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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यू॒थेव॑ क्षु॒मति॑ प॒श्वो अ॑ख्यद्दे॒वानां॒ यज्जनि॒मान्त्यु॑ग्र। मर्ता॑नां चिदु॒र्वशी॑रकृप्रन्वृ॒धे चि॑द॒र्य उप॑रस्या॒योः ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यू॒थाऽइ॑व । क्षु॒ऽमति॑ । प॒श्वः । अ॒ख्य॒त् । दे॒वाना॑म् । यत् । ज॒नि॒म । अन्ति॑ । उ॒ग्र॒ । मर्ता॑नाम् । चि॒त् । उ॒र्वशीः॑ । अ॒कृ॒प्र॒न् । वृ॒धे । चि॒त् । अ॒र्यः । उप॑रस्य । आ॒योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देवानां यज्जनिमान्त्युग्र। मर्तानां चिदुर्वशीरकृप्रन्वृधे चिदर्य उपरस्यायोः ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यूथाऽइव। क्षुऽमति। पश्वः। अख्यत्। देवानाम्। यत्। जनिम। अन्ति। उग्र। मर्तानाम्। चित्। उर्वशीः। अकृप्रन्। वृधे। चित्। अर्यः। उपरस्य। आयोः॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्ञो विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे उग्र राजन् ! भवान् देवानां मर्त्तानां चान्ति यज्जनिमाऽऽख्यत् क्षुमति यूथेवाऽऽख्यत्। अर्य्यश्चिदिवोपरस्यायोः पश्वश्चिद् वृध उर्वशीर्देवा अकृप्रन् ॥१८॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यूथेव) सैन्यानीव (क्षुमति) बहु क्ष्वन्नं विद्यते यस्मिंस्तस्मिन् (पश्वः) पशोः (अख्यत्) प्रख्याति (देवानाम्) विदुषाम् (यत्) यानि (जनिम) जन्मानि (अन्ति) समीपे (उग्र) तेजस्विन् (मर्त्तानाम्) मनुष्याणाम् (चित्) अपि (उर्वशीः) बहुव्यापिकाः। उर्वशीति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (अकृप्रन्) कल्पन्ते (वृधे) वर्द्धनाय (चित्) इव (अर्य्यः) स्वामी (उपरस्य) मेघस्य (आयोः) जीवनस्य प्रापकस्य ॥१८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यन्मनुष्याणां मध्ये राजजन्म तन्महापुण्यजमिति वेद्यम्। यदि राजा न स्यात्तर्हि कोऽपि स्वास्थ्यं न प्राप्नुयाद् यथा मेघस्य सकाशात् सर्वेषां जीवनवर्धने भवतस्तथैव राज्ञः सर्वस्याः प्रजायाः वृद्धिजीवने भवतः ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (उग्र) तेजस्वी राजन् ! आप (देवानाम्) विद्वान् (मर्त्तानाम्) मनुष्यों के (अन्ति) समीप में (यत्) जिन (जनिम) जन्मों को (आ, अख्यत्) सब ओर से प्रसिद्ध करते वा (क्षुमति) बहुत अन्न जिसमें विद्यमान उसमें (यूथेव) सेनाजनों के सदृश प्रसिद्ध करते हैं (अर्य्यः) और जैसे स्वामी (चित्) वैसे (उपरस्य) मेघ और (आयोः) जीवन प्राप्त करानेवाले (पश्वः) पशु की (चित्) भी (वृधे) वृद्धि के लिये (उर्वशीः) बहुत व्याप्त होनेवाली क्रियाओं की विद्वान् लोग (अकृप्रन्) कल्पना करते हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्यों के मध्य में राजा का जन्म वह बड़े पुण्य से उत्पन्न हुआ ऐसा जानना चाहिये। जो राजा विद्यमान न हो तो कोई भी स्वस्थता को नहीं प्राप्त हो और जैसे मेघ के समीप से सब का जीवन और वृद्धि होती है, वैसे ही राजा के समीप से सब प्रजा की वृद्धि और जीवन होता है ॥१८॥

