ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अप्र॑तीतो जयति॒ सं धना॑नि॒ प्रति॑जन्यान्यु॒त या सज॑न्या। अ॒व॒स्यवे॒ यो वरि॑वः कृ॒णोति॑ ब्र॒ह्मणे॒ राजा॒ तम॑वन्ति दे॒वाः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठअप्र॑तिऽइतः । ज॒य॒ति॒ । सम् । धना॑नि । प्रति॑ऽजन्यानि । उ॒त । या । सऽज॑न्या । अ॒व॒स्यवे॑ । यः । वरि॑वः । कृ॒णोति॑ । ब्र॒ह्मणे॑ । राजा॑ । तम् । अ॒व॒न्ति॒ । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्रतीतो जयति सं धनानि प्रतिजन्यान्युत या सजन्या। अवस्यवे यो वरिवः कृणोति ब्रह्मणे राजा तमवन्ति देवाः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठअप्रतिऽइतः। जयति। सम्। धनानि। प्रतिऽजन्यानि। उत। या। सऽजन्या। अवस्यवे। यः। वरिवः। कृणोति। ब्रह्मणे। राजा। तम्। अवन्ति। देवाः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! योऽप्रतीतो राजा अवस्यवे ब्रह्मणे वरिवः कृणोति तं देवा अवन्ति या सजन्योत प्रतिजन्यानि धनानि सन्ति तानि सहजस्वभावेन सञ्जयति ॥९॥
पदार्थः
(अप्रतीतः) शत्रुभिरपराजितः (जयति) (सम्) (धनानि) (प्रतिजन्यानि) जनं जनं प्रति योग्यानि (उत) (या) यानि (सजन्या) समानैर्जन्यैः सह वर्त्तमानानि (अवस्यवे) रक्षामिच्छवे (यः) (वरिवः) सेवनम् (कृणोति) (ब्रह्मणे) परमात्मने (राजा) (तम्) (अवन्ति) रक्षन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो राजा परमात्मानमेवोपास्त आप्तान् विदुषस्सेवते स एवाक्षतं राष्ट्रं धनं च प्राप्य सदैव विजयी जायते ॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (अप्रतीतः) शत्रुओं से नहीं पराजित किया गया (राजा) राजा (अवस्यवे) रक्षा की इच्छा करते हुए (ब्रह्मणे) परमात्मा के लिये (वरिवः) सेवन को (कृणोति) करता है (तम्) उसकी (देवाः) विद्वान् जन (अवन्ति) रक्षा करते हैं और (या) जो (सजन्या) तुल्य उत्पन्न हुए पदार्थों के साथ वर्त्तमान (उत) भी (प्रतिजन्यानि) मनुष्य-मनुष्य के प्रति वर्त्तमान (धनानि) धन हैं उनको सहज स्वभाव से (सम्, जयति) अच्छे प्रकार जीतता है ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो राजा परमात्मा ही की उपासना करता और यथार्थवक्ता विद्वानों की सेवा करता है, वही नहीं नाश होनेवाले राज्य और धन को प्राप्त होकर सदा ही विजयी होता है ॥९॥
विषय
आगे बढ़नेवाले विजय पाते हैं
शब्दार्थ
(अ प्रति इतः) पीछे पग न हटानेवाला ही (प्रतिजन्यानि) वैयक्तिक (या) अथवा (सजन्या) सामूहिक (धनानि) ऐश्वर्यों को, धनों को (सं जयति) सम्यक् प्रकार जीतता है (य:) जो (राजा) पराक्रमी, तेजस्वी (अवस्यवे ब्रह्मणे) रक्षार्थी वेदवित् विद्वान् की ( वरिवः कृणोति ) पूजा करता है, आदर और सम्मान करता है (देवा:) वे विद्वान् लोग (तं) उस पराक्रमी व्यक्ति की (अवन्ति) रक्षा करते हैं ।
भावार्थ
पीछे पग न हटानेवाला, सदा आगे बढ़नेवाला, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़नेवाला व्यक्ति वैयक्तिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है । धैर्य और साहस के साथ बढ़नेवाला व्यक्ति ही सामाजिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है । पराक्रमी और तेजस्वी पुरुष को रक्षा चाहनेवाले वेदवित् ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए, उनके आदेश और सन्देशों को सुनकर तदनुसार आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य विद्वानों की पूजा करता है, विद्वान् लोग भी ज्ञानादि के द्वारा उसकी रक्षा करते हैं; उसे कुमार्ग से बचाकर सुमार्ग पर चलाते हैं ।
विषय
देवों से रक्षित होनेवाला राजा
पदार्थ
