ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
न्य१॒॑ग्निं जा॒तवे॑दसं होत्र॒वाहं॒ यवि॑ष्ठ्यम्। दधा॑ता दे॒वमृ॒त्विज॑म् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठनि । अ॒ग्निम् । जा॒तऽवे॑दसम् । हो॒त्र॒ऽवाहम् । यवि॑ष्ठ्यम् । दधा॑त । दे॒वम् । ऋ॒त्विज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्य१ग्निं जातवेदसं होत्रवाहं यविष्ठ्यम्। दधाता देवमृत्विजम् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठनि। अग्निम्। जातऽवेदसम्। होत्रऽवाहम्। यविष्ठ्यम्। दधात। देवम्। ऋत्विजम् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निधारणविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यविष्ठ्यमृत्विजं देवमिव जातवेदसं होत्रवाहमग्निं नि दधाता ॥७॥
पदार्थः
(नि) (अग्निम्) पावकम् (जातवेदसम्) जातेषु विद्यमानम् (होत्रवाहम्) यो होत्राणि हुतानि द्रव्याणि वहति (यविष्ठ्यम्) योऽतिशयितेषु युवसु भवम् (दधाता) धरत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवम्) दिव्यगुणम् (ऋत्विजम्) यज्ञसाधकम् ॥७॥
भावार्थः
यथा शिल्पिनः स्वकार्य्यं साध्नुवन्ति तथैवाग्न्यादयोऽपि कार्य्यसिद्धिं कुर्वन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अग्निधारणविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग (यविष्ठ्यम्) अतिशयित युवा जनों में प्रसिद्ध हुए (ऋत्विजम्) यज्ञसाधक और (देवम्) दिव्य गुणवाले के सदृश (जातवेदसम्) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान (होत्रवाहम्) हवन की हुई वस्तुओं को धारण करनेवाले (अग्निम्) अग्नि को (नि, दधाता) निरन्तर धारण करो ॥७॥
भावार्थ
जैसे शिल्पविद्या के जाननेवाले जन अपने कार्य्य को सिद्ध करते हैं, वैसे ही अग्नि आदि भी कार्य की सिद्धि करते हैं ॥७॥
विषय
ज्ञानवान् गुरु के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्युत् का वर्णन । उत्तम पुरुष का उच्च पद पर स्थापन ।
भावार्थ
भा०-हे विद्वान् लोगो ! आप लोग, ( जात-वेदसम् ) ऐश्वर्य के स्वामी, प्रत्येक पदार्थ के ज्ञाता, ( होत्र-वाहं ) उत्तम वाणी और आदर से दानयोग्य पदार्थो को धारण करने वाले ( यविष्ठयम् ) सब युवा पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ (ऋत्विजम् ) ऋतु में वा प्रत्येक राजकीय सभ्य से संगति करने हारे (देवम् ) तेजस्वी ( अग्निम् ) अग्रणी पुरुष को ( नि दधात ) उच्च पद पर स्थापित करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसूयव अत्रिया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १, ९ गायत्री | २, ३, ४,५,६,८ निचृद्गायत्री । ७ विराङ्गायत्री ॥ षडजः स्वरः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु का धारण
पदार्थ
१. (अग्निम्) = उस अग्रगति के साधक (जातवेदसम्) = ज्ञान को हमारे में प्रादुर्भूत करनेवाले [जातः वेदः यस्मात्] (होत्रवाहम्) = हमारे सब यज्ञों का वहन करनेवाले, (यविष्ठ्यम्) = हमारे से बुराइयों को अधिक-से-अधिक दूर करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले प्रभु को (नि दधात) = अपने हृदयमन्दिरों में स्थापित करो। २. उस प्रभु को हृदय में आसीन करो जो कि (देवम्) = प्रकाशमय हैं तथा (ऋत्विजम्) = ऋतु-ऋतु में— समय-समय पर अर्थात् सदा यजनीय [उपासनीय] हैं। यह प्रभु का उपासन ही हमारे जीवनों को उत्तम बनाता है। आसीन करें। ये हमारे जीवनों को प्रगतिवाला
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु को अपने हृदयों में ज्ञानयुक्त-यज्ञमय बनाएँगे।
मराठी (1)
भावार्थ
जसे शिल्पीजन (कारागीर) स्वतःचे कार्य करतात तसाच अग्नी इत्यादीही कार्यसिद्धी करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Hold on to Agni, light and fire of life, pervasive in all things in existence, bearer of yajna fragrance, most youthful energy, and divine yajaka of nature and humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Upholding of Agni is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! uphold or methodically utilize Agni (energy or electricity) which exists in many objects and is conveyor of the oblations to distant places. Like the performer of the Yajna you are well-known among the young and are endowed with the divine virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The artists accomplish their works, and so do the energy and electricity, etc. and accomplish many purposes.
Foot Notes
(ऋत्विजम् ) यज्ञसाधकम् । = Performer or conductor of Yajna, a priest. (होत्र वाहम् ) यो होत्राणि हृतानि द्रव्याणि वहति । (वह प्रापणे) । = The fire or energy takes oblations to distant places.
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