ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 11
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्राबृहस्पती
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बृह॑स्पत इन्द्र॒ वर्ध॑तं नः॒ सचा॒ सा वां॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे। अ॒वि॒ष्टं धियो॑ जिगृ॒तं पुरन्धीर्जज॒स्तम॒र्यो व॒नुषा॒मरा॑तीः ॥११॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । इ॒न्द्र॒ । वर्ध॑तम् । नः॒ । सचा॑ । सा । वा॒म् । सु॒ऽम॒तिः । भू॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ । अ॒वि॒ष्टम् । धियः॑ । जि॒गृ॒तम् । पुर॑म्ऽधीः । ज॒ज॒स्तम् । अ॒र्यः । व॒नुषा॑म् । अरा॑तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पत इन्द्र वर्धतं नः सचा सा वां सुमतिर्भूत्वस्मे। अविष्टं धियो जिगृतं पुरन्धीर्जजस्तमर्यो वनुषामरातीः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते। इन्द्र। वर्धतम्। नः। सचा। सा। वाम्। सुऽमतिः। भूतु। अस्मे इति। अविष्टम्। धियः। जिगृतम्। पुरम्ऽधीः। जजस्तम्। अर्यः। वनुषाम्। अरातीः ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाविषयमाह ॥
अन्वयः
हे बृहस्पते इन्द्र ! या वां सुमतिर्भूतु सा वनुषां नः सचा भूतु तयास्मान् वर्धतम्। युवां याः पुरन्धीर्धियोऽविष्टं यया जिगृतं ता अस्मे प्राप्नुवन्तु यथाऽर्य्यः स्वामी तथा युवामस्माकमरातीर्जजस्तम् ॥११॥
पदार्थः
(बृहस्पते) सकलविद्यां प्राप्त (इन्द्र) परमैश्वर्य्य राजन् ! (वर्धतम्) वर्धेथाम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (नः) अस्माकम् (सचा) सत्येन (सा) (वाम्) युवयोः (सुमतिः) श्रेष्ठा प्रज्ञा (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मान् (अविष्टम्) प्राप्नुयातम् (धियः) प्रज्ञाः (जिगृतम्) उपदेशयतम् (पुरन्धीः) बहुविद्याधराः (जजस्तम्) योधयतम् (अर्य्यः) स्वामी (वनुषाम्) संविभाजकानाम् (अरातीः) शत्रून् ॥११॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वदा विद्वद्भ्यो विद्याप्राप्तिर्याचनीया ययोत्तमाः प्रज्ञा जायेरञ्छत्रवश्च दूरतः प्लवेरन्निति ॥११॥ अत्र विद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये तृतीयाष्टके सप्तमेऽध्याये सप्तविंशो वर्गः सप्तमोऽध्यायश्चतुर्थे मण्डले पञ्चमानुवाकः पञ्चाशत्तमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (बृहस्पते) सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त (इन्द्र) और अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाले राजन् ! जो (वाम्) आप दोनों की (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि (भूतु) हो (सा) वह (वनुषाम्) संविभाग करनेवाले (नः) हमारे (सचा) सत्य के साथ हो और उससे हम लोगों की (वर्धतम्) वृद्धि करो, आप दोनों जो (पुरन्धीः) बहुत विद्याओं को धारण करनेवाली (धियः) बुद्धियों को (अविष्टम्) प्राप्त होइये जिससे (जिगृतम्) उपदेश दीजिये वे (अस्मे) हम लोगों को प्राप्त होवें और जैसे (अर्य्यः) स्वामी वैसे आप दोनों हम लोगों के (अरातीः) शत्रुओं को (जजस्तम्) युद्ध कराइये ॥११॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सर्वदा विद्वानों से विद्याप्राप्ति विषयक याचना करें, जिससे उत्तम बुद्धियाँ होवें और शत्रुजन दूर से भागें ॥११॥ इस सूक्त में विद्वान् राजा और प्रजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमान् विरजानन्द सरस्वती स्वामीजी के शिष्य दयानदसरस्वती स्वामिविरचित संस्कृतार्य्यभाषासुशोभित सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्य में तृतीय अष्टक के सप्तम अध्याय में सत्ताईसवाँ वर्ग तथा सातवाँ अध्याय और चतुर्थ मण्डल में पाँचवाँ अनुवाक और पचासवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
विषय
राज कर्त्तव्य
पदार्थ
