Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 43 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ञ्जन्ति॒ यं प्र॒थय॑न्तो॒ न विप्रा॑ व॒पाव॑न्तं॒ नाग्निना॒ तप॑न्तः। पि॒तुर्न पु॒त्र उ॒पसि॒ प्रेष्ठ॒ आ घ॒र्मो अ॒ग्निमृ॒तय॑न्नसादि ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ञ्जन्ति॑ । यम् । प्र॒थय॑न्तः । न । विप्राः॑ । व॒पाऽव॑न्तम् । न । अ॒ग्निना॑ । तप॑न्तः । पि॒तुः । न । पु॒त्रः । उ॒पसि॑ । प्रेष्ठः॑ । आ । घ॒र्मः । अ॒ग्निम् । ऋ॒तय॑न् । अ॒सा॒दि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अञ्जन्ति यं प्रथयन्तो न विप्रा वपावन्तं नाग्निना तपन्तः। पितुर्न पुत्र उपसि प्रेष्ठ आ घर्मो अग्निमृतयन्नसादि ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अञ्जन्ति। यम्। प्रथयन्तः। न। विप्राः। वपाऽवन्तम्। न। अग्निना। तपन्तः। पितुः। न। पुत्रः। उपसि। प्रेष्ठः। आ। घर्मः। अग्निम्। ऋतयन्। असादि ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्यार्थिन् ! यं वपावन्तं न त्वामग्निना तपन्तो वपावन्तं न प्रथयन्तो विप्रा नाऽग्निना तपन्तोऽञ्जन्ति यः पितुः पुत्रो नोपसि प्रेष्ठो घर्मोऽग्निमृतयन्नासादि ताँस्तञ्च त्वं सततं सेवित्वा विद्यामुपादत्स्व ॥७॥

    पदार्थः

    (अञ्जन्ति) कामयन्ते प्रकटयन्ति वा (यम्) (प्रथयन्तः) प्रख्यापयन्तः (न) इव (विप्राः) मेधाविनः (वपावन्तम्) विद्याबीजं विस्तरन्तम् (न) इव (अग्निना) पावकेनेव ब्रह्मचर्य्येण (तपन्तः) सन्तापदुःखं सहमानाः (पितुः) जनकस्य (न) इव (पुत्रः) (उपसि) समीपे (प्रेष्ठः) अतिशयेन प्रियः (आ) समन्तात् (घर्मः) यज्ञस्तापो वा (अग्निम्) (ऋतयन्) सत्यमिवाचरन् (असादि) सीदेत् ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे अध्यापकविद्वांसो यूयं ये जितेन्द्रिया आप्तस्वभावाः शीतोष्णसुख- दुःखहर्षशोकनिन्दास्तुत्यादिद्वन्द्वं सोढारो निरभिमानिनो निर्म्मोहाः सत्याचरणपरोपकारप्रिया ब्रह्मचारिणो विद्यार्थिनः स्युस्तान् पुरुषार्थेन विदुषः कुरुत ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्यार्थिन् ! (यम्) जिस (वपावन्तम्) विद्या के बीज के विस्तार को करते हुए के (न) सदृश आप को (अग्निना) अग्नि के सदृश ब्रह्मचर्य्य से (तपन्तः) संताप दुःख को सहते और विद्या के बीज का विस्तार करते हुए के (न) सदृश (प्रथयन्तः) प्रसिद्ध करते हुए (विप्राः) बुद्धिमान जनों के (न) सदृश अग्नि के समान ब्रह्मचर्य्य से सन्ताप दुःख को सहते हुए (अञ्जन्ति) कामना करते वा प्रकट करते हैं और जो (पितुः) पिता के (पुत्रः) पुत्र के सदृश (उपसि) समीप में (प्रेष्ठः) अत्यन्त प्रिय (घर्मः) यज्ञ वा तप (अग्निम्) अग्नि को (ऋतयन्) सत्य के सदृश आचरण करते हुए (आ, असादि) उत्तम प्रकार स्थित होवे, उनको और उसको आप निरन्तर सेवन करके विद्या को ग्रहण करिये ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे अध्यापक विद्वानो ! तुम लोग जो जितेन्द्रिय उत्तम स्वभावयुक्त शीत-उष्ण, सुख-दुःख, आनन्द, शोक, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्व को सहनेवाले अभिमान और मोह से रहित सत्य आचरणकर्त्ता और परोपकारप्रिय ब्रह्मचारी विद्यार्थी होवें, उनको पुरुषार्थ से विद्वान् करिये ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    किरणोंवत् और गुरुओं का शिष्यों को तप करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार किरण गण ( वपावन्तं सूर्य अञ्जन्ति ) वीजोत्पादक शक्ति से युक्त सूर्य को प्रकट कर और ( अग्निना तपन्तः ) अग्नि द्वारा तपाते हैं (न) उसी प्रकार ( विप्राः ) विद्वान् बुद्धिमान् पुरुष (यं) जिस ( वपावन्तं ) अज्ञानवत् शत्रु का नाश करने की शक्ति और सन्तानपरम्परा, या पुत्रवत् प्रजा और उत्तम सेना पैदा करने की आर्थिक शक्ति से युक्त पुरुष को ( प्रथयन्तः ) प्रसिद्ध करते हुए, ( अञ्जन्ति ) खूब प्रकाशित करते हैं । और जिसको उत्तम पात्र के तुल्य दृढ़ करने के लिये ( अग्निना तपन्तः ) अग्निवत् तेजस्वी नायक पुरुष या पद द्वारा तपाते, दृढ़ करते, और अधिक तेजस्वी बनाते हुए ( अञ्जन्ति ) और अधिक प्रकाशित करते हैं वह ( धर्मः ) दीप्तिमान् सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष (पितुः उपसि पुत्रः न प्रेष्ठः ) पिता के समीप पुत्र के तुल्य अतिप्रिय होकर ( अग्निम् ऋतयन् ) अग्रणी नायक पद को सत्य न्याय द्वारा प्राप्त करता हुआ ( आ असादि ) आगे बढ़ता है । ( २ ) लोक में ( वपावन्तं ) सन्तानोत्पादक शक्ति से युक्त पुरुष को अग्नि से तपाते, यज्ञ कराते वा आचार्याधीन ब्रह्मचर्य पालन कराते हैं। वह पिता के पुत्रवत् अति प्रिय होकर अग्नि की यज्ञ में स्थापना करता है । अर्थात् विवाहित होकर बसता है । विद्वान् गण उसको आंजते, समावर्त्तनादि द्वारा सुसज्जित करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु प्राप्ति के साधन

