ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
सं॒जर्भु॑राण॒स्तरु॑भिः सुते॒गृभं॑ वया॒किनं॑ चि॒त्तग॑र्भासु सु॒स्वरुः॑। धा॒र॒वा॒केष्वृ॑जुगाथ शोभसे॒ वर्ध॑स्व॒ पत्नी॑र॒भि जी॒वो अ॑ध्व॒रे ॥५॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽजर्भु॑राणः । तरु॑ऽभिः । सु॒ते॒ऽगृभ॑म् । व॒या॒किन॑म् । चि॒त्तऽग॑र्भासु । सु॒ऽस्वरुः॑ । धा॒र॒ऽवा॒केषु॑ । ऋ॒जु॒ऽगा॒थ॒ । शो॒भ॒से॒ । वर्ध॑स्व । पत्नीः॑ । अ॒भि । जी॒वः । अ॒ध्व॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
संजर्भुराणस्तरुभिः सुतेगृभं वयाकिनं चित्तगर्भासु सुस्वरुः। धारवाकेष्वृजुगाथ शोभसे वर्धस्व पत्नीरभि जीवो अध्वरे ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽजर्भुराणः। तरुऽभिः। सुतेऽगृभम्। वयाकिनम्। चित्तऽगर्भासु। सुऽस्वरुः। धारऽवाकेषु। ऋजुऽगाथ। शोभसे। वर्धस्व। पत्नीः। अभि। जीवः। अध्वरे ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋजुगाथ ! त्वं तरुभिस्सञ्जर्भुराणो धारवाकेषु चित्तगर्भासु सुतेगृभं वयाकिनं प्रजासु सुस्वरुः सन्नध्वरे शोभसे जीवः सन् पत्नीरिव प्रजा अभि वर्धस्व ॥५॥
पदार्थः
(सञ्जर्भुराणः) सम्यक् पालयन् धरन् (तरुभिः) वृक्षैः (सुतेगृभम्) उत्पन्ने जगति गृहीतम् (वयाकिनम्) व्यापिनम् (चित्तगर्भासु) चित्तं चेतनत्वं गर्भो यासु तासु (सुस्वरुः) सुष्ठूपदेशकः (धारवाकेषु) शास्त्रवागुपदेशकेषु (ऋजुगाथ) य ऋजुं सरलं व्यवहारं गाति स्तौति तत्सम्बुद्धौ (शोभसे) शोभां प्राप्नुयाः (वर्धस्व) (पत्नीः) स्त्रियः (अभि) आभिमुख्ये (जीवः) (अध्वरे) अहिंसायुक्ते व्यवहारे ॥५॥
भावार्थः
ये मनुष्याः स्थावरजङ्गमाभ्यः प्रजाभ्य उपकारं ग्रहीतुं शक्नुयुस्ते सदैवानन्दिता भवेयुः ॥५॥
हिन्दी (2)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋजुगाथ) सरल व्यवहार के स्तुति करनेवाले ! आप (तरुभिः) वृक्षों से (सञ्जर्भुराणः) उत्तम प्रकार पालन और धारण करते हुए (धारवाकेषु) शास्त्रवाणी के उपदेश करनेवालों में और (चित्तगर्भासु) चेतनतारूप गर्भ जिनमें उनके निमित्त (सुतेगृभम्) उत्पन्न जगत् में ग्रहण किये गये (वयाकिनम्) व्यापी को, प्रजाओं में (सुस्वरुः) उत्तम प्रकार उपदेश करनेवाले हुए (अध्वरे) अहिंसायुक्त व्यवहार में (शोभसे) शोभा को प्राप्त हूजिये और (जीवः) जीवते हुए (पत्नीः) स्त्रियों को जैसे वैसे प्रजाओं के (अभि) सन्मुख (वर्धस्व) वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य स्थावर, जङ्गमरूप प्रजाओं से उपकार ग्रहण कर सकें, वे सदा ही आनन्दित होवें ॥५॥
विषय
प्रजा को बढ़ाने का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे (ऋजुगाथ ) ऋजु, सरल, सत्य धर्म का उपदेश करने वाले विद्वान्, धर्म नीति में प्रजा को लेजाने हारे राजन् ! तू ( सु-स्वरुः ) उत्तम तेजस्वी और उत्तम उपदेष्टा होकर ( चित्त-गर्भासु ) प्रेमयुक्त चित्त को ग्रहण करने वाली प्रजाओं के बीच में ( वयाकिनं ) अल्प बल वाले (सुते-गृभम् ) अपने पुत्रवत् ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र में गर्भवत् सावधानी से पालन करने योग्य जन को ( तरुभिः ) वृक्षों के तुल्य स्थिर मूल वाले, शत्रु नाशक वीर पुरुषों से ( संजर्भुराणः ) पालन करता हुआ, तू ( धार-वाकेषु) राष्ट्र धारक उपदेष्टा पुरुषों के बीच ( शोभसे ) शोभा को प्राप्त करता है, तू (अध्वरे ) राष्ट्र को नाश न होने देने के कार्य में सदा ( जीवः ) प्राण स्वरूप होकर ( पत्नीः ) राष्ट्र के पालन करने वाली शक्तियों तथा गृह में स्थित स्त्रियों के तुल्य प्रजाओं को भी ( अभि वर्धस्व ) सब प्रकार से बढ़ा, पालन कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे स्थावर जङ्मरूप प्रजेकडून उपकार ग्रहण करू शकतात, ती सदैव आनंदित होतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Shining and vibrating by flutter of the leaves of trees, proclaiming the presence of the spirit manifested in life forms living and aging in the world of creation, in the caves of the heart, you shine and radiate in the consciousness, O lord of rectitude and paths of naturalness. Grow on, live on, O lord, in the yajna of creation and let the life forms grow on and advance.
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