ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 14
मा॒तुष्प॒दे प॑र॒मे शु॒क्र आ॒योर्वि॑प॒न्यवो॑ रास्पि॒रासो॑ अग्मन्। सु॒शेव्यं॒ नम॑सा रा॒तह॑व्याः॒ शिशुं॑ मृजन्त्या॒यवो॒ न वा॒से ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठमा॒तुः । प॒दे । प॒र॒मे । शु॒क्रे । आ॒योः । वि॒प॒न्यवः॑ । रा॒स्पि॒रासः॑ । अ॒ग्म॒न् । सु॒ऽशेव्य॑म् । नम॑सा । रा॒तऽह॑व्याः । शिशु॑म् । मृ॒ज॒न्ति॒ । आ॒यवः॑ । न । वा॒से ॥
स्वर रहित मन्त्र
मातुष्पदे परमे शुक्र आयोर्विपन्यवो रास्पिरासो अग्मन्। सुशेव्यं नमसा रातहव्याः शिशुं मृजन्त्यायवो न वासे ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठमातुः। पदे। परमे। शुक्रे। आयोः। विपन्यवः। रास्पिरासः। अग्मन्। सुऽशेव्यम्। नमसा। रातऽहव्याः। शिशुम्। मृजन्ति। आयवः। न। वासे ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये शुक्रे परमे मातुष्पद आयोर्विपन्यवो रास्पिरासो रातहव्या नमसा वास आयवः शिशुं मृजन्ति न सुशेव्यमग्मन् ते सुशेव्या जायन्ते ॥१४॥
पदार्थः
(मातुः) जननीव वर्त्तमानाया भूमेः (पदे) प्रापणीये (परमे) उत्कृष्टे (शुक्रे) शुद्धे (आयोः) जीवनस्य (विपन्यवः) विशेषेण स्तावकाः (रास्पिरासः) ये रा दानानि स्पृणन्ति ते (अग्मन्) गच्छन्ति (सुशेव्यम्) सुष्ठु सुखेषु भवम् (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (रातहव्याः) दत्तदातव्याः (शिशुम्) शासनीयं बालकम् (मृजन्ति) शोधयन्ति (आयवः) मनुष्याः (न) इव (वासे) ॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा माता सद्योजातं बालकं संशोध्य सुवासे रक्षति तथैव ये योगाभ्यासे चित्तं शोधयन्ति ते सैश्वर्य्यं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (शुक्रे) शुद्ध (परमे) उत्तम (मातुः) माता के सदृश वर्त्तमान भूमि के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (आयोः) जीवन के (विपन्यवः) विशेषतया स्तुति करने और और (रास्पिरासः) दोनों की प्रीति करनेवाले (रातहव्याः) दिये हुओं के देने योग्य (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (वासे) वसने में (आयवः) मनुष्य (शिशुम्) शासन करने योग्य बालक को (मृजन्ति) शुद्ध करते हैं (न) जैसे वैसे (सुशेव्यम्) उत्तम सुखों में हुए व्यवहार को (अग्मन्) प्राप्त होते हैं, वे उत्तम प्रकार सुखों से युक्त होते हैं ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता शीघ्र उत्पन्न हुए बालक को उत्तम प्रकार शुद्ध करके उत्तम स्थान में रक्षा करती है, वैसे ही जो योगाभ्यास में चित्त को शुद्ध करते हैं, वे ऐश्वर्य्य के सहित सुख को प्राप्त होते हैं ॥१४॥
विषय
जलवत् राजा का अभिषेक संस्कार ।
भावार्थ
भा०- ( विपन्यवः) विविध विद्याओं का उपदेश करने वाले गुरु विद्वान् और व्यवहार कुशल और ( रास्पिरासः ) धनैश्वर्य को पूर्ण करने चाले वैश्यजन ( नमसा ) आदर विनय से और राजा के नवाने वाले प्रबल तेज से बाधित होकर ( रातहव्याः ) ज्ञान और धन आदि देकर ( सुशेव्यम् ) सुख से सेवने योग्य, सुखप्रद, प्रधान पुरुष को ( वासे) वसने योग्य राष्ट्र में ( वासे आयवः शिशुं न ) घर में ज्ञानी लोग जिस प्रकार बालक को स्वच्छ रखकर सजाते और स्वच्छ रखते हैं उसी प्रकार ( आयवः ) सभी मनुष्य ( शिशुं ) उस प्रशंसनीय एवं शासनकुशल पुरुष को (मृजन्ति ) अभिषेक करावें । और ( मातुः परमे पदे ) माता के सर्वोच्च पद गृह में जिसमें विद्यमान बालक को देखने, आशीर्वाद आदि देने जिस प्रकार लोग घर पर आते हैं । उसी प्रकार ( मातुः परमे पदे ) माता, पिता के सदृश, सर्वोत्कृष्ट परम पद पर स्थित अथवा माता, पृथिवी के परम सर्वोच्च पद राज सिंहासन पर स्थित ( शुक्रे ) अति तेजस्वी, शुद्ध वेश वा कर्त्तव्य में विराजने वाले ( आयोः ) दीर्घायु पुरुष को ( आ अग्मन् ) प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विपन्यवःरास्पिरासः
