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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मा उ॑ ते॒ महि॑ म॒हे वि॑धेम॒ नमो॑भिरग्ने स॒मिधो॒त ह॒व्यैः। वेदी॑ सूनो सहसो गी॒र्भिरु॒क्थैरा ते॑ भ॒द्रायां॑ सुम॒तौ य॑तेम ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्म्सि । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । महि॑ । म॒हे । वि॒धे॒म॒ । नमः॑ऽभिः । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइधा । उ॒त । ह॒व्यैः । वेदी॑ । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । गीः॒ऽभिः । उ॒क्थैः । आ । ते॒ । भ॒द्राया॑म् । सु॒ऽम॒तौ । या॒ते॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा उ ते महि महे विधेम नमोभिरग्ने समिधोत हव्यैः। वेदी सूनो सहसो गीर्भिरुक्थैरा ते भद्रायां सुमतौ यतेम ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। ऊँ इति। ते। महि। महे। विधेम। नमःऽभिः। अग्ने। सम्ऽइधा। उत। हव्यैः। वेदी। सूनो इति। सहसः। गीःऽभिः। उक्थैः। आ। ते। भद्रायाम्। सुऽमतौ। यतेम ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    ये पदार्थविद्याप्राप्तये प्रयतन्ते ते भाग्यशालिनो जायन्त इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसः सूनोऽग्ने ! यथा समिधा नमोभिर्विश्वा वामा ये दधते य आहुतिं दृष्ट्वा परिवेद। या वेदी भवति तां गीर्भिरुक्थैर्हव्यैरस्मै महे ते मह्याविधेम ताभिर्वाग्भिस्सहिता यूयमु उत वयं च ते भद्रायां सुमतौ यतेम ॥१०॥

    पदार्थः

    (अस्मै) (उ) (ते) तुभ्यम् (महि) महत् (महे) महते (विधेम) सत्कुर्य्याम (नमोभिः) अन्नादिभिः (अग्ने) विद्वन् (समिधा) इन्धनादिनेव विद्यया (उत) अपि (हव्यैः) अत्तुमर्हैः (वेदी) विदन्ति सुखानि यस्यां सा (सूनो) अपत्य (सहसः) बलवतः (गीर्भिः) वाग्भिः (उक्थैः) कीर्त्तनीयैर्वचनैः (आ) (ते) तव (भद्रायाम्) (सुमतौ) उत्तमायां प्रज्ञायाम् (यतेम) प्रयत्नं कुर्य्याम ॥१०॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! युष्माभिरस्मै प्राणिसमुदायाय सामग्र्या यज्ञो विधेयः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    जो पदार्थविद्याप्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं, वे भाग्यशाली होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) पुत्र (अग्ने) विद्वज्जन ! जैसे (समिधा) ईंधन आदि के सदृश विद्या और (नमोभिः) अन्न आदिकों से संपूर्ण स्त्रियों को जो धारण करते हैं और जो आहुति को देखकर जानता है और जो (वेदी) जानते हैं सुखों को जिसमें वह होती है, उसका (गीर्भिः) वाणियों और (उक्थैः) कीर्त्तन करने योग्य वचनों से और (हव्यैः) भोजन करने योग्य पदार्थों से (अस्मै) इस (महे) बड़े (ते) आपके लिये (महि) बहुत (आ) सब प्रकार से (विधेम) सत्कार करें, उन वाणियों के सहित आप लोग (उ) भी (उत) और हम भी (ते) आपकी (भद्रायाम्) कल्याणकारिणी (सुमतौ) उत्तम बुद्धि में (यतेम) प्रयत्न करें ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग इस प्राणियों के समुदाय के लिये सामग्री से यज्ञ करें ॥१०॥

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    विषय

    अग्निहोत्र की सत्कार से तुलना । प्रभु से सन्मति की याचना !