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    विषय

    उपासना के लाभ

    पदार्थ

    [१] हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो ! (इव) = जैसे (क्षुमति) = अन्नवाले स्थान में [चारागाह में] एक व्यक्ति (पश्व: यूथा) = पशुओं के झुण्ड को (आ अख्यत्) = देखता है, इसी प्रकार एक उपासक (अन्ति) = उस प्रभु के समीप (देवानां यत् जनिम) = देवों का जो विकास है उसे देखता है। चारागाह में पशुसंघ उपस्थित होता है, इसी प्रकार प्रभु की उपासना में दिव्यगुण उपस्थित होते हैं। [२] उपासना के द्वारा (मर्तानां चित्) = सामान्य मनुष्यों की भी (उर्वशी:) = [उरु वशो यस्याः] अपने पर शासन करनेवाली प्रजाओं को (अकृप्रन्)-= शक्तिशाली बनाते हैं। सामान्य मनुष्य, उपासना के द्वारा, अपने पर शासन करनेवाला व शक्तिशाली बन जाता है। (अर्यः) = [स्वामी] यह जितेन्द्रिय पुरुष (उपरस्य) = [उप्तस्य] बीजवपन द्वारा उत्पन्न हुई हुई अपनी (आयोः) = सन्तान को (वृधे चित्) = निश्चय से वृद्धि के लिये होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासना से [क] दिव्य गुणों का वर्धन होता है, [ख] मनुष्य जितेन्द्रिय बनता है, [ग] सन्तानों को उत्तम बना पाता है।

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    विषय

    स्वामी का आदर्श रूप ।

    भावार्थ

    हे ( उग्र ) बलशालिन् ! राजन् ! विद्वन् ! (यत्) जब ( अन्ति ) समीप में ( देवानां ) ऐश्वर्य के अभिलाषी और विजिगीषु लोगों का ( जनिम ) जन्म होता है । तब ( क्षुमति ) अन्न से समृद्ध पुरुष के अधीन जिस प्रकार ( पश्वः ) पशुओं के ( यूथा इव आ अख्यत् ) जत्थे के जत्थे दिखाई देते हैं उसी प्रकार तेरे अधीन पशुवत् भृत्यों के भी ( यूथा ) समूह के समूह दिखाई देते हैं । ( मर्त्तानां ) शत्रु को मारने वाले मनुष्यों की ( चित् ) उत्तम २ ( उर्वशीः ) जंघाओं से लांघने वाली या बड़े राष्ट्रों को वश करने में समर्थ सेनाएं ( अकृप्रन् ) समर्थ होती हैं। और ( अर्यः ) स्वामी वा वैश्य जन ( चित् ) भी ( उपरस्य आयोः ) वपन किये वीजों के सस्य सम्पत्ति रूप में देने वाले मेघ के कारण जैसे वैश्य (वृधे) बढ़ता है उसी प्रकार (उपरस्य) शत्रु सेना के वपन अर्थात् छेदन करने वाले ( आयोः ) मनुष्यों का ( अर्यः ) स्वामी राजा भी (वृधे ) बढ़ता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांमध्ये राजाचा जन्म अत्यंत पुण्याने मिळतो, असे समजले पाहिजे. जर राजा विद्यमान नसेल तर कोणीही स्वस्थ राहू शकत नाही. जशी मेघांमुळे सर्वांच्या जीवनाची वृद्धी होते तसेच राजामुळे सर्व प्रजेच्या जीवनाची उन्नती होते. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As the master proclaims the material wealth of his house of prosperity, as the commander proclaims the forces under his command, so do you, O lustrous ruler, reflect the presence around you of noble and brilliant leaders and scholars. And thus do the multitudes of people, like the rise of dawns, plan and prepare for the rise and progress of the land just as the producer master prays for the generous cloud and wishes for the health and age of life’s longevity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O splendid king! you proclaim the birth near (live close to) the enlightened persons and ordinary men. There may be armies under the commander who possesses good stock of food grains. The wise perform many pervasive acts like a king for the multiplication of the clouds (i.e. irrigational facilities) and the beasts (by rearing and improving the stock of animals) that help in the comforts (by providing comforts of the life).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A simile used in the mantra. The birth of a king among men is the result of great meritorious acts. If there is no king, none can remain healthy. On the clouds depend the life and growth of all, so on the king depends the life and growth of the people.

    Foot Notes

    (क्षुमति) बहु क्ष्वन्नं विद्यते यस्मिंस्तस्मिन् क्षुइति अन्नाना (NG 2, 7)। = Under a Commander who has a good stock of food grains. (उर्वशी:) बहुव्यापिकाः । उर्वशीति पदनाम (NG. 4, 2)। Many pervasive acts (of electricity etc.). (उपरस्य ) मेघस्य । Of the cloud.

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