ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
स वा॒ज्यर्वा॒ स ऋषि॑र्वच॒स्यया॒ स शूरो॒ अस्ता॒ पृत॑नासु दु॒ष्टरः॑। स रा॒यस्पोषं॒ स सु॒वीर्यं॑ दधे॒ यं वाजो॒ विभ्वाँ॑ ऋ॒भवो॒ यमावि॑षुः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठसः । वा॒जी । अर्वा॑ । सः । ऋषिः॑ । व॒च॒स्यया॑ । सः । शूरः॑ । अस्ता॑ । पृत॑नासु । दु॒स्तरः॑ । सः । रा॒यः । पोष॑म् । सः । सु॒ऽवीर्य॑म् । दधे॑ । यम् । वाजः॑ । विऽभ्वा॑ । ऋ॒भवः॑ । यम् । आवि॑षुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः। स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाँ ऋभवो यमाविषुः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसः। वाजी। अर्वा। सः। ऋषिः। वचस्यया। सः। शूरः। अस्ता। पृतनासु। दुस्तरः। सः। रायः। पोषम्। सः। सुऽवीर्यम्। दधे। यम्। वाजः। विऽभ्वा। ऋभवः। यम्। आविषुः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ऋभवो विभ्वा यमाविषुर्यं वाजो दधाति स वचस्यया सहार्वा वाजी स ऋषिः सः पृतनासु दुष्टरः शूरोऽस्ता भवति स रायस्पोषं सः सुवीर्य्यं च दधे ॥६॥
पदार्थः
(सः) (वाजी) विज्ञानवान् (अर्वा) शुभगुणप्रापकः (सः) (ऋषिः) वेदार्थवेत्ता (वचस्यया) अतिशयितया प्रशंसया (सः) (शूरः) (अस्ता) शत्रूणां प्रक्षेप्ता (पृतनासु) शत्रुसेनासु (दुष्टरः) दुःखेनोल्लङ्घयितुं योग्यः (सः) (रायः) धनस्य (पोषम्) (सः) (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु बलं पराक्रमम् (दधे) दधाति (यम्) (वाजः) विज्ञानवान् (विभ्वा) विभुना पदार्थेन (ऋभवः) मेधाविनः (यम्) (आविषुः) प्राप्तविद्यं कुर्वन्तु ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्या विद्वत्सङ्गेन गुणान् ग्रहीतुमिच्छन्ति ते प्रशंसिता शत्रुभिरजेया धनाढ्या वीर्य्यवन्तश्च जायन्ते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (विभ्वा) व्यापक पदार्थ से (यम्) जिसको (आविषुः) विद्यायुक्त करें और (यम्) जिसको (वाजः) विज्ञानवान् धारण करता है (सः) वह (वचस्यया) अत्यन्त प्रशंसा के साथ (अर्वा) उत्तम गुणों को प्राप्त करानेवाला (वाजी) विज्ञानयुक्त (सः) वह (ऋषिः) वेदार्थ को जाननेवाला (सः) वह (पृतनासु) शत्रुओं की सेनाओं में (दुष्टरः) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य (शूरः) वीर पुरुष (अस्ता) शत्रुओं का फेंकनेवाला होता है (सः) वह (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि और (सः) वह (सुवीर्य्यम्) उत्तम बल और पराक्रम को (दधे) धारण करता है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्वानों के संग से गुणों के ग्रहण करने की इच्छा करते हैं वे प्रशंसित, शत्रुओं से नहीं जीतने योग्य, धनाढ्य और पराक्रमी होते हैं ॥६॥
विषय
वाजी, अर्वा व ऋषिः
पदार्थ
[१] (यम्) = जिस पुरुष को (वाज:) = शक्तिशाली, (विभ्वा) = विशालहृदय माता पिता (आविषुः) = रक्षित करते हैं और (यम्) = जिसको (ऋभवः) = ज्ञानदीप्त आचार्य [आविषुः] रक्षित करते हैं, अर्थात् जिसका रक्षण शक्ति सम्पन्न माता द्वारा होता है, जिसका रक्षण विशाल हृदय [अकृपण] पिता से होता है और जिसका रक्षण ज्ञानदीप्त आचार्य द्वारा होता है (सः वाजी) = वह शक्तिशाली बनता है। माता के निर्बल होने पर बालक भी निर्बल ही रह जाता है। [स] (अर्वा) = वह सब लोभ आदि वृत्तियों का संहार करनेवाला होता है। पिता कृपण होगा, तो सन्तान भी लोभप्रवण होगी। [स:] (ऋषिः) = वह तत्त्वद्रष्टा बनता है। आचार्य ज्ञानदीप्त होता है, तो विद्यार्थी भी ज्ञानी बनता है। 