ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
तस्येदि॒ह स्त॑वथ॒ वृष्ण्या॑नि तुविद्यु॒म्नस्य॑ तुवि॒राध॑सो॒ नॄन्। यस्य॒ क्रतु॑र्विद॒थ्यो॒३॒॑ न स॒म्राट् सा॒ह्वान्तरु॑त्रो अ॒भ्यस्ति॑ कृ॒ष्टीः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । इत् । इ॒ह । स्त॒व॒थ॒ । वृष्ण्या॑नि । तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नस्य॑ । तु॒वि॒ऽराध॑सः । नॄन् । यस्य॑ । क्रतुः॑ । वि॒द॒थ्यः॑ । न । स॒म्ऽराट् । स॒ह्वान् । तरु॑त्रः । अ॒भि । अस्ति॑ । कृ॒ष्टीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्येदिह स्तवथ वृष्ण्यानि तुविद्युम्नस्य तुविराधसो नॄन्। यस्य क्रतुर्विदथ्यो३ न सम्राट् साह्वान्तरुत्रो अभ्यस्ति कृष्टीः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतस्य। इत्। इह। स्तवथ। वृष्ण्यानि। तुविऽद्युम्नस्य। तुविऽराधसः। नॄन्। यस्य। क्रतुः। विदथ्यः। न। सम्ऽराट्। सह्वान्। तरुत्रः। अभि। अस्ति। कृष्टीः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यस्य तुविद्युम्नस्य तुविराधसो राज्ञ इह विदथ्यो सम्राण्न साह्वान् तरुत्रः क्रतुरभ्यस्ति वृष्ण्यानि सन्ति तस्येन्नॄन् कृष्टीर्यूयं स्तवथ ॥२॥
पदार्थः
(तस्य) (इत्) (इह) अस्मिन् राज्ये (स्तवथ) प्रशंसथ (वृष्ण्यानि) बलेषु साधूनि (तुविद्युम्नस्य) बहुयशसः (तुविराधसः) बह्वैश्वर्यस्य (नॄन्) नायकान् (यस्य) (क्रतुः) प्रज्ञाराज्यपालनाख्यो यज्ञो वा (विदथ्यः) विज्ञातुं योग्यः (न) इव (सम्राट्) सार्वभौमो राजमानः (साह्वान्) सोढा (तरुत्रः) दुःखेभ्यस्तारकः (अभि) (अस्ति) (कृष्टीः) मनुष्यान् ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यस्य पूर्णबलानि सैन्यानि महाकीर्त्तिरसङ्ख्यं धनं पूर्णा विद्या शुभा गुणकर्म्मस्वभावाः सहायाश्च स्युस्स एव चक्रवर्त्ती राजा भवितुमर्हति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस (तुविद्युम्नस्य) बहुत यशयुक्त (तुविराधसः) बहुत ऐश्वर्य्यवाले राजा के (इह) इस राज्य में (विदथ्यः) जानने योग्य (सम्राट्) सम्पूर्ण भूमि में प्रसिद्ध और प्रकाशमान के (न) सदृश (साह्वान्) सहने वा (तरुत्रः) दुःखों से पार उतारनेवाला (क्रतुः) बुद्धि और राज्य का पालनरूप यज्ञ (अभि, अस्ति) सब ओर से है और (वृष्ण्यानि) बलों में साधु कार्य हैं (तस्य, इत्) उसी के (नॄन्) नायक अर्थात् मुख्य (कृष्टीः) मनुष्यों की (स्तवथ) तुम लोग प्रशंसा करो ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिसकी पूर्णबलवाली सेना और बड़ा यश, असंख्य धन, पूर्णविद्या, उत्तम गुण, कर्म्म, स्वभाव और सहाय होवें वही चक्रवर्त्ती राजा होने के योग्य होता है ॥२॥
विषय
'तुविद्युम्न तुविराधस्' प्रभु का सम्पर्क
पदार्थ
[१] (तस्य) = उस (तुविद्युम्नस्य) = महान् ज्ञानवाले (तुविराधसः) = महान् सम्पत्ति व ऐश्वर्यवाले प्रभु के (वृष्ण्यानि) = बलों को (नॄन्) = प्राप्त करानेवाले (= ले चलनेवाले) मरुतों (प्राणों) को (इत्) = निश्चय से (इह) = इस जीवन में स्तवथ स्तुत करो। (यस्य क्रतुः) = जिस प्रभु का कर्म (विदथ्यः सम्राट्) = न ज्ञान में उत्तम शासक के समान है। ज्ञानी शासक जैसे प्रजाओं का नियन्त्रण करता है, इसी प्रकार वे प्रभु सब प्रजाओं का नियन्त्रण कर रहे हैं। उस प्रभु का कर्म (साह्वान्) = सब शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। (तरुत्र:) = हमें भवसागर से तरानेवाला है। (कृष्टी:) = सब प्रजाओं को (अभि अस्ति) = अभिभूत करनेवाला है। कोई भी उस प्रभु के शासन का उल्लंघन नहीं कर पाता। [२] इस प्रभु के बलों को अपने में धारण करने के लिए आवश्यक है कि हम प्राणों की साधना करें। ये (मरुत्) = प्राण ही हमें