ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 11
नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥११॥
स्वर सहित पद पाठनु । स्तु॒तः । इ॒न्द्र॒ । नु । गृ॒णा॒नः । इष॑म् । ज॒रि॒त्रे । न॒द्यः॑ । न । पी॒पे॒रिति॑ पीपेः । अका॑रि । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । ब्रह्म॑ । नव्य॑म् । धि॒या । स्या॒म॒ । र॒थ्यः॑ । सदा॒ऽसाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो३ न पीपेः। अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठनु। स्तुतः। इन्द्र। नु। गृणानः। इषम्। जरित्रे। नद्यः। न। पीपेरिति पीपेः। अकारि। ते। हरिऽवः। ब्रह्म। नव्यम्। धिया। स्याम। रथ्यः। सदाऽसाः ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे हरिव इन्द्र ! येन धिया ते नव्यं ब्रह्माऽकारि यस्य रथ्यः सदासा वयं स्याम तदर्थमिषं नु गृणानो नु ष्टुतस्सन्नस्मै जरित्रे नद्यो न पीपेः ॥११॥
पदार्थः
(नु) सद्यः (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्ययुक्त (नु) अत्रोभयत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (गृणानः) विद्यां स्तुवन् (इषम्) (जरित्रे) सकलविद्याऽध्यापकाय (नद्यः) (न) इव (पीपेः) वर्धय (अकारि) (ते) तुभ्यम् (हरिवः) विद्वत्सङ्गप्रिय (ब्रह्म) विद्याधनम् (नव्यम्) नवीनम् (धिया) प्रज्ञया (स्याम) (रथ्यः) बहुरथाद्यैश्वर्य्ययुक्ताः (सदासाः) ससेवकाः ॥११॥
भावार्थः
यो यस्मै विद्यां दद्यात् तस्य सेवा तेन यथावत् कर्त्तव्येति ॥११॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इत्येकाधिकविंशत्तमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (हरिवः) विद्वानों के सङ्ग में प्रीति करनेवाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त ! जिस (धिया) बुद्धि से (ते) आपके लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) विद्यारूप धन (अकारि) किया गया और जिसके (रथ्यः) बहुत रथ आदि ऐश्वर्य्य से युक्त (सदासाः) सेवा करनेवालों के सहित वर्त्तमान हम लोग (स्याम) होवें इसके लिये (इषम्) अन्न की (नू) निश्चय (गृणानः) विद्या की स्तुति करता हुआ (नु) शीघ्र (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त इस (जरित्रे) सम्पूर्ण विद्याओं के अध्यापक के लिये (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (पीपेः) वृद्धि करो ॥११॥
भावार्थ
जो जिसके लिये विद्या को देवे, उसकी सेवा उसको चाहिये कि यथायोग्य करे ॥११॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के गुण वर्णन करने से इसके अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
स्तोता के लिए प्रेरणा देनेवाले प्रभु
पदार्थ
मन्त्र की व्याख्या २०.११ पर द्रष्टव्य है। सम्पूर्ण सूक्त इस बात का प्रतिपादन करता है कि प्रभु उन्नति के लिए आवश्यक धन देते इसी उन्नति के उद्देश्य से प्रभु हमें शक्तियों को प्राप्त कराते हैं -
विषय
राजा कर्मानुसार वेतन दे ।
भावार्थ
देखो व्याख्या पूर्व सूक्त १९। ११ में॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः॥ इति षष्ठो वर्गः ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो ज्याला विद्या देतो त्याने त्याची यथायोग्य सेवा करावी. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of knowledge, honour and excellence of wealth and well being, praised and celebrated, bear and bring the wealth of food, energy, knowledge and progress for the devotee like the flowing streams of living waters. This new song of homage is offered to you, O lord of speed and advancement, so that with action and intelligence we may be masters of chariots and noble servants of Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of government officials are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man ! you are endowed with the great wealth of wisdom and lover of the company of the enlightened persons. The teacher of all sciences has given you the wealth of new knowledge and because of his intellect, we, his followers possess chariots and other kinds of material and our servants. Increase all facilities, like the rivers, (irrigation) by admiring the knowledge received from him, and let you being be praised by others on that account.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should properly serve the person who imparts him knowledge.
Foot Notes
(ब्रह्म) विद्याधनम् । ब्रह्मेति धननाम (NG 2, 10)। = The wealth of knowledge. (गुणान:) विद्यां स्तुवन् । = Admiring knowledge. (हरिवः) विद्वत्सङ्गप्रिय । हरय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) हरन्त्यज्ञान्धकारमिति हरयो विद्वांसो मनुष्याः । = Lover of the Association with the enlightened persons. (जरित्रे) सकलविद्याध्यापकाय । = For the teacher of all kinds of knowledge or sciences.
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