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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ म॒हीम॒रम॑तिं स॒जोषा॒ ग्नां दे॒वीं नम॑सा रा॒तह॑व्याम्। मधो॒र्मदा॑य बृह॒तीमृ॑त॒ज्ञामाग्ने॑ वह प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । म॒हीम् । अ॒रम॑तिम् । स॒ऽजोषाः॑ । ग्नाम् । दे॒वीम् । नम॑सा । रा॒तऽह॑व्याम् । मधोः॑ । मदा॑य । बृ॒ह॒तीम् । ऋ॒त॒ऽज्ञाम् । आ । अ॒ग्ने॒ । व॒ह॒ । प॒थिऽभिः॑ । दे॒व॒ऽयानैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो महीमरमतिं सजोषा ग्नां देवीं नमसा रातहव्याम्। मधोर्मदाय बृहतीमृतज्ञामाग्ने वह पथिभिर्देवयानैः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। महीम्। अरमतिम्। सऽजोषाः। ग्नाम्। देवीम्। नमसा। रातऽहव्याम्। मधोः। मदाय। बृहतीम्। ऋतऽज्ञाम्। आ। अग्ने। वह। पथिऽभिः। देवऽयानैः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! आ सजोषास्त्वं नमसा पथिभिर्देवयानैर्मधोर्मदाय नोऽरमतिं रातहव्यां ग्नामृतज्ञां बृहतीं देवीं महीं न आ वह ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) (नः) अस्मान् (महीम्) महतीं वाचम् (अरमतिम्) विषयेष्वरममाणाम् (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (ग्नाम्) गच्छन्ति ज्ञानं यया ताम् (देवीम्) देदीप्यमानां कमनीयाम् (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (रातहव्याम्) रातानि हव्यानि दातव्यानि दानानि यया ताम् (मधोः) मधुरादिगुणयुक्तात् (मदाय) आनन्दाय (बृहतीम्) बृहत्पदार्थविषयाम् (ऋतज्ञाम्) ऋतं सत्यं जानाति यया ताम् (आ) (अग्ने) विद्वन् (वह) प्रापय (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) देवा आप्ता विद्वांसो गच्छन्ति येषु तैः ॥६॥

    भावार्थः

    त एव विद्वांसो जायन्ते ये सर्वथा सर्वदा विद्यां याचन्ते त एव विद्वांसो ये धर्म्यात् पथो विरुद्धं किमप्याचरणं न कुर्वन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! (आ) सब ओर से (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले आप (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (देवयानैः) यथार्थवक्ता विद्वान् चलते हैं जिनसे उन (पथिभिः) मार्गों से (मधोः) मधुर आदि गुण युक्त से (मदाय) आनन्द के लिये (नः) हम लोगों को (अरमतिम्) विषयों में नहीं रमण करती हुई (रातहव्याम्) देने योग्य दान जिससे (ग्नाम्) प्राप्त होते हैं ज्ञान को जिससे तथा (ऋतज्ञाम्) सत्य को जानता है जिससे उस (बृहतीम्) बड़े पदार्थों के विषय से युक्त (देवीम्) देदीप्यमान मनोहर (महीम्) बड़ी वाणी को हम लोगों के लिये (आ, वह) प्राप्त कराइये ॥६॥

    भावार्थ

    वे ही विद्वान् होते हैं जो सब प्रकार से सब काल में विद्या की याचना करते हैं और वे ही विद्वान् हैं, जो धर्मयुक्त मार्ग से विरुद्ध कुछ भी आचरण नहीं करते हैं ॥६॥

