ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ या॒त्विन्द्रो॑ दि॒व आ पृ॑थि॒व्या म॒क्षू स॑मु॒द्रादु॒त वा॒ पुरी॑षात्। स्व॑र्णरा॒दव॑से नो म॒रुत्वा॑न्परा॒वतो॑ वा॒ सद॑नादृ॒तस्य॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒तु॒ । इन्द्रः॑ । दि॒वः । आ । पृ॒थि॒व्याः । म॒क्षु । स॒मु॒द्रात् । उ॒त । वा॒ । पुरी॑षात् । स्वः॑ऽनरात् । अव॑से । नः॒ । म॒रुत्वा॑न् । प॒रा॒ऽवतः॑ । वा॒ । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यात्विन्द्रो दिव आ पृथिव्या मक्षू समुद्रादुत वा पुरीषात्। स्वर्णरादवसे नो मरुत्वान्परावतो वा सदनादृतस्य ॥३॥
स्वर रहित पद पाठआ। यातु। इन्द्रः। दिवः। आ। पृथिव्याः। मक्षु। समुद्रात्। उत। वा। पुरीषात्। स्वःऽनरात्। अवसे। नः। मरुत्वान्। पराऽवतः। वा। सदनात्। ऋतस्य ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
यथा सूर्य्य आ दिवः पृथिव्या उत समुद्राद्वा पुरीषात् परावत ऋतस्य सदनाद्वा नोऽवसे मक्ष्वायाति तथैव स्वर्णरान्नोऽवसे मरुत्वान्त्सन्निन्द्र आ यातु ॥३॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यातु) प्राप्नोतु (इन्द्रः) सूर्य इव राजा (दिवः) प्रकाशात् (आ) (पृथिव्याः) भूमेः (मक्षू) शीघ्रम्। मक्ष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (उत) (वा) (पुरीषात्) उदकात् । पुरीषमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (स्वर्णरात्) स्वरादित्य इव नरान्नायकात् (अवसे) रक्षणाद्याय (नः) अस्माकम् (मरुत्वान्) वायुवानिव प्रशस्तपुरुषयुक्तः (परावतः) दूरदेशात् (वा) (सदनात्) स्थानात् (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा सूर्य्योऽन्तरिक्षं प्रकाशं भूमिञ्जलं कार्य्यं जगच्च व्याप्य सर्वं रक्षति तथैव प्रतापी सुसहायो भूत्वाऽस्मान् संरक्ष्य प्रकाशितो भव ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे सूर्य (आ, दिवः) प्रकाश से (पृथिव्याः) भूमि से (उत) और (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से (वा) वा (पुरीषात्) जल से (परावतः) दूर देश से (ऋतस्य) सत्य कारण के (सदनात्) स्थान से (वा) वा हम संसारी जनों की रक्षा आदि के लिये (मक्षू) शीघ्र प्राप्त होता है, वैसे ही (स्वर्णरात्) सूर्य्य के सदृश नायक से (नः) हम लोगों के (अवसे) रक्षण आदि के लिये (मरुत्वान्) वायुवान् पदार्थ के सदृश प्रशंसित पुरुषों से युक्त होता हुआ (इन्द्रः) सूर्य के समान राजा (आ, यातु) प्राप्त हो ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे सूर्य्य अन्तरिक्ष, प्रकाश, भूमि, जल और कार्य्य जगत् को व्याप्त होकर सब की रक्षा करता है, वैसे ही प्रतापी और उत्तम सहाययुक्त होकर और हम लोग की उत्तम प्रकार रक्षा करके प्रकाशित हूजिये ॥३॥
विषय
'व्यापक विभूतियोंवाले' प्रभु
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (दिवः) = द्युलोक से (आयातु) = हमें प्राप्त हों। जब हम (शरत्) = की अमावस्या के दिन द्युलोक को अनन्त नक्षत्रों से जगमगाता देखते हैं, तो उस रचयिता का स्मरण हो उठना स्वाभाविक है। यही द्युलोक से प्रभु की प्राप्ति का भाव है । ये प्रभु (पृथिव्याः आ) = [यातु] पृथिवी से हमें प्राप्त हों। विविध वनस्पतियों को जन्म देनेवाली यह पृथिवी सचमुच प्रभु का स्मरण कराती है। अनन्त प्रकार के फूलों की गन्ध उस प्रभु की गन्ध क्यों न देगी ! (मक्षू) = शीघ्र ही वे प्रभु (समुद्रात्) = इस अन्तरिक्ष से हमें प्राप्त हों (उत वा) = और अथवा वे प्रभु (पुरीषात्) = अन्तरिक्षस्थ मेघों के जल से हमें प्राप्त हों । अन्तरिक्ष में गति करते हुए मेघ एक सहृदय पुरुष को प्रभु का स्मरण कराते ही हैं। इन से बरसनेवाला जल सारी पृथिवी को आप्लावित करता हुआ हृदय में प्रभु के भाव को जागरित करता है । [२] वह (मरुत्वान्) = मरुतों [प्राणों] वाले