ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पु॒रूण्य॑ग्ने पुरु॒धा त्वा॒या वसू॑नि राजन्व॒सुता॑ ते अश्याम्। पु॒रूणि॒ हि त्वे पु॑रुवार॒ सन्त्यग्ने॒ वसु॑ विध॒ते राज॑नि॒ त्वे ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रूणि॑ । अ॒ग्ने॒ । पु॒रु॒धा । त्वा॒ऽया । वसू॑नि । रा॒ज॒न् । व॒सुता॑ । ते॒ । अ॒श्या॒म् । पु॒रूणि । हि । त्वे इति॑ । पु॒रु॒ऽवा॒र॒ । सन्ति॑ । अग्ने॑ । वसु॑ । वि॒ध॒ते । राज॑नि । त्वे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरूण्यग्ने पुरुधा त्वाया वसूनि राजन्वसुता ते अश्याम्। पुरूणि हि त्वे पुरुवार सन्त्यग्ने वसु विधते राजनि त्वे ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठपुरूणि। अग्ने। पुरुधा। त्वाऽया। वसूनि। राजन्। वसुता। ते। अश्याम्। पुरूणि। हि। त्वे इति। पुरुऽवार। सन्ति। अग्ने। वसु। विधते। राजनि। त्वे इति ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 8
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरवत्प्रजापालनविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने राजन् ! ते या वसुता तत्रस्थानि पुरूणि पुरुधा वसूनि त्वाया सहाऽहमश्याम्। हे पुरुवाराग्ने ! हि त्वे पुरूणि वसूनि सन्ति राजनि त्वे सति विधते कल्याणं जायते स त्वमस्माकं राजा भव ॥१३॥
पदार्थः
(पुरूणि) बहूनि (अग्ने) विद्वन् (पुरुधा) बहुभिः प्रकारैर्धारितानि (त्वाया) त्वया सह (वसूनि) द्रव्याणि (राजन्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (वसुता) वसूनां द्रव्याणां भावः (ते) तव (अश्याम्) प्राप्नुयाम् (पुरूणि) बहूनि (हि) खलु (त्वे) त्वयि (पुरुवार) बहुभिर्वरणीय (सन्ति) (अग्ने) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (वसु) द्रव्यम् (विधते) विधानं कुर्वते (राजनि) (त्वे) त्वयि ॥१३॥
भावार्थः
त एव राजान उत्तमाः सन्ति ये परमेश्वरवत्पक्षपातं विहाय पुत्रवत्प्रजाः पालयन्ति ता एव प्रजाः श्रेष्ठाः सन्ति या राजेश्वरभक्ता वर्त्तन्त इति ॥१३॥ अत्राग्निविद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ अस्मिन्नध्याये मित्रावरुणाश्विसवितृमरुदग्न्यादिगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृताऽऽर्य्याभाषाविभूषित ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थाष्टके चतुर्थोऽध्यायः षट्त्रिंशो वर्गश्च षष्ठे मण्डले प्रथमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर के तुल्य प्रजापालन विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! (राजन्) विद्या और विनय से प्रकाशमान (ते) आपके समीप जो (वसुता) द्रव्यों का होना उसमें वर्त्तमान (पुरूणि) बहुत और (पुरुधा) बहुत प्रकारों से धारण किये हुए (वसूनि) द्रव्यों को (त्वाया) आपके साथ मैं (अश्याम्) प्राप्त होऊँ और हे (पुरुवार) बहुतों से स्वीकार करने योग्य (अग्ने) विद्या और विनय से प्रकाशमान (हि) निश्चय से (त्वे) आप में (पुरूणि) बहुत द्रव्य (सन्ति) हैं (राजनि) राजा (त्वे) आपके होने पर (वसु) द्रव्य का (विधते) विधान करनेवाले के लिये कल्याण होता है, वह आप हमारे राजा हूजिये ॥१३॥
भावार्थ
वे ही राजा उत्तम हैं जो परमेश्वर के सदृश पक्षपात का त्याग करके पुत्र के सदृश प्रजाओं का पालन करते हैं और वे ही प्रजाजन श्रेष्ठ होते हैं जो राजा और ईश्वर के भक्त हैं ॥१३॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान् और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में मित्रावरुण, अश्वि, सूर्य, वायु और अग्नि आदि के गुणवर्णन करने से इस अध्याय में कहे हुए अर्थ की इससे पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमद्विरजानन्द सरस्वती स्वामी जी के शिष्य श्रीमद्दयानन्द सरस्वती स्वामिविरचित संस्कृतार्य्यभाषाविभूषित ऋग्वेदभाष्य में चतुर्थ अष्टक में चतुर्थ अध्याय, छत्तीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल में प्रथम सूक्त भी समाप्त हुआ ॥
विषय
ऐश्वर्यों की याचना । इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
भावार्थ