[१] हे (बृहस्पते) = ज्ञानी ब्राह्मण ! इन्द्र शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले क्षत्रिय ! आप (सचा) = मिलकर (नः वर्धतम्) = हमें बढ़ानेवाले होइये । (वाम्) = आपकी (सा सुमति:) वह कल्याणीमति (अस्मे भूतु) = हमें प्राप्त हो । आपका प्रजा-रक्षण का शुभ विचार सदा बना रहे। हम आपके अशुभ विचार के शिकार न हो जाएँ। [२] आप दोनों मिलकर (धियः अविष्टम्) = हमारे कर्मों का रक्षण करें। (पुरन्धी:) = शरीररूप नगरियों का धारण करनेवाली बुद्धियों को (जिगृतम्) = जगाओ और (वनुषाम्) = सम्भजन करनेवाले हम लोगों के (अर्य:) = [गंत्री:] आक्रमण करनेवाले (अराती:) = शत्रुओं को (जजस्तम्) = [क्षपयतम्] नष्ट करनेवाले होइये।
भावार्थ
भावार्थ - पुरोहित व राजा मिलकर राष्ट्र का रक्षण करें। वे प्रजाओं के उत्तम कर्मों का रक्षण करें, प्रजाओं में पालक बुद्धि को पैदा करने का प्रयत्न करें। शत्रुओं के आक्रमण से प्रजाओं का रक्षण करें। ऐसे राष्ट्र में सदा उत्तम उषाओं का प्रादुर्भाव होता है। उस उषा का वर्णन अगले सूक्त में करते -
विषय
राजा अमात्य के कर्त्तव्यः ।
भावार्थ
हे (बृहस्पते) वेदविद्या के पालक ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशक राजन् ! आप दोनों (सचा) सत्यपूर्वक सदा साथ रह कर (नः वर्धतम्) हमें बढ़ाओ । (वां) आप दोनों की (सा) वह, उत्तम (सु-मतिः) शुभ मति, ज्ञान वा उत्तम ज्ञान वाली परिषद् (अस्मे) हमारे हित के लिये (भूतु) होवे । आप लोग (धियः) प्रजा और कर्मों तथा राष्ट्र की धारक प्रजाओं को (अविष्टम्) पालन करो (पुरं-धीः) देहवत् पुर को धारण करने वा बहुत से ऐश्वर्य और ज्ञानों के धारण करने वाली प्रजाओं वा सेनाओं को (जिगृतम्) सदा सचेत, सावधान बनाओ और उत्तम उपदेश किया करो । और आप दोनों (अर्यः) स्वामी के तुल्य होकर वा (वनुषाम्) संविभाग करने योग्य ऐश्वर्यो वा करों को (अरातीः) न देने वाली (अर्यः) शत्रुसेनाओं को (जजस्तम्) विनाश किया करो। इति सप्तविंशो वर्गः॥ इति सप्तमोऽध्यायः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सदैव विद्वानाकडून विद्याप्राप्तीची याचना करावी. ज्यामुळे बुद्धी उत्तम व्हावी व शत्रूने दुरूनच पलायन करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brhaspati and Indra, scholar teacher of science and Divinity, ruler of the world, lead us on to advancement, we pray, be with us as our own, and may your vision and wisdom be ours for ourselves. Inspire and protect our mind and soul, awaken our thought and action. Lord and master, kind and favourable, help us exhaust and eliminate our weaknesses, want and poverty, dedicated supplicants as we are.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the people towards the State is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholar and king ! may your good intellect be linked with our truth. We distinguish well between truth and falsehood and therefore make us grow thereby. May we have those intellects full of the knowledge of various sciences, whom you possess and by whom you teach and preach? Like good ruler, enable us to fight with our foes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always pray to the enlightened persons for the acquisition of knowledge, so that the intellect may become crystal pure and enemies may flee away
Foot Notes
(सचा) सत्येन । सचा इति पदनाम (NG 4, 2)। पद-गतौ । गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानप्राप्यर्थं ग्रहणम् । जानाति यथार्थतया येन अपवा प्राप्नोति सुखं शान्तिं वा येन तत् सत्यम् । (जिगृतम् ) उपदेशयतम् । गु-शब्दे (भ्वा० = With truth. Preach. (वनुषाम् ) संविभाजकानाम् = Of the distinguishers between truth and untruth.
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