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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भ॒द्रा ते॒ हस्ता॒ सृकृ॑तो॒त पा॒णी प्र॑य॒न्तारा॑ स्तुव॒ते राध॑ इन्द्र। का ते॒ निष॑त्तिः॒ किमु॒ नो म॑मत्सि॒ किं नोदु॑दु हर्षसे॒ दात॒वा उ॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रा । ते॒ । हस्ता॑ । सुऽकृ॑ता । उ॒त । पा॒णी इति॑ । प्र॒ऽय॒न्तारा॑ । स्तु॒व॒ते । राधः॑ । इ॒न्द्र॒ । का । ते॒ । निऽस॑त्तिः । किम् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । म॒म॒त्सि॒ । किम् । न । उत्ऽउ॑त् । ऊँ॒ इति॑ । ह॒र्ष॒से॒ । दात॒वै । ऊँ॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रा ते हस्ता सृकृतोत पाणी प्रयन्तारा स्तुवते राध इन्द्र। का ते निषत्तिः किमु नो ममत्सि किं नोदुदु हर्षसे दातवा उ ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रा। ते। हस्ता। सुऽकृता। उत। पाणी इति। प्रऽयन्तारा। स्तुवते। राधः। इन्द्र। का। ते। निऽसत्तिः। किम्। ऊम् इति। नो इति। ममत्सि। किम्। न। उत्ऽउत्। ऊम् इति। हर्षसे। दातवै। ऊँ इति ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यस्य ते सुकृता हस्ता उतापि प्रयन्तारा भद्रा पाणी स्तुवते राधो दद्यातां तस्य ते का निषत्तिरु त्वं किं नो ममत्सि दातवा उ किं न उ उदुद्धर्षसे ॥९॥

    पदार्थः

    (भद्रा) कल्याणकर्म्मकरौ (ते) तव (हस्ता) हस्तौ (सुकृता) शोभनं धर्म्यं कर्म्म क्रियते याभ्यान्तौ (उत) अपि (पाणी) बाहू (प्रयन्तारा) प्रयच्छन्ति याभ्यान्तौ (स्तुवते) सत्यं वदते (राधः) धनम् (इन्द्र) सर्वेभ्यः सुखप्रद (का) (ते) तव (निषत्तिः) निषीदन्ति यया सा स्थितिर्नीतिर्वा (किम्) (उ) (नः) अस्मान् (ममत्सि) हर्षयसि (किम्) (न) निषेधे (उदुत्) उत्कृष्टे (उ) वितर्के (हर्षसे) आनन्दसि (दातवै) दातुम् (उ) ॥९॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यस्मात्त्वमस्मानानन्दयसि तस्मादानन्दितः सततञ्जायसे यतस्त्वं सुवर्णपाणिर्दानहस्तो योग्यान् सत्करोषि तस्मात्तव कल्याणकरी नीतिरस्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सब के लिये सुख देनेवाले ! जिन (ते) आपके (सुकृता) श्रेष्ठ धर्म्मयुक्त कर्म्म किया जाता जिनसे वे (हस्ता) हाथ (उत) और (प्रयन्तारा) देते हैं जिनसे वे (भद्रा) कल्याण कर्म करनेवाले (पाणी) हाथ (स्तुवते) सत्य बोलते हुए के लिये (राधः) धन देवें उन (ते) आपको (का) कौन (निषत्तिः) स्थित होते हैं जिससे ऐसी मर्य्यादा वा नीति है (उ) और आप (किम्) क्या (नः) हम लोगों को (ममत्सि) प्रसन्न करते हो और (दातवै) देने को (उ) भी (किम्) क्यों (न, उ) नहीं (उदुत्) उत्तम प्रकार (हर्षसे) आनन्दित होते हो ॥९॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जिससे आप हम लोगों को आनन्द देते हो, इससे आनन्दित निरन्तर होते हो और जिससे आप सुवर्ण हस्त में धारण किये हुए दानसहित हस्तयुक्त हुए योग्यों का सत्कार करते हो, इससे आपकी कल्याण करनेवाली नीति है ॥९॥

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    विषय

    सब धनों के दाता प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते हस्ता) = आपके हाथ (भद्रा) = हमारा कल्याण करनेवाले हैं (उत) = और (सुकृता) = हमारे लिए शुभ ही शुभ करनेवाले हैं। आपके पाणी ये रक्षक हाथ स्तुवते स्तोता के लिए (राधः प्रयन्तारा) = कार्यसाधक धनों के देनेवाले हैं। [२] हे प्रभो ! (ते निषन्तिः) = आपकी उपासना का अद्भुत आनन्द देनेवाली है। आप (नः) = हमें (उ) = निश्चय से (किं ममत्सि) = क्या ही अद्भुत आनन्द देते हैं। (उत् उत् उ) = और निश्चय से (नः) = हमारे लिए (दातवा उ) = देने के लिए ही (किं हर्षसे) = आप क्या ही आनन्दित होते हैं? पिता पुत्र के लिए आवश्यक धनों प्राप्त कराता हुआ आनन्दित होता ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारा कल्याण करते हैं। हमारे लिए आवश्यक धनों को देते हैं। प्रभु को उपासना हमारे लिए आनन्द का कारण बनती है।

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    विषय

    बाहु कल्याण कर्म करें, दान दें।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! हे सब के सुख अन्न आदि देने हारे ! (ते हस्ता) तेरे दोनों हाथ (भद्रा) कल्याण और सुख करने वाले, भाग्यशाली, (उत) और (पाणी) दोनों बाहुएं (सुकृता) उत्तम काम करने में कुशल और (स्तुवते) विद्वान् उपदेष्टा पुरुष के उपकार के लिये (राधः) धनैश्वर्य (प्रयन्तारा) अच्छी प्रकार देने हारे। तू विचार कर कि (ते निषत्तिः का) तेरी उच्च पद पर क्या स्थिति है उसका क्या प्रयोजन ? तू (दातवा) दान देने के लिये भला (किम् उ नो ममत्सि) क्योंकर न प्रसन्न हुआ करे और (किम् उ नो उद् हर्ष से उ) और क्यों न तू खूब हर्षित हो । अर्थात् तू बड़ा राजा है दान के कार्य में तुझे खूब प्रसन्न और हर्षयुक्त उत्साही बने रहना अच्छा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जेव्हा तू आम्हाला आनंद देतोस तेव्हा निरंतर तूही आनंदित होतोस. जेव्हा तू सुवर्ण धारण केलेल्या हस्ताने तेव्हा दान करून योग्य माणसांचा सत्कार करतोस, तेव्हा तुझी नीती कल्याणकारी असते. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Noble are your arms, O lord Indra, as instruments of noble deeds, gracious your hands generously giving the wealth of life to the celebrant. What and where is the seat of your dispensation? Why not bless us with joy? Why not rejoice and give us the thrill and the ecstasy?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the public servants are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (king) you are bestower of happiness on all. Your hands are auspicious. You do good deeds, and your arms earn wealth for a truth speaking people. What is your position or policy? Why do you not please us? Why are you not delighted to give us gifts ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! because you gladden us, therefore you become full of joy. Become you have gold in you hands and are a liberal donor, you policy is auspicious of happiness to all.

    Foot Notes

    (निषत्ति:) निषीदन्ति यया सा स्थितिर्नोतिर्वा । = Position or policy. (प्रयन्तारा) प्रयच्छन्ति याभ्यान्तौ । = Givers, liberal donors.

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