हे ( राजन ) राजन् ! प्रभो ! हे ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! परमेश्वर ! ( ते ) तेरे ( पुरूणि वसूनि ) ऐश्वर्य बहुत प्रकार के हैं । इसी कारण ( ते वसुता ) तेरा राष्ट्र को बसा देने वाला सामर्थ्य और तेरा स्वामित्व भी ( पुरुधा) बहुत से प्रजाजनों को धारण पोषण करने में समर्थ है । इसलिये मैं प्रजाजन ( ते ) तेरे ऐश्वर्यो का ( अश्याम् ) भोग करूं । हे ( पुरुवार ) बहुत से वरणीय धनों के स्वामिन् ! बहुतों से वरण करने योग्य, बहुत से दुष्टों को वारण करने में समर्थ ! ( त्वे हि ) तुझ अकेले के अधीन ही ( पुरूणि ) बहुत से ( वसूनि ) ऐश्वर्य ( सन्ति ) हैं । ( त्वे राजनि ) तुझ राजा के अधीन रहकर हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! (विधते ) विविध उत्तम शिल्प रचने और विधान बनाने वा विधान की यथार्थ रचना और पालन करने, कराने वाले पुरुष के लिये ही ( ते वसु ) तेरा समस्त धन या बसा हुआ ऐश्वर्य हो । इति षट्त्रिंशो वर्गः ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्ति: । ३, ४, ६, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। इति त्रयोदशर्चं मनोतासूक्तम् ।।
विषय
वसुता [अश्याम्]
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (त्वाया) = आपको प्राप्त होनेवाले (वसूनि) = धन (पुरूणि) = बहुत हैं और (पुरुधा) = गौ-अश्व आदि रूप से अनेक प्रकार के हैं। प्रभु सब धनों के भण्डार हैं। हे (राजन्) = सब धनों के स्वामिन् प्रभो ! (ते) = आपके इस (वसुता) = धनसमूह को [समूहे तत् प्रत्ययः] (अश्याम्) = प्राप्त करूँ । प्रभु के इन नाना प्रकार के पालक व पूरक धनों को हम प्राप्त करें। [२] हे (पुरुवार) = बहुत वरणीय धनोंवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वे) = आपके धन (हि) = निश्चय से (पुरूणि सन्ति) = बहुत हैं अथवा पालन व पूरण करनेवाले हैं। (राजनि) = देदीप्यमान (त्वे) = तुझ में (विधते) = आपकी परिचर्या करनेवाले के लिये (वसु) = सब कार्यों को प्रशस्त करनेवाले धन (सन्ति) = हैं। अर्थात् आप अपने उपासक को सब आवश्यक धन देते ही हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक बनें। प्रभु के वसुओं को प्राप्त करें। अगले सूक्त में भी यही ऋषि, यही देवता हैं - अथ चतुर्थाष्टके पञ्चमोऽध्यायः
मराठी (1)
भावार्थ
जे परमेश्वराप्रमाणे भेदभाव न करता पुत्राप्रमाणे प्रजेचे पालन करतात तेच राजे उत्तम असतात. जे राजा व ईश्वराचे भक्त असतात तेच प्रजाजन श्रेष्ठ असतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O leading light of life and humanity, brilliant by virtue of knowledge, power and generosity, may we by your kindness and grace obtain wealth and prosperity of various kinds and orders. O giver of knowledge, power and excellence, Agni, universally loved and adored, infinite are your gifts of wealth abiding in your dominion which you hold in treasure for the dedicated supplicant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the duty of nourishing the people like God is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! account of knowledge and wisdom, may I obtain much wealth and shining on many things in many places by your love and through your grace. O leader! you are worthy of acceptance by many in your kingship, there are many forms for him, who utilizes his wealth and distributes it to the needy. Be you our ruler.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings only are good who nourish their subjects like children, justly like God, giving up all partiality. Those subjects only are good who are devoted to God and loyal to their rulers.
Foot Notes
(राजन् ) विद्या विनयाभ्यां प्रकाशमान् । राज़-दीप्तौ (भ्वा०) Shining on account of knowledge and humility. (द्रव्याणि) = Articles, things.
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