great might creates this wonderful s. vast universe containing the sun, earth etc. Who knows all being s, is the Indwelling Universal Spirit, and upholds and controls it.

    Foot Notes

    (दिवम्) प्रकाशमयं सूयर्य्यम्। = Resplendent Sun. (सप्रथाः) प्रथसा विस्त्रितेन जगता सह वर्तमानः = Pervading the vast universe. (श्रवोभिः) अन्नादिभिस्सह्। = With food etc.

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