प्रभु, प्राणसाधना द्वारा साक्षात्कार करने योग्य प्रभु, (अवसे) = हमारे रक्षण के लिए हमें (स्वर्णराद्) = 'स्वः' प्रकाशमान सूर्य है 'नर' नेता जिसका, उस द्युलोक से प्राप्त हों । (वा) = अथवा (परावतः) = अत्यन्त सुदूर (ऋतस्य सदनात्) = ऋत के सदन से-उदक के स्थान अन्तरिक्ष से हमें प्राप्त हों। द्युलोकस्य सूर्य अपनी किरणों द्वारा हमारे में प्राणशक्ति का संचार करता हुआ हमारा रक्षण करता है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष से प्राप्त होनेवाले ये मेघजल हमारे लिए अमृतत्व [नीरोगता] को प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार प्रभु सूर्य व वृष्टिजलों द्वारा हमारा रक्षण करते हैं। इस सारी प्रक्रिया का विचार करते हुए उस प्रभु की अद्भुत महिमा का ध्यान आता है, यही प्रभु की प्राप्ति है ।
भावार्थ
भावार्थ – 'द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथिवी व मेघस्थ जल' ये सब हमें प्रभुमहिमा का स्मरण कराते हैं।
विषय
सूर्य, विद्युत्, सुवर्णवत् राजा की प्राप्ति ।
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (मरुत्वान्) वायुगणों सहित (दिवः) आकाश से सूर्य के समान तेजस्वी होकर (मक्षु) शीघ्र (आयात) हमें प्राप्त हो, (पृथिव्याः) वह हमें भूमि से सुवर्णादि वा अग्नि के तुल्य (आ) प्राप्त हो, (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से मेघ या विद्युत् के तुल्य प्राप्त हो, (पुरीषात्) जल में से विद्युत्वत् ‘पुरीष’ अर्थात् ऐश्वर्य में से प्राप्त हो । वह पुरुष (स्वर्नरात्) सूर्यवत् प्रतापी नायक समूह में से (वा) और (परावतः) दूरस्थ देश से और (ऋतस्य सदनात्) सत्य न्याय के परम स्थान से भी (नः) हमारे (अवसे) रक्षा आदि के लिये (आयातु) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जसा सूर्य, अंतरिक्ष, प्रकाश, भूमी, जल व कार्य जगतामध्ये व्याप्त असतो व सर्वांचे रक्षण करतो तसेच पराक्रमी व उत्तम सहाय्ययुक्त बनून आमचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून प्रकाशित हो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let Indra, with vision, power and energy to rule, come instantly from the heavens, from the earth, from the sea or from the orb of the sun and from the ethereal spaces for our protection and promotion. Let the lord of the winds come from afar or from the vedi of cosmic yajna and from the centre of truth and rectitude.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra (king) are dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun lands on the earth, from the sky, through its rays, for our protection. It lands down from the waters, from the abode of the true cause (matter). Same way, let a king, accompanied by good people, come to us soon from far and near, from the association of a sun like leader.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! the sun pervades firmament, light, earth, water and the world and protects all. Let it be our protector, being very mighty and endowed with good associates.
Foot Notes
(मक्षू ) शीघ्रम् । मक्ष्विति क्षिप्रनाम (NG 2,15)। = Immediately. (समुद्रात् ) अन्तरिक्षात् । समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम (NG 1,3)। = From the firmament. (पुरीषात् ) उदकात् पुरीषमित्युदकनाम (NG 1,12)। = From the water. (स्वर्णरात्) स्वरादित्य इव नरान्नायकात् । = From the company of a leader who is splendid like the sun. असौ द्युलाक: स्व: (ऐत. 6, 7 ) एष एवेन्द्रो य एष (सूर्य) तपति ( stph 1, 6, 4, 18 )
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