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    विषय

    अन्नवत् ज्ञानोपार्जन ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) अग्रणी, ज्ञानवन् ! विद्वन् ! (ग्नां देवीं) गमन योग्य उत्तम स्त्री के तुल्य ही (नः) हमारी, ( महीं ) आदरणीय (अरमतिम् ) अति आनन्ददायक, अति ज्ञानयुक्त, विषयों में न रमण करने वाली ( ग्नां ) ज्ञान को प्राप्त करने वाली, ( नमसा ) आप, विनयपूर्वक ( रातहव्याम् ) दान योग्य अन्न आदि प्रदान करने वाली ( बृहतीं ) बड़ी, (ऋतज्ञाम् ) सत्य ज्ञान बतलाने वाली, वाणी को तू ( सजोषाः ) समान प्रीति युक्त होकर ( मधोः मदाय ) अन्नवत् वेदमय ज्ञान से तृप्त होने के लिये ( देवयानैः पथिभिः ) विद्वानों से गमन करने योग्य मार्गों से ( आवह ) प्राप्त कर । और उसी प्रकार अन्यों को भी प्राप्त करा । इसी प्रकार अग्रणी राजा ( ग्नां ) प्रयाण करने वाली विजयेच्छुक सेना को सर्व साधन सम्पन्न कर, बड़ी सेना को राजोचित प्रयाण मार्गों से ऐश्वर्य से तृप्त होने के लिये आगे बढ़ावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    निरन्तर स्वाध्याय द्वारा सोमरक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! आप (सजोषाः) = प्रीतिपूर्वक उपासित हुए- हुए (नः) = हमारे लिये (देवीं ग्राम्) = [ना=वाक् नि० १ । ११] इस प्रकाशमयी वेदवाणी को (देवयानैः पथिभिः) = देवताओं से चलने योग्य मार्गों के हेतु से (आवह) = प्राप्त कराइये । इस वेदवाणी को प्राप्त करके हम शुभ मार्गों पर ही चलनेवाले बनेंगे। इसके 'छन्द' हमारा छादन करते हैं और हमें अशुभ वासनाओं के आक्रमण से बचाते हैं। आप उस वेदवाणी को हमें प्राप्त कराइये जो (महीम्) = अत्यन्त महनीय है, जीवन को महत्त्वपूर्ण बनाती है । (अ-रमतिम्) = विषयों में रण से हमें दूर करती है। (नमसा रातहव्याम्) = प्रभु के प्रति नमन के साथ सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाली है, हमें यह प्रभु के प्रति झुकाववाला बनाती है और सब यज्ञिय पदार्थों को, पवित्र पदार्थों को प्राप्त कराती है। [२] हे प्रभो ! (मधोः मदाय) = सोम के उल्लास के लिये, सोमरक्षण से प्राप्त होनेवाले आनन्द के लिये, आप हमें इस वेदवाणी को प्राप्त कराइये । जो (बृहतीम्) = सदा हमारी वृद्धि की कारणभूत है [बृहि वृद्धौ] तथा (ऋतज्ञाम्) = ऋत को जाननेवाली है, अर्थात् जिसके होने पर अनृत रहता ही नहीं, जो अनृत को तो जानती ही नहीं। इस वेदवाणी से ऋतमय जीवनवाले बनकर ही हम, हे अग्रे ! आपको प्राप्त कर पायेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम निरन्तर स्वाध्याय की वृत्ति को अपनाएँ। यह ज्ञान प्राप्ति हमें देवयान मार्ग से चलने के लिये प्रेरित करेगी और सोमरक्षण करते हुए हम जीवन को उल्लासमय बना पायेंगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्व प्रकारे सर्वकाळी विद्येची याचना करतात तेच विद्वान असतात व जे धर्ममार्गाच्या विरुद्ध आचरण करीत नाहीत तेच विद्वान असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, O light of knowledge, scholar scientist, loving and cooperative, lead us on to that great, continuous but unaddicted knowledge of divine value with your humility and yajnic inputs, knowledge which is highly creative and productive for honey sweet delights and celebration of mankind, which is vastly revealing of mother nature’s truths and worthy of further pursuit by the progressive paths of divinities and nobilities among humanity.

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