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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    क॒विं श॑शासुः क॒वयोऽद॑ब्धा निधा॒रय॑न्तो॒ दुर्या॑स्वा॒योः। अत॒स्त्वं दृश्याँ॑ अग्न ए॒तान्प॒ड्भिः प॑श्ये॒रद्भु॑ताँ अ॒र्य एवैः॑ ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒विम् । श॒शा॒सुः॒ । क॒वयः॑ । अद॑ब्धाः । नि॒ऽधा॒रय॑न्तः । दुर्या॑सु । आ॒योः । अतः॑ । त्वम् । दृश्या॑न् । अ॒ग्ने॒ । ए॒तान् । प॒ट्ऽभिः । प॒श्येः॒ । अद्भु॑तान् । अ॒र्यः । एवैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कविं शशासुः कवयोऽदब्धा निधारयन्तो दुर्यास्वायोः। अतस्त्वं दृश्याँ अग्न एतान्पड्भिः पश्येरद्भुताँ अर्य एवैः ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कविम्। शशासुः। कवयः। अदब्धाः। निऽधारयन्तः। दुर्यासु। आयोः। अतः। त्वम्। दृश्यान्। अग्ने। एतान्। पट्ऽभिः। पश्येः। अद्भुतान्। अर्यः। एवैः॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथा अदब्धाः कवयः कविं दुर्यास्वदब्धा निधारयन्तः शशासुरायोर्वर्धनं शशासुरतस्त्वमेवैः पड्भिरेतानद्भुतान् दृश्यान् कवीनर्य इव पश्येः ॥१२॥

    पदार्थः

    (कविम्) कान्तप्रज्ञं मेधाविनम् (शशासुः) शासति (कवयः) प्राज्ञा विपश्चितः (अदब्धाः) अहिंसनीयाः (निधारयन्तः) (दुर्यासु) गृहेषु (आयोः) जीवनस्य (अतः) (त्वम्) (दृश्यान्) द्रष्टव्यान् (अग्ने) अग्निरिव प्रकाशमानविद्य (एतान्) प्रत्यक्षान् (पड्भिः) विज्ञानादिभिः (पश्येः) (अद्भुतान्) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावान् (अर्यः) (एवैः) प्राप्तैः ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! येऽध्यापकोपदेशका बुद्धिमतोऽध्यापयन्त्युपदिशन्ति तान्त्सदैव सत्कुरु यतो मनुष्या आश्चर्यगुणकर्मस्वभावाः स्युः ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान विद्वन् पुरुष ! जैसे (अदब्धाः) अहिंसनीय (कवयः) बुद्धिमान् पण्डित लोग (कविम्) उत्तम बुद्धिवाले को (दुर्यासु) गृहों में अहिंसनीय (निधारयन्तः) धारण करते हुए (शशासुः) शासन करते हैं (आयोः) जीवन की वृद्धि का शासन करते हैं (अतः) इस कारण से (त्वम्) आप (एवैः) प्राप्त (पड्भिः) विज्ञान आदिकों से (एतान्) इन प्रत्यक्ष (अद्भुतान्) आश्चर्ययुक्त गुण, कर्म और स्वभाववाले (दृश्यान्) देखने योग्य श्रेष्ठ बुद्धिवाले जनों को (अर्यः) स्वामी के समान (पश्येः) देखिये ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो अध्यापक और उपदेशक लोग बुद्धिमान् पुरुषों को पढ़ाते और उपदेश देते हैं, उनका सदा ही सत्कार करो, जिससे कि मनुष्य लोग आश्चर्ययुक्त गुण, कर्म और स्वभाववाले होवें ॥१२॥