पदार्थ
[१] (आयोः) = गतिशील पुरुष के (मातु:) = निर्माण करनेवाले प्रभु के (परमे) = सर्वोत्कृष्ट (शुक्रे) = निर्मल शुद्ध (पदे) = स्थान में (विषन्यवः) = स्तुति करनेवाले व (रास्पिरासः) = [ रा = धन, स्पृ=give] धनों का दान करनेवाले लोग (अग्मन्) = जाते हैं । निर्माता प्रभु हैं, प्रभु उसी के जीवन का निर्माण करते हैं जो स्वयं भी गतिशील हो। इस प्रभु के सर्वोत्कृष्ट पद को दान देनेवाले स्तोता लोग ही प्राप्त करते हैं । [२] (नमसा) = नमन के साथ रात (हव्याः) = हव्य पदार्थों का दान करनेवाले लोग (सुशेव्यम्) = उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाले (शिशुम्) = हमारी बुद्धियों को सूक्ष्म बनानेवाले प्रभु का (मृजन्ति) = शोधन करते हैं, हृदयस्थ प्रभु को हृदय में आ जानेवाले राग-द्वेष के मल को हटाकर देखने का प्रयत्न करते हैं। यही प्रभु का शोधन है। इसी प्रकार प्रभु का परिमार्जन करते हैं (न) = जैसे कि (आयवः) = गतिशील मनुष्य (वासे) = गृह में (शिशुम्) = बच्चे को । मणि के ऊपर आवरण आ जाने से हम मणि को नहीं देख पाते, हृदय पर राग-द्वेष का परदा पड़ जाने से हम हृदयस्थ प्रभु को नहीं देख पाते। जिस प्रकार माता-पिता प्रेम से बच्चे के शरीर को परिमार्जित करते हैं, उसी प्रकार हम प्रभु के शरीरभूत इस हृदय को पवित्र करें। इसके पवित्र होने पर ही प्रभु का दर्शन होगा।
भावार्थ
भावार्थ- दानशील स्तोता लोग ही प्रभु के परम पद पर पहुँचते हैं, प्रभु दर्शन के लिये बड़ी प्रीति से हृदय का शोधन करना आवश्यक है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माता जन्मलेल्या बालकाला शुद्ध करून उत्तम स्थानी ठेवून त्याचे रक्षण करते. तसेच जे योगाभ्यासाने चित्त शुद्ध करतात ते ऐश्वर्य प्राप्त करून सुख मिळवितात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
On the sacred and excellent vedi on the floor of mother earth, lovers and admirers of life come in pursuit of the joy of living, bearing holy offers for the sacred fire. And just as they cleanse the new born baby and welcome it in new life, so they feed, serve and develop the holy fire with love and offers of food and fragrance like a living divinity on earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of an enlightened person's duties and nature is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the persons become worthy to enjoy happiness, who perform acts leading to happiness, live in the good and hygienic place of the mother earth being admirers of good life, love giving in charity and are themselves liberal donors. They purify others with honor as well as with good food, as they purify a small new born child and put him in dress.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile in the mantra. As a mother cleanses her infant child and covers it with good clothes, in the same manner, those who purify their mind by the practice of Yoga, enjoy happiness with wealth.
Foot Notes
(पदे) प्रापणीये । = In a place to be achieved. (शुक्रे) शुद्धे। शुचिर-पूतिभावे (दिवा० ) पद गतौ । गतेस्त्रिष्वर्थेष्व प्राप्त्यर्थ-ग्रहणम् । = Pure (रास्थिरासः) ये रा दानानि स्पृशन्ति ते । रा-दाने (अदा० ) । स्पू-प्रीतिसेवनयोः (स्वा० ) । = Those who love to give.
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