[१] (अप्रतीतः) = शत्रुओं से प्रतिरुद्ध न किया गया हुआ वह राजा (धनानि) = उन सब धनों को (संजयति) = सम्यक् जीतता है, जो धन (प्रतिजन्यानि) = प्रत्येक व्यक्ति से अर्जन के योग्य हैं, (उत या) = और जो (सजन्या) = समाज के लिए हितकर हैं अथवा मिलकर कमाने योग्य हैं, अर्थात् वैयक्तिक व सामाजिक धनों का वह विजेता बनता है। [२] (यः राजा) = जो राजा (अवस्यवे) = रक्षण की कामनावाले (ब्रह्मणे) = ज्ञानीपुरुष के लिए (वरिवः कृणोति) = धनों को देता है, (तम्) = उस राजा की (देवा:) = सब देव अवन्ति रक्षा करते हैं। ब्राह्मणों का आदर करनेवाले इस राजा के राज्य में आधिदैविक कष्ट नहीं आते।
भावार्थ
भावार्थ- ब्राह्मणों का आदर करनेवाला राजा 'प्रतिजन्य व सजन्य' धनों का विजेता होता है और सब देव उसका रक्षण करते हैं ।
विषय
परमेश्वर का राजवत् वर्णन ।
भावार्थ
(यः) जो परमेश्वर राजा के तुल्य ही (अवस्यवे ब्रह्मणे) रक्षा चाहने वाले ब्रह्मज्ञानी पुरुष को (वरिवः कृणोति) धन प्रदान करता है जो (राजा) स्वयं सूर्यवत् सब का प्रकाशक है (तम्) उसको सब (देवाः) देव, विद्वान् गण प्रकाशक किरणों के तुल्य (अवन्ति) प्राप्त होते हैं और उसका ज्ञान और उसको प्रेम करते हैं। वह स्वयं (अप्रतीतः) प्रत्येक साधारण पुरुष से वा प्रत्यक्ष इन्द्रियों से नहीं जाना जाता है, तो भी (प्रति-जन्या या स-जन्या धनानि) वह प्रत्येक उत्पन्न होने वाले और समान, एक साथ रहने वाले जीवों के हितकारी समस्त ऐश्वर्यो को (संजयति) अच्छी प्रकार वश करता है। (२) राजा के पक्ष में—जो (अप्रतीतः) किसी से मुक़ाबला न किया जाकर, अद्वितीय बलशाली राजा होकर (प्रति-जन्या स-जन्या धनानि सं जयति) प्रतिपक्षी और समान कोटि के जनों के धनों का विजय करता है। (अवस्यवे ब्रह्मणे वरिवः कृणोति) रक्षार्थी ब्राह्मण वर्ग का आदर करता है, (देवाः) दानशील व्यवहारज्ञ, सम्पन्न जन और विजयेच्छुक सैन्य गण (तम् अवन्ति) उसकी रक्षा करते वा उसकी शरण जाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो राजा परमेश्वराची उपासना करतो व आप्त विद्वानांची सेवा करतो त्याच्या राज्याचा नाश न होता धन प्राप्त होऊन तो विजयी होतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Unchallenged, unopposed, that ruler wins over and rules all the wealth and powers, assets and liabilities, whether they belong to the opposition or to his own supporters, who does honour and service to the holy man of Vedic knowledge, who feels he needs protection and support and offers worship and support to the lord omniscient and omnipotent in support of his people. Indeed all the nobilities of humanity and all powers of nature strengthen, support and protect that ruler as the man of God for all his people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of enlightened person's duties is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the king who is not overcome by enemies, serves or worships God, who desires to protect all people, and is the cherisher by the enlightened persons. He conquers instantaneously all the riches of the world, whether individually or collectively.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king who adores only One God and serves absolutely truthful enlightened persons is always victorious, having obtained invincible State (area) and abundant wealth,
Foot Notes
(अप्रतीतः ) शत्रुभिरपराजितः । = Not overcome by the enemies. (वरिवः) सेवनम् । वरिवः इति धननाम (NG 2, 10) अत्र ज्ञानभक्ति धनमभिप्रयते । अथ राजानः कीदृशो भवेयुरित्याह । = Service, worship, communion.
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