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    विषय

    उपासक का क्रियाशील जीवन

    पदार्थ

    [१] (कवयः) = ज्ञानी पुरुष (अदब्धाः) = वासनाओं से हिंसित न होते हुए, (दुर्यासु) = गृहों में (आयोः) = आनेवाली सन्तान का (निधारयन्तः) = धारण करते हुए पुरुष (कविम्) = सर्वज्ञ प्रभु को (शशासुः) = प्रशंसित करते हैं। प्रभु का ये प्रातः-सायं ध्यान करते हैं। ये प्रभु का उपासन करनेवाले पुरुष स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानवृद्धि को करके 'कवि' बनते हैं। ध्यान के द्वारा वासनाओं से हिंसित नहीं होते। कर्त्तव्य भावना के प्रबल होने से सन्तानों का उत्तम पालन करते हैं। [२] (अत:) = चूँकि ये स्वाध्याय, ध्यान व कर्त्तव्यपालन करनेवाले बनते हैं, इसलिए (एतान्) = इन (दृश्यान्) = दर्शनीय जीवनवाले (अद्भुतान्) = आश्चर्य रूपोपेत उपासकों को (अर्यः) = ब्रह्माण्ड के स्वामी आप, हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (एवैः पड्भिः) = गतिशील पाओं से (पश्ये:)= देखते हैं, अर्थात् इन्हें आप गतिशील पाँओं से प्राप्त कराते हैं। प्रभु इन उपासकों को क्रियाशील जीवनवाला बनाते हैं। 'क्रियावानेव ब्रह्मविदां वरिष्ठ: '। इस क्रियामयता के कारण ही उनका जीवन दृश्य व अद्भुत बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का सच्चा उपासन ज्ञान प्राप्ति- वासनाओं से हिंसित न होने व सन्तान को उत्तम बनाने से होता है। प्रभु इन्हें क्रियाशील जीवन प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    दाता राजा, स्वामी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अदब्धाः ) कभी नाश न होने वाले (कवयः) विद्वान्, बुद्धिमान् दूरदर्शी पुरुष ( आयोः ) प्राप्त मनुष्य के ( दुर्यासु ) घरों में ( निधारयन्तः ) नित्य नियम से व्रतादि धारण कराते हुए ( कविम् ) विद्वान् पुरुष को (शशासुः) उत्तम उपदेश करते हैं। ( अतः ) इसलिये हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! ( त्वं ) तू ( अर्यः ) स्वामी, सबका पालक है । तू ( एतान् दृश्यान् ) दर्शन करने योग्य ( अद्भुतान् ) अद्भुत विद्वान् पुरुषों को (पड्भिः) पैरों से या (एवैः) रथादि यानों से प्राप्त होकर ( पश्येः ) देखा कर उनसे कुशल मंगल पूछा कर सत्संग किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा, जे अध्यापक व उपदेशक बुद्धिमान पुरुषांना शिकवितात व उपदेश देतात त्यांचा सदैव सत्कार करा. ज्यामुळे माणसे आश्चर्ययुक्त गुण, कर्म स्वभावयुक्त व्हावीत. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Wise visionaries, bold intrepidable scholars and sagely teachers, maintaining the inmates, disciples and seekers of knowledge in their home schools, teach them the knowledge and discipline of life. Therefore, O master and ruler, Agni, by practical steps you go, observe and assess these wonderful schools and their people. They are all open and worth seeing.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    the duties of right persons are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! shining like the fire, inviolable and un-reviled wise poets at their homes (Ashramas) give practical lessons to wisemen about prolonging and leading noble life, which uphold them well. Therefore, look at these admirable and marvelous poets through their specialized knowledge as a their master.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you should always honor those teachers and preachers who teach intelligent students. Scuh all are endowed with wonderful merits, actions and temperament.

    Foot Notes

    (पङ्भि:) विज्ञानादिभि:। = With scientific and other knowledge. (अदब्धा:) अहिंसनीया: अद्यनेरवनेवति (NKT 2, 7, 25 ) = Inviolable. (एवै:) प्राप्तै: । दम्नोति वधकर्मा (NG 2, 19)। = Attained, received.

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