'वाज' से रक्षित यह 'वाजी' बनता है, 'विभ्वा' से रक्षित यह 'अर्वा' होता है, 'ऋभु' से रक्षित 'ऋषि' बनता है। [२] (वचस्यया) = स्तुति से युक्त हुआ हुआ (सः) = वह (शूरः) = शूरवीर बनता है, (अस्ता) = शत्रुओं का सुदूर विनष्ट करनेवाला होता है। (पृतनासु) = संग्रामों में (दुष्टर:) = शत्रुओं से न तैरने योग्य होता है । (सः) = वह (रायस्पोषम्) = धन के पोषण को व ज्ञानैश्वर्य को (दधे) = धारण करता है और (सः) = वह (सुवीर्यं दधे) = उत्तम शक्ति को धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम शरीर में 'वाजी' [शक्तिशाली] बनें। मन में 'अर्वा' हों [वासनाओं का संहार करनेवाले] मस्तिष्क में हम 'ऋषि' हों, तत्त्वद्रष्टा । एक सन्तान को उत्तम माता-पिता आचार्य मिलते हैं, तो वह ऐसा बन पाता है। इसके बाद 'ध्यान' [स्तुति] उसके जीवन का निर्माण करता है।
विषय
ऋभु, विम्वा वाज, आदि विद्वानों वीरों के कर्त्तव्य उनमें वेदोपदेश के स्थिर करने का उपदेश ।
भावार्थ
(यत्) जिसको (वाजः विभ्वा ऋभवः) बलवान्, ऐश्वर्यवान् पुरुष विशेष सामर्थ्य और विद्यावान् पुरुष और ज्ञान तेज, और सत्य के बल से तेजस्वी पुरुष (आविषुः) रक्षा करते, प्राप्त होते, ज्ञानादि से पूर्ण करते हैं (सः वाजी) वह ऐश्वर्यवान् (अर्वा) अश्व के समान बलवान्, अन्यों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाला और शत्रुओं का नाशक होता है। (वचस्यया ऋषिः) उत्तम वाणी और स्तुति से मन्त्रार्थों का देखने वाला (सः) वह (शूरः) शूरवीर, (अस्ता) अस्त्रों से शत्रु को पराजय करने वाला, (पृतनासु दुरः-तरः) सेनाओं के बीच कठिनता से विजय करने योग्य होता है । (सः रायः पोषं दधे) ऐश्वर्य की समृद्धिको धारण करता और (सः सुवीर्यं दधे) वह उत्तम वीर्य, बल को धारण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः- १, ६, ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ७ जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विद्वानांच्या संगतीने गुण ग्रहण करण्याची इच्छा बाळगतात, ती प्रशंसित, शत्रूंना जिंकण्यास अजिंक्य, धनाढ्य व पराक्रमी असतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He is the hero, he is the pioneer, he is the visionary prophet by eloquence, he is the brave, he is the warrior, unchallengeable in battle contests, he wins health and wealth, and he wins strength and prowess whom the Rbhus, world heroes of the speed of winds, protect and patronise.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of technology is further developed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that man becomes endowed with special knowledge, taker of noble virtues, a Rishi (a visualizer of the true meaning of the mantras), worthy of homage, invincible in battles, a hero, the discomfiter of foes, whom wisemen protect (with the knowledge of Omnipresent God and whom a great scholar {upholds. He is possessed of ample wealth and great vitality.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who desire to imbibe noble virtues with the association of the enlightened persons become admirable, invincible by their foes, wealthy and mighty.
Foot Notes
(वाजी) विज्ञानवान् । वज-गतौ । गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणम् । = Endowed with special or true knowledge. (अर्वा ) शुभ गुणप्रापक: । (अर्वा) ऋ गतिप्रापणयोः (म्वा० ) अत्र शुभगुणप्रापकः । = Conveyer of noble virtues. (ऋषिः) यो यथार्थ मंत्रार्थं दर्शयति । ऋषिर्दशनात् स्तोमान् ददर्श इति निरुक्ते | = (One who visualizes true meaning of the mantra. Ed.)
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