    भावार्थ

    ( नमोभिः, समिधा हव्यैः ) जिस प्रकार अग्नि को अन्नों, समिधाओं और हवन योग्य पदार्थों से अग्निहोत्र क्रिया की जाती है उसी प्रकार हे (अग्ने ) अग्नि के तुल्य ! तेजस्विन् ! विद्वन् ! नायक ! प्रभो ! हम लोग ( अस्मै ) इस ( महे) महान्, गुणों से पूज्य ( ते ) तेरी ( नमोभिः ) उत्तम अन्नों, नमस्कारों और विनयपूर्वक सत्कारों से ( समिधा ) अच्छी प्रकार से चमकने वाली विद्या (उत ) और ( हव्यैः ) उत्तम अन्नों, वचनों से ( महि विधेम ) बड़ा भारी सत्कार किया करें । और ( वेदी ) नाना ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाली इस भूमि में है ( सहसः सूनो ) शत्रुपराभवकारी सैन्यबल के सञ्चालक राजन् ! विद्वन् ! हम लोग ( ते ) तेरी ( गीर्भिः ) वाणियों और ( उक्थैः ) उत्तम उपदेशों द्वारा प्रेरित होकर ( ते ) तेरी प्रदान की (भद्रायां सुमतौ ) कल्याणकारिणी शुभमति के अधीन रहकर सदा ( आ यतेम ) सर्वत्र प्रयत्न करते रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्ति: । ३, ४, ६, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। इति त्रयोदशर्चं मनोतासूक्तम् ।।

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    विषय

    नम्रता-ज्ञान व दान

    पदार्थ

    [१] (अस्मै) = इस (महे) = महान् (ते) = तेरे लिये (महि विधेम) = खूब ही पूजा करें। हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (नमोभिः) = नमस्कारों द्वारा, (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा, (उत) = और (हव्यैः) = [हु दाने] दानों के द्वारा हम आपका पूजन करें। प्रभु का उपासक 'नम्रता-ज्ञानदीप्ति व दान की वृत्तिवाला' होता है। [२] हे (सहसः) = सूनो-शक्ति के पुञ्ज प्रभो ! हम (वेदी) = इस शरीर रूप यज्ञभूमि में (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा तथा (उक्थैः) = स्तुति-वाणियों के द्वारा (ते) = आपकी (भद्रायां सुमतौ) = कल्याणी सुमति में (आयतेम) = समन्तात् यत्नशील हों। अर्थात् हमारे सब कार्य आपकी कल्याणी मति के अनुसार हों। इस कल्याणी मति को प्राप्त करने के लिये स्वाध्याय व स्तवन [गीर्भिः, उक्थैः] सहायक होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'नम्रता, ज्ञानदीप्ति व दानवृत्ति' को धारण करते हुए प्रभु के उपासक हों। स्वाध्याय व स्तवन करते हुए हम सदा प्रभु की कल्याणी मति के अनुसार यज्ञ आदि उत्तम कर्मों को करनेवाले हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही सर्व प्राण्यांसाठी सामग्रीद्वारे यज्ञ करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, giver of light and knowledge, child of omnipotence and source of strength, we offer high reverence and worship to you in honour of your greatness and glory, with homage, sacred fuel and fragrant yajnic materials into the vedi, with chant of holy words and songs of praise, and we pray that we may always abide and strive for noble actions in your benign presence and favour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Those who endeavor to acquire the knowledge of the physics, become very fortunate is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O son of the mighty father! O enlightened leader! the men kindle fire with fuel and knowledge and by putting in it oblations of food grains etc., enjoy all happiness. Those who know well the nature of the oblations to be put in the fire and at the altar, let us honor them well with admirable words and offering food. May we always endeavor to be in your auspicious and noble intellect or favour, which bestows happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should perform Yajna (non-violent sacrifice) for the good of all beings.

    Foot Notes

    (समिधा ) इन्धनादीनेव विद्यया । सम +इन्धी-दीप्तौ (रुधा०) = With knowledge which is like fuel etc. ( उक्थैः ) कीत्तनीयैवंचनैः । उक्थैः । वच परिभाषणे (अदा० ) पातृतुदि वचिरिचिसिचिभ्यः थक् प्रत्यय: ( उणादिकोषे 2, 7 ) इतिथक् प्रत्यय:) = With admirable words.

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