ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 8
प्र य॒ज्ञ ए॑त्वानु॒षग॒द्या दे॒वव्य॑चस्तमः। स्तृ॒णी॒त ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठप्र । य॒ज्ञः । ए॒तु॒ । आ॒नु॒षक् । अ॒द्य । दे॒वव्य॑चःऽतमः । स्तृ॒णी॒त । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यज्ञ एत्वानुषगद्या देवव्यचस्तमः। स्तृणीत बर्हिरासदे ॥८॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यज्ञः। एतु। आनुषक्। अद्य। देवव्यचःऽतमः। स्तृणीत। बर्हिः। आऽसदे ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यो देवव्यचस्तमो यज्ञोऽद्याऽऽसदे बर्हिरानुषगेतु तं यूयं प्र स्तृणीत ॥८॥
पदार्थः
(प्र) (यज्ञः) सत्यः सङ्गतो व्यवहारः (एतु) प्राप्नोतु (आनुषक्) आनुकूल्येन (अद्या) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवव्यचस्तमः) यो देवेषु दिव्येषु पदार्थेष्वतिशयेन व्याप्तः (स्तृणीत) आच्छादयत (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (आसदे) समन्तात् स्थित्यर्थं गमनार्थं वा ॥८॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सत्सङ्गतिं कृत्वा शिल्पोन्नतिं विदधते ते सर्वहितैषिणो भवन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (देवव्यचस्तमः) उत्तम पदार्थों में अतिशय करके व्याप्त (यज्ञः) सत्य और सङ्गत व्यवहार (अद्या) आज (आसदे) सब प्रकार से ठहरने वा जाने के अर्थ (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (आनुषक्) अनुकूलता से (एतु) प्राप्त हो, उसको आप लोग (प्र, स्तृणीत) अच्छे प्रकार आच्छादित करो अर्थात् सुरक्षित रक्खो ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य श्रेष्ठों की सङ्गति करके शिल्पविद्या की उन्नति करते हैं, वे सबके हितैषी होते हैं ॥८॥
विषय
ज्ञानवान् गुरु के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्युत् का वर्णन । उत्तम पुरुष का उच्च पद पर स्थापन ।
भावार्थ
भा०- ( देव-व्यचस्तमः ) विद्वानों में विविधविद्याओं में सब से अधिक गति वाला, (यज्ञः ) सत्संगति करने योग्य पुरुष ( आनुषग् ) निरन्तर ( प्र एतु ) आगे उत्तम पद पर आवे और हे विद्वान् जनो ! आप लोग (आसदे) उसके विराजने के लिये ( बर्हिः ) वृद्धियुक्त श्रेष्ठ आसन ( स्तृणीत ) बिछाओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसूयव अत्रिया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १, ९ गायत्री | २, ३, ४,५,६,८ निचृद्गायत्री । ७ विराङ्गायत्री ॥ षडजः स्वरः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञ-दिव्यगुण-प्रभुप्राप्ति
पदार्थ
१. (यज्ञ:) ='देवपूजा-संगतिकरण व दान' रूप यज्ञ हमें (आनुषक्) = निरन्तर (प्र एतु) = प्रकर्षेण प्राप्त हो । यह यज्ञ (अद्य) = आज हमारे लिए (देवव्यचस्तमः) = दिव्यगुणों के अधिक-से-अधिक विस्तार को करनेवाला हो । २. हे यज्ञशील पुरुषो! तुम (आसदे) = प्रभु को बिठाने के लिए (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय को (स्तृणीत) = आच्छादित करो-बिछाओ। इस वासनाशून्य हृदयासन पर ही प्रभु विराजमान होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- यज्ञों से दिव्यगुणों का विस्तार होता है। दिव्यगुणोंवाले-निर्वासनं हृदयों में प्रभु आसीन होते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सत्संगतीने शिल्पोन्नती करतात ती सर्वांची हितैषी असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the yajna, creative and fragrant activity of mankind and nature, spread around in due order and reach the bounds of divinities pervasive unto the ends of the expansive universe. Come ye devout performers, spread the holy grass for the yajnas and expansion of the fire and fragrance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons (artists) are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! stick to that Yajna (truthful and reasonable unifying dealing) which exceedingly pervades the divine objects and today (immediately) reaches firmament for stay or moving suitably.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons are well-wishers of all, only where. they associate themselves with good men, make progress in technology or art.
Foot Notes
(यज्ञ:) सत्यः सङ्गतो व्यवहारः । यज-देवपूज संगति करणदानेषु (भ्वा) अत्र सङ्गतिकरणार्थं ग्रहणं कृत्वा व्याख्यानम् । = Truthful. reasonable and unifying dealing. (बर्हि:) अन्तरिक्षम् । वि + अंचु गति पूजनयोः । गते स्त्रयोsर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहण व्याप्ति पर्यायरूपेण बर्हि अन्तरिक्षनाम (NG 1, 3 ) । = Firmament. (देवम्यचस्तमः ) यो देवेषु । पदार्थेषु अतिशयेन व्याप्तः। = Pervading in the divine or useful objects exceedingly.
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