प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले हैं। प्राणसाधना से चित्तवृत्ति का निरोध होकर इस चित्त का प्रभु में स्थापन होता है। इस निरुद्ध मन से ही प्रभु का साक्षात्कार व सम्पर्क प्राप्त होता है 'मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु' । प्रभु के साथ सम्पर्क होने पर हम भी 'तुविद्युम्न तुविराधस्' बनेंगे। उसी समय शत्रुओं का पराभव करके हम भवसागर को तैरनेवाले बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना द्वारा हम निरुद्ध चित्तवृत्तिवाले बनकर प्रभुसम्पर्क को प्राप्त करें।
विषय
राजा कृषक वर्ग का उपकारक हो ।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य का (क्रतुः) जलाकर्षण, वर्षण आदि कार्य और (कृष्टीः अभि अरित) कर्षक प्रजाओं को लक्ष्य कर सुखकारी होता है उसी प्रकार (यस्य) जिसका (क्रतुः) राज्य पालन आदि कर्म (विदथ्यः) यज्ञ, संग्राम, यश और श्री के लाभ के योग्य (सम्राट् न) सर्वत्र प्रकाशमान् सूर्य के तुल्य, (साह्वान्) सबको पराजित करने वाला, (तरुत्रः) दुःखों से तराने वाला (कृष्टीः अभि अस्ति) कर्षणशील, कृषिकर प्रजा के लिये अति सुखकारी और प्रजा का कर्षण अर्थात् पीड़न करने वाले दुष्टों को (अभि अस्ति) पराजित करने वाला होता है हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (तुविद्युम्नस्य) बहुत से ऐश्वर्य के स्वामी, (तुविराधसः) बहुत से साधनों वाले (तस्य इत्) इसके ही (वृष्ण्यानि) प्रजा या सुखों की वर्षा और उनका प्रबन्ध करने वाले बलों और (नॄन्) उसके मुख्य नायकों के (स्तवथ) गुण वर्णन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याची पूर्ण बलवान सेना असते. महान कीर्ती, धन, पूर्ण विद्या, शुभ गुण, कर्म, स्वभाव असतो तोच चक्रवर्ती राजा बनण्यायोग्य असतो व त्यालाच सगळीकडून साह्य मिळते. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here on this earth praise Indra, celebrate his acts of bravery and generosity, appreciate and honour the leaders and commanders of the mighty and majestic glorious achiever, whose yajnic rule over the social order is worth knowing and holy as an umbrella over the people like the cover of universal and effulgent sunlight, challenging, fighting, winning, forbearing and redeeming.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are further dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! admire the leading persons of that renowned and opulent king, whose Yajna (non-violent sacrifice) in the form of the presentation of the people is worth knowing. He is universally shining, endures all difficulties and is beyond the miseries. He rules in sovereign capacity and is in fact entitled to veneration. Great are his protecting powers, which you seek and praise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! he alone is fit to be sovereign, who has powerful armies and good and great reputation. He possesses infinite wealth, perfect knowledge, good merits, actions and temperaments, and noble associates.
Foot Notes
(ऋतुः ) प्रज्ञाराज्यपालनाख्यो यज्ञो वा ! ऋतुरिति कर्मनाम (NG 2, 1) = Non-violent sacrifices or Yajna in the form of the safety of the people. (विदथ्यः) विज्ञातु योग्यः । द्युम्नं द्योततेर्यशो वा अन्नं वेति निरुक्त' । = Worth knowing. (तुविद्युम्नस्य ) बहुयशसः । तुवीति 'बहुनाम (NG 3, 1) = Of the illustrious whose reputation is great.
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