ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्त्वा॑ दो॒षा य उ॒षसि॑ प्र॒शंसा॑त्प्रि॒यं वा॑ त्वा कृ॒णव॑ते ह॒विष्मा॑न्। अश्वो॒ न स्वे दम॒ आ हे॒म्यावा॒न्तमंह॑सः पीपरो दा॒श्वांस॑म् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयः । त्वा॒ । दो॒षा । यः । उ॒षसि॑ । प्र॒ऽशंसा॑त् । प्रि॒यम् । वा॒ । त्वा॒ । कृ॒णव॑ते । ह॒विष्मा॑न् । अश्वः॑ । न । स्वे । दमे॑ । आ । हे॒म्याऽवा॑न् । तम् । अंह॑सः । पी॒प॒रः॒ । दा॒श्वांस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त्वा दोषा य उषसि प्रशंसात्प्रियं वा त्वा कृणवते हविष्मान्। अश्वो न स्वे दम आ हेम्यावान्तमंहसः पीपरो दाश्वांसम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयः। त्वा। दोषा। यः। उषसि। प्रऽशंसात्। प्रियम्। वा। त्वा। कृणवते। हविष्मान्। अश्वः। न। स्वे। दमे। आ। हेम्याऽवान्। तम्। अंहसः। पीपरः। दाश्वांसम्॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्त्वा दोषोषसि प्रियं त्वाऽऽप्रशंसाद्वा यो हविष्मान् हेम्यावांस्तं दाश्वांसं त्वा त्वां स्वे दमेऽहंसोऽश्वो न पीपरस्तस्मै प्रियं सुखं कृणवते त्वं सुखं देहि ॥८॥
पदार्थः
(यः) (त्वा) त्वाम् (दोषा) रात्रौ (यः) (उषसि) दिने (प्रशंसात्) प्रशंसेत् (प्रियम्) (वा) (त्वा) त्वाम् (कृणवते) कुर्वते (हविष्मान्) प्रशस्तदानसामग्रीयुक्तः (अश्वः) तुरङ्गः (न) इव (स्वे) स्वकीये (दमे) गृहे (आ) (हेम्यावान्) हेम्न्युदके भवा रात्रिर्विद्यते यस्य। हेमेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (तम्) (अंहसः) अपराधात् (पीपरः) पालय (दाश्वांसम्) दातारम् ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येऽहर्न्निशं युष्मांस्तूत्साहयेयुस्तान् यूयं घासादिनाऽश्वानिवाऽऽनन्दयत ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् पुरुष ! (यः) जो (त्वा) आपकी (दोषा) रात्रि में और (उषसि) दिन में (त्वा) आपकी (आ, प्रशंसात्) सब प्रकार प्रशंसा करे (वा) अथवा (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम दान की सामग्री से युक्त (हेम्यावान्) जिसके जल में प्रकट हुई रात्रि विद्यमान (तम्) उस (दाश्वांसम्) देनेवाले आपको (स्वे) अपने (दमे) घर में (अंहसः) अपराध से (अश्वः) घोड़े के (न) सदृश (पीपरः) पाले उस (प्रियम्) प्रिय सुख (कृणवते) करते हुए के लिये आप सुख दीजिये ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो लोग दिन और रात्रि आप का उत्साह बढ़ावें, उनको आप लोग घास आदि से घोड़ों को जैसे वैसे आनन्द देओ ॥८॥
विषय
प्रभु-प्रार्थना व दानवृत्ति [बलि वैश्वदेव-यज्ञ]
पदार्थ
[१] हे अग्ने ! (यः) = जो (त्वा) = आपको (दोषा) = रात्रि के प्रारम्भ में और (यः) = जो (उषसि) = दिन के प्रारम्भ में (प्रशंसात्) = [adoration] प्रशंसित करता है, अर्थात् जो प्रातः सायं प्रभु का स्मरण करता है। (वा) = तथा (हविष्मान्) = दानपूर्वक अदनवाला होता हुआ, यज्ञशेष का सेवन करता हुआ (त्वा) = आपको अपना (प्रियम्) = प्रिय कृणवते करता है, वह (स्वे दमे) = अपने गृह में (आ हेम्यावान्) = सब प्रकार से सुवर्ण निर्मित कक्ष्यावाले (अश्वः न) = अश्व के समान होता है, अर्थात् यह व्यक्ति खूब धन सम्पत्ति से लद जाता है। इसे खूब ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है । [२] (तम्) = उस आपका स्तवन करनेवाले (दाश्वांसम्) = दान की वृत्तिवाले पुरुष को आप (अंहसः) = सब पापों से (पीपर:) = पार करते हो । सम्पत्ति से लद जाने पर, दान की वृत्तिवाला प्रभु का उपासक ही पाप में फँसने से बच पाता है। अन्यथा यह सम्पत्ति ही उसकी विपत्ति का कारण हो जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन व दानवृत्ति हमारी सम्पत्ति को बढ़ाते हैं। उस सम्पत्ति को लोकहित में विनियुक्त करते हुए हम पापों में फँसने से बचे रहते हैं ।
विषय
प्रातः उपासक उसके कृपापात्र हैं।
भावार्थ
हे ज्ञानवान् परमेश्वर ! हे विद्वन् ! ( यः ) जो पुरुष हविमान्, अन्न चरु, दान सामग्री और भक्ति आदि से युक्त होकर ( दोषा ) रात्रि में, सायंकाल और (यः) जो ( उषसि ) प्रातः प्रभात वेला में (त्वा प्रशंसात्) तेरी स्तुति करता है ( वा ) और ( त्वा ) तेरे को लक्ष्य कर ( प्रियं ) तेरे प्रिय वा अन्यों को प्रिय, तृप्तिकारक कार्य ( कृणवते ) करता है । तू ( स्वे दमे ) अपने घर में ( हेम्यावान् ) जल से शीतल रात्रि से युक्त चन्द्रमा के तुल्य शीतल स्वभाव वाला और ( हेम्यावान् ) हेम सुवर्ण को बढ़ाने वाली सम्पदा से युक्त होकर, ( हेम्यावान् अश्वः न ) सुवर्ण से मढ़ी ‘सुन्दर कक्षबंधनी रज्जु वा लगाम आदि से संयुक्त अश्व के समान स्वयं सुवर्णादि सम्पदा से युक्त उसका भोक्ता होकर ( तं दाश्वांसं ) उस दानशील पुरुष को ( अंहसः ) पाप से ( आ पीपरः ) सब प्रकार से बचाता है। अर्थात् जो मनुष्य प्रातः सायं संध्या अग्निहोत्र करता है वह अपने गृह में सम्पन्न होता है, प्रभु उसको पाप से बचाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे लोक अहर्निश तुमचा उत्साह वाढवितात त्यांना तुम्ही घोड्यांना जसा गवतामुळे आनंद होतो तसा आनंद द्या ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whoever sings in praise of you night and day, who with gifts in homage does you proud with things dear to you, save that man of generosity in his home from sin, come like a knight of golden horse and rescue him from evil.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of people are explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! bestow happiness upon that liberal man who possesses various articles for presentation, who praises you in the morning and at night and does what is pleasant and agreeable to your people of peaceful nature like the winter night. Keep him off the sin, like a horse who saves the trouble of journey. (Here sin is compared with trouble. Ed.)
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Gladden them who encourage you day and night, like they please a horse by giving grass etc.
Foot Notes
(हविष्मान् ) प्रशस्तदानसामग्रीयुक्त: = Possessing good articles for ration (use Ed.) or presentation. (दमे ) । गृहे । दमे इति गृहनाम (NG 3, 4)। = At home.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal