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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अच्छा॑ म॒ही बृ॑ह॒ती शंत॑मा॒ गीर्दू॒तो न ग॑न्त्व॒श्विना॑ हु॒वध्यै॑। म॒यो॒भुवा॑ स॒रथा या॑तम॒र्वाग्ग॒न्तं नि॒धिं धुर॑मा॒णिर्न नाभि॑म् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । म॒ही । बृ॒ह॒ती । शम्ऽत॑मा । गीः । दू॒तः । न । ग॒न्तु॒ । अ॒श्विना॑ । हु॒वध्यै॑ । म॒यः॒ऽभुवा॑ । स॒रथा॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । ग॒न्तम् । नि॒ऽधिम् । धुर॑म् । आ॒णिः । न । नाभि॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा मही बृहती शंतमा गीर्दूतो न गन्त्वश्विना हुवध्यै। मयोभुवा सरथा यातमर्वाग्गन्तं निधिं धुरमाणिर्न नाभिम् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ। मही। बृहती। शम्ऽतमा। गीः। दूतः। न। गन्तु। अश्विना। हुवध्यै। मयःऽभुवा। सऽरथा। आ। यातम्। अर्वाक्। गन्तम्। निऽधिम्। धुरम्। आणिः। न। नाभिम् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! या बृहती शन्तमा मही गीर्मयोभुवा सरथाऽश्विना हुवध्यै दूतो न गन्तु ययाऽश्विना नाभिं धुरमाणिर्नार्वाग्गन्तं निधिमच्छाऽऽयातं तां यूयं प्राप्नुत ॥८॥

    पदार्थः

    (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (मही) महती (बृहती) बृहद्ब्रह्मादिवस्तुप्रकाशिका (शन्तमा) अतिशयेन कल्याणकारिणी (गीः) गायन्ति पदार्थान् यया सा (दूतः) धार्म्मिको विद्वान् दक्षो राजदूतः (न) इव (गन्तु) प्राप्नोतु (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (हुवध्यै) आह्वातुम् (मयोभुवा) सुखं भावुकौ (सरथा) रथादिभिः सह वर्त्तमानौ (आ) (यातम्) गच्छतम् (अर्वाक्) सत्यधर्ममनु (गन्तम्) गच्छन्तम् (निधिम्) (धुरम्) यानाधारकाष्ठम् (आणिः) कीलकम् (न) इव (नाभिम्) मध्यम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । त एव मनुष्या यान् राजानं दूत इव सर्वशास्त्रप्रवीणा वाक् प्राप्नुयात् त एव भाग्यवन्तो यान् धर्म्येण पुरुषार्थेनातुलमैश्वर्य्यमीयात् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (बृहती) बड़े ब्रह्म आदि वस्तु को प्रकाश करनेवाली और (शन्तमा) अत्यन्त कल्याणकारिणी (मही) बड़ी (गीः) गाते हैं पदार्थों को जिससे ऐसी वाणी और (मयोभुवा) सुख को उत्पन्न करनेवाले (सरथा) वाहन आदिकों के साथ वर्त्तमान (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनों को (हुवध्यै) बुलाने को जैसे (दूतः) धार्म्मिक विद्वान् चतुर राजा का दूत (न) वैसे (गन्तु) प्राप्त हूजिये तथा जिससे अध्यापक और उपदेशक जन (नाभिम्) मध्य (धुरम्) वाहन के आधार काष्ठ को (आणिः) कीले के (न) सदृश और (अर्वाक्) सत्य धर्म्म के पीछे (गन्तम्) चलते हुए (निधिम्) द्रव्यपात्र को (अच्छा) उत्तम प्रकार (आ, यातम्) प्राप्त हूजिये, उसको आप लोग प्राप्त होओ ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । वे ही मनुष्य हैं जिनको जैसे राजा को दूत वैसे सम्पूर्ण शास्त्रों में प्रवीण वाणी प्राप्त होवे और वे ही भाग्यशाली हैं, जिनको धर्मयुक्त पुरुषार्थ से अतुल ऐश्वर्य्य प्राप्त होवे ॥८॥

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    विषय

    उत्तम शान्तिदायक वाणी का प्रयोग हो । स्त्री पुरुष समान रूप से उन्नति पथ पर बढ़ें ।

