ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स इद्राजा॒ प्रति॑जन्यानि॒ विश्वा॒ शुष्मे॑ण तस्थाव॒भि वी॒र्ये॑ण। बृह॒स्पतिं॒ यः सुभृ॑तं बि॒भर्ति॑ वल्गू॒यति॒ वन्द॑ते पूर्व॒भाज॑म् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठसः । इत् । राजा॑ । प्रति॑ऽजन्यानि । विश्वा॑ । शुष्मे॑ण । त॒स्थौ॒ । अ॒भि । वी॒र्ये॑ण । बृह॒स्पति॑म् । यः । सुऽभृ॑तम् । बि॒भर्ति॑ । व॒ल्गु॒ऽयति॑ । वन्द॑ते । पू॒र्व॒ऽभाज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स इद्राजा प्रतिजन्यानि विश्वा शुष्मेण तस्थावभि वीर्येण। बृहस्पतिं यः सुभृतं बिभर्ति वल्गूयति वन्दते पूर्वभाजम् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठसः। इत्। राजा। प्रतिऽजन्यानि। विश्वा। शुष्मेण। तस्थौ। अभि। वीर्येण। बृहस्पतिम्। यः। सुऽभृतम्। बिभर्त्ति। वल्गुऽयति। वन्दते। पूर्वऽभाजम् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः सुभृतं बृहस्पतिं पूर्वभाजं बिभर्त्ति वल्गूयति वन्दते यः शुष्मेण वीर्य्येण विश्वा प्रतिजन्यान्यभि तस्थौ स इदेव राजा सर्वैर्भजनीयोऽस्ति ॥७॥
पदार्थः
(सः) जगदीश्वरः (इत्) (राजा) सर्वप्रकाशकः (प्रतिजन्यानि) प्रत्यक्षेण जनितुं योग्यानि (विश्वा) सर्वाणि (शुष्मेण) बलेन (तस्थौ) तिष्ठति (अभि) आभिमुख्ये (वीर्य्येण) पराक्रमेण (बृहस्पतिम्) महतां महान्तम् (यः) (सुभृतम्) सुष्ठु धृतम् (बिभर्त्ति) धरति (वल्गूयति) सत्करोति। वल्गूयतीत्यर्चतिकर्मा। (निघं०३.१४) (वन्दते) कामयते (पूर्वभाजम्) पूर्वैर्भजनीयम् ॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यः परमेश्वरः सर्वं जगदभिव्याप्य धृत्वा सूर्य्यमपि धरति सर्वान् वेदानुपदिश्य प्रशंसितो वर्त्तते यस्य सेवां योगिराजाः कुर्वन्ति तमेव नित्यमुपाध्वम् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (सुभृतम्) उत्तम प्रकार धारण किये गये (बृहस्पतिम्) बड़ों में बड़े (पूर्वभाजम्) प्राचीनों से सेवा करने योग्य का (बिभर्त्ति) धारण करता (वल्गूयति) सत्कार करता और (वन्दते) कामना करता है जो (शुष्मेण) बल (वीर्य्येण) और पराक्रम से (विश्वा) सम्पूर्ण (प्रतिजन्यानि) प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने योग्यों के (अभि) सम्मुख (तस्थौ) स्थित होता है (सः, इत्) वही जगदीश्वर (राजा) सब का प्रकाश करनेवाला सब लोगों के सेवा करने योग्य है ॥७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो परमेश्वर सम्पूर्ण जगत् को अभिव्याप्त होकर और धारके सूर्य्य को भी धारता है और सम्पूर्ण वेदों का उपदेश देकर प्रशंसित वर्त्तमान है और जिसकी सेवा योगिराज करते हैं, उसी की नित्य उपासना करो ॥७॥
विषय
प्रतिजन्य-धनों का धारण
पदार्थ
[१] (सः) = वह बृहस्पति का उपासक (इत्) = ही राजा-दीप्त जीवनवाला होता है। (विश्वा) = सब (प्रतिजन्यानि) = प्रत्येक जन के लिए हितकर, अर्थात् व्यक्ति सम्बद्ध धनों का (अभितस्थौ) = अपने में धारण करनेवाला बनता है। (शुष्मेण) = शत्रुशोधक बलों द्वारा यह मानस धनों को प्राप्त करता है और (वीर्येण) = वीर्यशक्ति द्वारा रोगकृमियों को नष्ट करके शारीरिकधनों का अधिष्ठाता बनता है। [२] इन (प्रतिजन्य) = धनों को वही प्राप्त कर पाता है, (यः) = जो कि (सुभृतम्) = [सुष्ठु भृतं यस्मात्] उत्तम भरण करनेवाले (बृहस्पतिम्) = उस सर्वज्ञ प्रभु को (बिभर्ति) = अपने हृदय में धारण करता है, (वल्गूयति) = उसके ही स्तुति-वचनों का उच्चारण करता है और (पूर्वभाजम्) = सब से प्रथम सेवनीय उस बृहस्पति का ही (वन्दते) = अभिवादन करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का आराधक ही प्रतिजन्यधनों को प्राप्त करता है और यह शुष्म व वीर्य सम्पन्न होकर मानस व शारीरिक बलों का धारण करता है ।