    पदार्थ

    [१] (वपावन्तं न) = शक्ति व ज्ञान के बीज को हमारे में बोनेवाले के समान (यम्) = जिस प्रभु को (न) = अब [अस्युपमार्धस्य संप्रत्यर्थे प्रयोग: सा० ] (प्रथयन्तः) = अपनी शक्तियों का विस्तार करते हुए, (विप्राः) = अपना पूरण करनेवाले, न्यूनताओं को दूर करनेवाले, (अग्निना तपन्तः) = ज्ञानाग्नि से अपने को दीप्त करते हुए लोग (अञ्जन्ति) = प्राप्त होते हैं। प्रभु प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम [क] अपनी शक्तियों का विस्तार करें, [ख] अपने पूरण में प्रवृत्त हों, [ग] ज्ञानाग्नि से अपने को दीप्त करें। [२] (न) = जैसे (पितुः) = पिता का (प्रेष्ठः) = प्रियतम (पुत्रः) = पुत्र (उपसि) = उसकी गोद में स्थित होता है, उसी प्रकार उस परम पिता की उपासना में स्थित हुआ हुआ (घर्म:) = सोम के रक्षण के द्वारा शक्ति का पुञ्ज बना हुआ, ऋतयन् यज्ञों की ही कामना करता हुआ पुरुष अग्निम् - उस अग्रणी प्रभु को आ असादि-सब प्रकार से अपने हृदयासन पर आसीन करता है। प्रभु की प्राप्ति के लिये हम [क] उपासनामय जीवनवाले हों, [ख] सोमरक्षण द्वारा शक्ति के पुञ्ज बनें, [ग] यज्ञों की सदा कामनावाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति का मार्ग है, [क] शक्तियों का विस्तार करना, [ख] अपनी न्यूनताओं को दूर करना, [ग] ज्ञानाग्नि से अपने को दीप्त करना, [घ] उपासना, [ङ] सोमरक्षण, [च] यज्ञों में प्रवृत्त रहना ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे अध्यापक विद्वानांनो! जे जितेंद्रिय, उत्तम स्वभावाचे, शीत, उष्ण, सुख, दुःख, शोक, निंदा, स्तुती इत्यादी द्वंद्व सहन करणारे, अभिमान व मोहापासून अलिप्त, सत्याचरणी, परोपकारी, ब्रह्मचारी विद्यार्थी असतील तर त्यांना पुरुषार्थाने विद्वान करा. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like a darling child in the lap of father, like the fire of yajna in the vedi, the disciple in pursuit of the light of knowledge and fire of life is seated in school close to the teachers like a seedling growing to fullness, whom sagely scholars, purifying, seasoning and tempering like steel and gold by the heat of fire, strengthen and prepare for a full yajnic life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of enlightened persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O seeker after knowledge ! you should acquire knowledge by serving well those persons who desire or manifest you (and others), who spread the seed of knowledge among the wisemen because they put up with all sufferings with Brahmacharya which is purifier like fire. The Yajna is like the dearest child in the lap of the father, and it establishes a leader truthfully, therefore serve it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile in the mantra. O highly learned teachers! make the Brahmacharis great scholars who are self. controlled, absolutely truthful, endowed with the power of putting up with all kinds of the hardships like heat and cold, pleasure and pain, praise and censure etc. free from pride and attachment and lovers of truthful conduct and benevolence.

    Foot Notes

    (अंजन्ति ) कामयन्ते प्रकटयन्ति वा । अंजू-व्यक्तिप्रक्षण कान्तिगतिषु (रुधा० ) कान्तिः कामना व्यक्तिः प्रकटीकरणम् । = Desire or manifest. (अग्निना) पावके नैव ब्रह्मचर्येण । = By the observance of Brahmacharya which is purifier like fire. (धर्मः) यज्ञस्तापो वा । धर्मं इति यज्ञनाम (NG 3, 17)। = Yajna or heat. Here the former meaning is applicable. (उपसि) समीपे । उपसि इति पदनाम (NG 4, 3) पद-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्रारुपर्थमादाय समीपप्राप्तिः स्थितिर्णात्र गृह्यते । = Near, in the lap of.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top