    भावार्थ

    भा०- ( दूतः नः) उत्तम संदेशहर दूत के समान ( मही बृहती ) पूज्य, उत्तम वेदमयी ( शन्तमा गीः ) अति शान्तिकरी वाणी ( अश्विना हुवध्यै ) उत्तम स्त्री पुरुषों को ज्ञान देने और परस्पर को बुलाने आदि कार्य के लिये (गन्तु ) प्राप्त हो । वे दोनों विद्वान् स्त्री पुरुष सदा ( सरथा ) एक समान रथ में विराजते हुए रथी सारथि के तुल्य ( मयोभुवा) सुख प्राप्त करते हुए (यातं ) आगे जीवन-पथ पर बढ़ें। (अर्वाग् ) विनीत होकर ( आणिः धुरं नाभिम् न ) कीला जिस प्रकार भार धारक नाभि को प्राप्त होता है उसी प्रकार वे दोनों (निधिम् गन्तम् ) निधि, मूल 'आधार' ऐश्वर्यमय सर्वोत्तम, सर्वाश्रय गृहस्थ आश्रम को प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'शरीर रथ की नाभि के कील-भूत' प्राणापान

    पदार्थ

    [१] (मही) = महनीय, हमारे जीवनों को महत्त्वपूर्ण बनानेवाली, (बृहती) = वृद्धि की कारणभूत, (शन्तमा) = अत्यन्त शान्ति को देनेवाली (गाः) = ज्ञान की वाणी (दूतः न) = दूत के समान (अश्विनौ अच्छा) = प्राणापान के प्रति (हुवध्यै) = पुकारने के लिये (गन्तु) = जाये । 'ज्ञान की वाणी' का 'प्राणापान को पुकारने के लिये जाने' का भाव यह है कि यह वाणी मानो यह कह रही है कि हे प्राणापानो ! तुम्हारी साधना पर ही हमारा जीवन आश्रित है। प्राणसाधना शक्ति की ऊर्ध्वगति को करती है । यह शक्ति ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है। ज्ञानाग्नि की दीप्ति के होने पर ही इस वेदवाणी का प्रकाश होता है। [२] सो वेदवाणी कहती है कि (सरथा) = मेरे साथ एक ही शरीर रथ पर आरूढ़ होनेवाले आप दोनों (मयोभुवा) = सब कल्याण का भावन करनेवाले हो । (अर्वाग् यातम्) = आप दोनों यहाँ शरीर रथ के अन्दर प्राप्त होवो। वहाँ शरीर रथ में प्राप्त होकर (निधिम्) = ज्ञान के कोश को (गन्तम्) = प्राप्त होवो | (न) = जैसे कि (धुरं नाभिम्) = सब शकटभार का वहन करनेवाली (चक्रनाभि) = को (आणिः) = कील प्राप्त होता है। कील के बिना नाभि रथ वहन नहीं कर पाती। इसी प्रकार आपकी साधना के बिना ज्ञाननिधि की प्राप्ति होना सम्भव नहीं। आपके द्वारा ही सोम का रक्षण व ज्ञानाग्नि का दीपन होकर यह ज्ञानानिधि प्राप्त होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से ही यह शरीररथ सुन्दर गतिवाला होता है। यह प्राणसाधना शरीर रथ की धुरा का वहन करनेवाली चक्रनाभि में कील के समान है। इस प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होकर ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजाच्या दूताप्रमाणे ज्यांची वाणी शास्त्रात प्रवीण असते तीच माणसे भाग्यवान असतात व त्यांना धर्मयुक्त पुरुषार्थाने अतुल ऐश्वर्य प्राप्त होते. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the good and great, wide and high, refreshing and beneficent voice of ours like a messenger go to invoke and invite the Ashvins, teachers and preachers, complementary powers of nature, positive and negative currents of energy circuit, and may the Ashvins, kind, peaceable and peace giving come to us straight like the centre pin of the axle and nave of a chariot wheel, and share our treasure wealth of knowledge, power and material well-being.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of the enlightened persons are continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should achieve that great speech which reveals the knowledge of the great subjects like Brahma (Supreme Being). He is the bestower of great welfare and acts like a righteous and highly learned ambassador bringing teachers and preachers in cars, by which you approach the treasure of knowledge like a bolt is essential to the axle of the wagon.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile in the mantra. Those only are true men who attain a speech well-versed in all Shastras, like a messenger presents himself to a king. Those persons only are indeed fortunate who achieve prosperity by the righteous industriousness.

    Foot Notes

    (बृहती ) बृहदब्रह्मादिवस्तु प्रकाशिका | बुहि वृद्धौ (भ्वा० ) । = Revealing the knowledge of great subjects like God etc. (अश्विना ) अध्यापकोपदेशको । (अश्विना) अध्वर्यूं अध्वरं युनक्ति इति अध्वर्युः (NKT 1, 3, 8) स्वाध्यायो वै ब्रह्मयज्ञः ( Stph 11, 5, 6, 2) तस्य योजयितारौ अध्यापकोपदेशावेव संभवतो नेतरे । = Teachers and preachers. (आणि:) कीलकम् । = Nail.

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