विषय
योग्य राजा, प्रभु बृहस्पति ।
भावार्थ
(सः इत्) वह परमेश्वर ही (राजा) राजा के समान सर्व विश्व का स्वामी, सर्वप्रकाशक और तेजोमय स्वप्रकाश, (शुष्मेण) सर्व शोषक, प्रखर तेज और (वीर्येण) सब गति देने वाले बल से (विश्वा) समस्त (प्रतिजन्यानि) प्रत्यक्ष उत्पन्न होने वाले पदार्थों में (अधि तस्थौ) व्यापक है। (यः) जो परमेश्वर (सु-भृतम्) उत्तम रीति से विश्व के पोषक (बृहस्पतिम्) बड़े ब्रह्माण्ड के पालक सूर्यादि लोक को भी (बिभर्त्ति) धारण करता है और (पूर्वभाजं) सब से पूर्वके विद्यमान उपार्जित ज्ञानों को सेवन करने वाले विद्वान् पुरुष को भी (वल्गूयति) उपदेश करता और (वन्दते) उसको चाहता है इसी प्रकार (यः) जो राजा (सुभृतं बृहस्पति विभर्त्ति) बहुत बड़े जनराष्ट्र के पालक, उत्तम पोषक पुरुष को धारण करता है (पूर्वभाजं वल्गूयति वन्दते च) पूर्व विद्यमान वृद्ध पुरुषों के सेवने योग्य धर्मात्मा ज्ञानी पुरुष का सत्कार और स्तुति अभिवादन करता है, जो सब प्रतिपक्षी जनों के संग्रामों पर शत्रु-क्षोभक बल से वश करता है (स इत् राजा) वही राजा होने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो, जो परमेश्वर संपूर्ण जगात व्याप्त असून, त्याला धारण करतो तसेच सूर्यालाही धारण करतो व संपूर्ण वेदांचा उपदेश करतो. तो प्रशंसनीय आहे. ज्याची सेवा योगिजन करतात त्याचीच नित्य उपासना करा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He surely is ruler of the world who faces all the practical battles of life with his own strength and courage, and who holds in faith, honours and worships Brhaspati, lord supreme sustainer of the universe, most cherished and the first immanent lord of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of learned persons are continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that king alone is to be adored by all who bears in him all-minded Brihaspati-God, who is the Greatest of the great, worshipped by all our ancestors, who revered Him, who intensely longed for Him and who by his heroic force and energy conquers all that is existent in the world and that confronts Him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should always adore that one God who having pervaded and upheld the whole world, upholds even the sun. He is praised by all by the teaching of the Vedas and Who is adored by all great Yogis.
Foot Notes
(बृहस्पतिम् ) महतौ महान्तम् । = The Greatest of the great. (वल्गयति ) सत्करोति । वल्गुयतीत्यर्चतिकर्मा (NG 3, 14 ) = Reveres, adores. (वन्दते) कामयते । = Desires or intensely longes for.
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