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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसुयव आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॒ विश्वे॑भि॒रा ग॑हि दे॒वेभि॑र्ह॒व्यदा॑तये। होता॑रं त्वा वृणीमहे ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । विश्वे॑ऽभिः । आ । ग॒हि॒ । दे॒वेऽभिः॑ । ह॒व्यऽदा॑तये । होता॑रम् । त्वा॒ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने विश्वेभिरा गहि देवेभिर्हव्यदातये। होतारं त्वा वृणीमहे ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। विश्वेभिः। आ। गहि। देवेभिः। हव्यऽदातये। होतारम्। त्वा। वृणीमहे ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यं होतारं त्वा वयं वृणीमहे स त्वं हव्यदातये विश्वेभिर्देवेभिः सहा गहि ॥

    पदार्थः

    (अग्ने) विद्वन् (विश्वेभिः) समग्रैः (आ) (गहि) आगच्छ (देवेभिः) विद्वद्भिः (हव्यदातये) दातव्यदानाय (होतारम्) (त्वा) (वृणीमहे) ॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विदुषां स्वीकारं कृत्वा त आह्वातव्या, विद्वांसश्च विद्वद्भिः सहागत्य सततं सत्यमुपदिशन्तु ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! जिन (होतारम्) देनेवाले (त्वा) आपका हम लोग (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, वह आप (हव्यदातये) देने योग्य दान के लिये (विश्वेभिः) सम्पूर्ण (देवेभिः) विद्वानों के साथ (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों का सत्कार कर उन्हें बुलावें और विद्वान् जन भी विद्वानों के साथ प्राप्त होकर निरन्तर सत्य का उपदेश करें ॥४॥

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    विषय

    ज्ञानवान् गुरु के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्युत् का वर्णन । उत्तम पुरुष का उच्च पद पर स्थापन ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) ज्ञानयुक्त ! अग्निवत् तेजस्विन् ! ग्राह्य प्रकाश को देने के लिये किरणों सहित आने वाले सूर्य के तुल्य आप भी ( हव्य-दातये ) उत्तम देने और स्वीकार करने योग्य ज्ञान ऐश्वर्य के देने के लिये ( विश्वेभिः देवेभिः ) समस्त विद्या वा धन के अभिलाषी वा विद्वान् उत्तम जनों सहित ( आगहि ) आइये । ( होतारं त्वा) दान देने हारे तुझ उदार पुरुष को हम ( वृणीमहे ) सर्वाश्रय रूप से स्वीकार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसूयव अत्रिया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १, ९ गायत्री | २, ३, ४,५,६,८ निचृद्गायत्री । ७ विराङ्गायत्री ॥ षडजः स्वरः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दिव्यगुणों व प्रभु की प्राप्ति के लिए 'हव्यदाति' बनें

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (हव्यदातये) = हव्यों के देनेवाले यज्ञशील पुरुष के लिए (विश्वेभिः देवेभिः) = सब देवों के साथ (आगहि) = प्राप्त होइए। देने के स्वभाववाला यज्ञशील पुरुष दिव्यगुणों को प्राप्त हो और इन दिव्यगुणों का वर्धन करता हुआ अन्ततः आपकी प्राप्ति का पात्र हो । २. हम (होतारम्) = सब-कुछ देनेवाले (त्वा) = आपको ही (वृणीमहे) = वरते हैं। आपकी प्राप्ति में सब प्राप्त हो जाता है। आपके उपासक बनने पर मनुष्य को किसी प्रकार की कमी नहीं रह जाती।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हव्यदाति-यज्ञशील बनें। हमें सब दिव्यगुण प्राप्त होंगे। दिव्यगुणों के साथ हम प्रभु के समीप होते चलेंगे। हम में किसी बात की कमी न रहेगी।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्वानांचा सत्कार करून त्यांना आमंत्रित करावे व विद्वानांनीही विद्वानांच्या संगतीत राहून निरंतर सत्याचा उपदेश करावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light and fire of yajna, spirit of creation and cooperation, come with all the divinities and nobilities of nature and humanity for the presentation of the fruits of yajnic creation. We elect and invite you as the presiding priest and the chief yajaka.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons are told further in the fourth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! we choose you a donor as the priest of the Yajna. Come with all the enlightened persons for giving what is worth giving (including knowledge, happiness etc.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should invite the great scholars respectfully and you should come along with other enlightened men and give true teachings to the people constantly.

    Foot Notes

    (हव्यदासये) दातव्यदानाय । हु दानादनयोः आदाने च (जुहो०)। = For giving what is worth giving. (देवेभिः) विद्वद्भिः । विद्वांसो हि देवा: (Stph 3, 7, 3, 10) = With highly learned persons.

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