ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
वेत्यग्रु॒र्जनि॑वा॒न्वा अति॒ स्पृधः॑ समर्य॒ता मन॑सा॒ सूर्यः॑ क॒विः। घ्रं॒सं रक्ष॑न्तं॒ परि॑ वि॒श्वतो॒ गय॑म॒स्माकं॒ शर्म॑ वनव॒त्स्वाव॑सुः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठवेति॑ । अग्रुः॑ । जनि॑ऽवान् । वै । अति॑ । स्पृधः॑ । स॒ऽम॒र्य॒ता । मन॑सा । सूर्यः॑ । क॒विः । घ्रं॒सम् । रक्ष॑न्तम् । परि॑ । वि॒श्वतः॑ । गय॑म् । अ॒स्माक॑म् । शर्म॑ । व॒न॒व॒त् । स्वऽव॑सुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्यग्रुर्जनिवान्वा अति स्पृधः समर्यता मनसा सूर्यः कविः। घ्रंसं रक्षन्तं परि विश्वतो गयमस्माकं शर्म वनवत्स्वावसुः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठवेति। अग्रुः। जनिऽवान्। वै। अति। स्पृधः। सऽमर्यता। मनसा। सूर्यः। कविः। घ्रंसम्। रक्षन्तम्। परि। विश्वतः। गयम्। अस्माकम्। शर्म। वनवत्। स्वऽवसुः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
यः स्वावसुः सूर्य्य इव कविरग्रुर्जनिवान् विद्वान् समर्य्यता मनसा स्पृधोऽति वेति स वै सूर्य्यो घ्रंसमिवास्माकं विश्वतो रक्षन्तं गयं शर्म्म च परि वनवत् स वा अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः ॥७॥
पदार्थः
(वेति) प्राप्नोति (अग्रुः) अग्रगन्ता (जनिवान्) विद्यायां जन्मवान् (वै) निश्चयेन (अति) (स्पृधः) स्पर्द्धन्ते येषु तान् सङ्ग्रामान् (समर्य्यता) समरमिच्छता (मनसा) चित्तेन (सूर्यः) सवितेव (कविः) क्रान्तप्रज्ञः (घ्रंसम्) दिनम् (रक्षन्तम्) (परि) सर्वतः (विश्वतः) सर्वस्मात् (गयम्) श्रेष्ठमपत्यं धनं वा (अस्माकम्) (शर्म) गृहम् (वनवत्) संविभाजयेत् (स्वावसुः) स्वेषु यो वसति स्वान् वा वासयति ॥७॥
भावार्थः
यो मनुष्यो विद्याविनयप्राप्तो दुष्टेषूग्रो धार्मिकेषु शान्तः सदैव दुष्टैः सह युद्धेन प्रजा रक्षन् सुखे वासयेत् स सूर्य्यवत् प्रकाशकीर्त्तिर्भवेत् ॥७॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (स्वावसुः) अपनों में बसता वा अपनों को जो बसाता है वह (सूर्य्यः) सूर्य्य के सदृश (कविः) उत्तम बुद्धिमान् (अग्रुः) अग्रगन्ता (जनिवान्) विद्या में जन्मवान् विद्यायुक्त पुरुष (समर्य्यता) संग्राम की इच्छा करते हुए (मनसा) चित्त से (स्पृधः) स्पर्द्धा करते हैं जिनमें उन संग्रामों की इच्छा करते हुए (अति, वेति) अत्यन्त व्याप्त होता है, वह (वै) निश्चय से जैसे सूर्य्य (घ्रंसम्) दिन को वैसे (अस्माकम्) हम लोगों को (विश्वतः) सब से (रक्षन्तम्) रक्षा करते हुए (गयम्) श्रेष्ठ अपत्य वा धन और (शर्म्म) गृह का (परि) सब प्रकार से (वनवत्) संविभाग करे, वह हम लोगों से सत्कार करने योग्य है ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या और विनय को प्राप्त, दुष्टों में उग्र और धार्मिको में शान्त और सदा ही दुष्टों के साथ युद्ध करने से प्रजाओं की रक्षा करता हुआ सुख में वास करावे, वह सूर्य्य के सदृश प्रकाशित यशवाला हो ॥७॥
विषय
उत्तम राजा प्रजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( सूर्यः ) सूर्य के समान तेजस्वी ( कविः ) अति दूरदर्शी ( अग्रः ) अग्रणी, नायक ( जनिवान् ) उत्तम जन्म वा प्रतिष्ठा को प्राप्त करके ( समर्यता मनसा ) युद्ध करने की इच्छा से युक्त चित्त से ( स्पृधः अति वेति ) अपने सब स्पर्धालु शत्रुओं से बढ़जावे | वह ( स्व-वसुः ) अपनों में रहने और अपनों को बसाने हारा होकर ( रक्षन्तं ) रक्षा करते हुए, ( घ्रंसं ) अति देदीप्यमान तेजस्वी पुरुष को ( वनवत् ) प्राप्त करे और (अस्माकं ) हमारे ( गयं ) गृह, और ( शर्म ) सुख को ( वन-वत् ) प्रदान करे |
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस विद्या व विनयाने दुष्टांबरोबर उग्र, धार्मिकाबरोबर शांत राहून सदैव दुष्टांबरोबर युद्ध करतो व प्रजेचे रक्षण करून सुखात ठेवतो त्याला सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान होऊन यश मिळावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The leader, reborn in knowledge and courage of action, goes forward challenging, thirsting for battle, radiant by mind, visionary of present and future, protecting the light of day, preserving our future wealth of generations, and protecting our hearth and home, self- possessed and self-established as he is.
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