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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 9
    ऋषि: - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - मित्रः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मि॒त्रो दे॒वेष्वा॒युषु॒ जना॑य वृ॒क्तब॑र्हिषे। इष॑ इ॒ष्टव्र॑ता अकः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रः । दे॒वेषु॑ । आ॒युषु॑ । जना॑य । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे । इषः॑ । इ॒ष्टऽव्र॑ताः । अ॒क॒रित्य॑कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रो देवेष्वायुषु जनाय वृक्तबर्हिषे। इष इष्टव्रता अकः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रः। देवेषु। आयुषु। जनाय। वृक्तऽबर्हिषे। इषः। इष्टऽव्रताः। अकरित्यकः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मित्रत्वेनेश्वरोपासनविषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो मित्र ईश्वरो वृक्तबर्हिषे जनाय देवेष्वायुष्विष्टव्रता इषोऽकस्तं सर्वे भजध्वम् ॥९॥

    पदार्थः

    (मित्रः) सखा (देवेषु) दिव्येषु (आयुषु) जीवनेषु (जनाय) मनुष्याद्याय (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं बर्हिरुदकं येन तस्मै (इषः) इच्छाः (इष्टव्रताः) इष्टकर्माणः (अकः) करोति ॥९॥

    भावार्थः

    यः परमात्माऽन्यायवर्जितान् भक्तान्मनुष्यान्त्सिद्धेच्छान् करोति स एव सर्वैर्ध्यातव्य इति ॥९॥ अत्र मित्रादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनषष्टितमं सूक्तं षष्ठो वर्ग्गश्च समाप्तः ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब मित्रत्व से ईश्वरोपासना विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (मित्रः) ईश्वर (वृक्तबर्हिषे) छोड़ा है जल जिसने उस (जनाय) मनुष्य आदि के लिये (देवेषु) उत्तम (आयुषु) जीवनों में (इष्टव्रताः) चाहे हुये काम जिनसे होते उनकी (इषः) इच्छाओं को (अकः) पूर्ण करता है, उसकी सब लोग सेवा करो ॥९॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा अन्याय से रहित भक्त मनुष्यों को सिद्ध इच्छावाले करता है, वही सब लोगों को ध्यान करने योग्य है ॥९॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्मा अन्यायरहित भक्त माणसांची इच्छा पूर्ती होईल अशी व्यवस्था करतो, त्याचेच सर्वांनी ध्यान करावे. ॥ ९ ॥

    English (1)

    Meaning

    Among the brilliant and generous people and among the average people too, Mitra, radiant lord of universal love and friendship, creates and provides for fulfilment of the desires of the man of renunciation dedicated to yajnic offerings, in response to his observance of the chosen vows of holy discipline.

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