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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नृ॒वद्व॑सो॒ सद॒मिद्धे॑ह्य॒स्मे भूरि॑ तो॒काय॒ तन॑याय प॒श्वः। पू॒र्वीरिषो॑ बृह॒तीरा॒रेअ॑घा अ॒स्मे भ॒द्रा सौ॑श्रव॒सानि॑ सन्तु ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ॒ऽवत् । व॒सो॒ इति॑ । सद॑म् । इत् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ । भूरि॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । प॒श्वः । पू॒र्वीः । इषः॑ । बृ॒ह॒तीः । आ॒रेऽअ॑घाः । अ॒स्मे इति॑ । भ॒द्रा । सौ॒श्र॒व॒सानि॑ । स॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृवद्वसो सदमिद्धेह्यस्मे भूरि तोकाय तनयाय पश्वः। पूर्वीरिषो बृहतीरारेअघा अस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नृऽवत्। वसो इति। सदम्। इत्। धेहि। अस्मे इति। भूरि। तोकाय। तनयाय। पश्वः। पूर्वीः। इषः। बृहतीः। आरेऽअघाः। अस्मे इति। भद्रा। सौश्रवसानि। सन्तु ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वसो विद्वन् ! त्वमस्मे तोकाय तनयाय पश्वस्सदं बृहतीः पूर्वीरारेऽघा इषश्च भूरि धेहि। यतोऽस्मे इन्नृवद्भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥१२॥

    पदार्थः

    (नृवत्) मनुष्यवत् (वसो) यो वसति तत्सम्बुद्धौ (सदम्) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (इत्) एव (धेहि) (अस्मे) अस्मासु (भूरि) (तोकाय) (तनयाय) (पश्वः) पशून् गवादीन् (पूर्वीः) प्राचीनाः (इषः) अन्नादिसामग्री (बृहतीः) महतीः (आरेअघाः) आरे दूरेऽघानि पापानि यासान्ताः (अस्मे) अस्मभ्यम् (भद्रा) भद्राणि कल्याणकराणि (सौश्रवसानि) सुश्रवसि संस्कृतेऽन्ने भवानि (सन्तु) ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। त एव विद्वांसो ये मातापितृवज्जगज्जनेभ्यो हितानि वस्तूनि ददति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वज्जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसो) वसनेवाले विद्वज्जन ! आप (अस्मे) हम लोगों में (तोकाय) कन्या और (तनयाय) पुत्र के लिये (पश्वः) पशु गौ आदि को तथा (सदम्) वर्त्तमान होते हैं जिसमें उस गृह और (बृहतीः) बड़ी (पूर्वीः) प्राचीन (आरेअघाः) दूर पाप जिनके उन (इषः) अन्न आदि सामग्रियों को (भूरि) बहुत (धेहि) धारण करिये जिससे (अस्मे) हम लोगों के लिये (इत्) ही (नृवत्) मनुष्यों के सदृश (भद्रा) कल्याणकारक (सौश्रवसानि) उत्तम प्रकार संस्कार से युक्त अन्न में हुए पदार्थ (सन्तु) हों ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वे ही विद्वान् हैं, जो मातापिताओं के समान सांसारिक जनों के लिये हितकारक वस्तुओं को देते हैं ॥१२॥

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    विषय

    उसका 'वसु' रूप ।

    भावार्थ

    हे ( वसो ) जगत् को बसाने हारे प्रभो ! राष्ट्र, नगरादि के बसाने हारे राजन् ! ( अस्मे तोकाय तनयाय ) हमारे पुत्र पौत्र के लिये और ( नृवत् सदम् ) मनुष्यों, भृत्यों से युक्त घर, उत्तम नायकों से युक्त राजसभा को ( घेहि ) प्रदान कर और ( अस्मे ) हमें ( भूरि पश्वः धेहि ) बहुत से पशु प्रदान कर । और ( अस्मे ) हमें ( पूर्वीः इषः ) समृद्ध, अन्न, ( बृहतीः इषः ) बड़ी २ कामनाएं और बड़ी २ सेनाएं जो ( आरे-अघाः) पापों और पापियों को दूर भगादें, प्राप्त हों ( अस्मे ) हमारे ( भद्रा ) सुखदायक, कल्याणजनक ( सौश्रवसानि ) उत्तम अन्न, और कीर्तियुक्त ऐश्वर्य ( सन्तु ) हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्ति: । ३, ४, ६, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। इति त्रयोदशर्चं मनोतासूक्तम् ।।

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    विषय

    धन-प्रेरणा-ज्ञान

    पदार्थ

    [१] हे (वसो) = सम्पूर्ण वसुओं [धनों] के स्वामिन् प्रभो ! (अस्मे) = हमारे लिये (सदं इत्) = सदा ही (भूरि) = पालन-पोषण के लिये पर्याप्त धन (धेहि) = धारण करिये । हमारे (तोकाय) = पुत्रों के लिये तथा- (तनयाय) = पौत्रों के लिये (पश्वः) = गौ आदि मानवहित साधक पशुओं को प्राप्त कराइये । यह आपसे दिया हुआ धन (नृवत्) = प्रशस्त मनुष्योंवाला हो। इस धन के द्वारा हमारे घर में सभी का जीवन प्रशस्त बने । [२] हे प्रभो! आपकी कृपा से (अस्मे) = हमारे लिये (पूर्वी: इषः) = पालन व पूरण करनेवाली प्रेरणाएँ (सन्तु) = हों। जो प्रेरणाएँ (बृहती:) = हमारी वृद्धि का कारण बनती हैं तथा आरे (अघा:) = पापों को हमारे से दूर रखती हैं। इन प्रेरणाओं के द्वारा भद्रा कल्याणकर सौ (श्रवसानि) = उत्तम ज्ञान हमारे लिये हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु कृपा से हमें उत्तम धन प्राप्त हों। हम प्रभु - प्रेरणा को सुननेवाले बनें और कल्याणकर उत्कृष्ट ज्ञानों को प्राप्त करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे माता-पिता यांच्याप्रमाणे जगातील लोकांसाठी हितकारक पदार्थ देतात तेच विद्वान असतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O father and guardian of humanity, Agni, giver of life and beneficence, give us a blessed home for our children and grand children, full of material and cattle wealth, abundant and expansive food and energy, freedom from sin and evil, where there may be ample means of well being, honour and excellence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! living here happily and righteously, vouchsafe us ever abundant wealth of kine for sons and offspring, food, noble far from sin and evil, so that we may have good articles prepared properly and you bestowing upon us happiness and health and like good men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those are truly enlightened persons who give good things to the men of world which are beneficial like, like the parents.

    Foot Notes

    (इष:) अन्नादिसामग्री | अन्नं वा इष: (ऐतरे-यारण्यके 1, 1, 4 कोषीतकीब्राह्मणे 28, 5 ) = Food and other articles. (सौश्रवसानि ) सुश्रवसि संस्कृतेऽन्ने भवानि । = Prepared from well-cooked food.

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