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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सो अ॑ग्न ईजे शश॒मे च॒ मर्तो॒ यस्त॒ आन॑ट् स॒मिधा॑ ह॒व्यदा॑तिम्। य आहु॑तिं॒ परि॒ वेदा॒ नमो॑भि॒र्विश्वेत्स वा॒मा द॑धते॒ त्वोतः॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । अ॒ग्ने॒ । ई॒जे॒ । श॒श॒मे । च॒ । मर्तः॑ । यः । ते॒ । आन॑ट् । स॒म्ऽइधा॑ । ह॒व्यऽदा॑तिम् । यः । आऽहु॑तिम् । परि॑ । वे॒द॒ । नमः॑ऽभिः । विश्वा॑ । इत् । सः । वा॒मा । द॒ध॒ते॒ । त्वाऽऊ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो अग्न ईजे शशमे च मर्तो यस्त आनट् समिधा हव्यदातिम्। य आहुतिं परि वेदा नमोभिर्विश्वेत्स वामा दधते त्वोतः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। अग्ने। ईजे। शशमे। च। मर्तः। यः। ते। आनट्। सम्ऽइधा। हव्यऽदातिम्। यः। आऽहुतिम्। परि। वेद। नमःऽभिः। विश्वा। इत्। सः। वामा। दधते। त्वाऽऊतः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ! ते यो मर्त्तः समिधा हव्यदातिमानट् तद्वेत्ता सोऽहं तमीजे शशमे च। य आहुतिं परि वेदा स त्वोतो नमोभिर्विश्वा वामेद्दधते ॥९॥

    पदार्थः

    (सः) (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान विद्वन् (ईजे) सङ्गच्छ (शशमे) प्रशंसामि। शशमान इति अर्चतिकर्म्मा (निघं०३.१४) (च) (मर्त्तः) मनुष्य (यः) (ते) तव (आनट्) व्याप्नोति (समिधा) (हव्यदातिम्) यो हव्यानि ददाति तम् (यः) (आहुतिम्) या समन्ताद्धूयते ताम् (परि) सर्वतः (वेदा) जानाति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नमोभिः) अन्नादिभिः (सत्कारैर्वा) (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (सः) (वामा) प्रशस्यानि कर्म्माणि (दधते) (त्वोतः) त्वया रक्षितः ॥९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यः प्रशंसितकार्य्यकरोऽग्निरस्ति तं विजानीत ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान विद्वन् ! (ते) आप का (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (समिधा) समिध् से (हव्यदातिम्) हवन करने योग्य वस्तुओं के देनेवाले को (आनट्) व्याप्त होता है, उसको जाननेवाला (सः) वह मैं उसको (ईजे) उत्तम प्रकार प्राप्त होता और (शशमे) प्रशंसा करता हूँ (च) और (यः) जो (आहुतिम्) आहुति को अर्थात् जो चारों ओर होमी जाती उस सामग्री को (परि) सब प्रकार से (वेदा) जानता है (सः) वह (त्वोतः) आप से रक्षित हुआ (नमोभिः) अन्न आदिकों वा सत्कारों से (विश्वा) सम्पूर्ण (वामा) प्रशंसा करने योग्य कर्म्मों को (इत्) ही (दधते) धारण करता है ॥९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो प्रशंसित कार्य्यों का करनेवाला अग्नि है, उसको विशेष कर जानिये ॥९॥

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    विषय

    ईश्वर भक्त को सत्फल

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् प्रभो ! ( यः ) जो पुरुष ( ते ) तेरी ( समिधा ) समिधा सहित अग्नि के तुल्य अच्छी प्रकार देदीप्यमान, तेरे गुणों को प्रकाशित करने वाली स्तुति से ( हव्य-दातिम् ) अन्नादि दान क्रिया के तुल्य उत्तम वचन प्रदान ( आनटू ) करता है ( सः ) वह ( ईजे ) यज्ञ करता है, तेरा सत्संग करता है ( सः शशये वह तेरी स्तुति प्रार्थना करता है वह शान्ति लाभ करता है । और ( यः ) जो ( नमोभिः ) नमस्कारों सहित तेरे निमित्त (आहुतिं परिवेद ) सब प्रकार के दान देता वा ( नमोभिः ) विनय सत्कारों सहित ( ते आहुतिं परि वेद) तेरे नाम की पुकार करता है ( सः इत् ) वह भी ( त्वा-उतः ) तेरे से सुरक्षित रहकर ( विश्वा वामा ) समस्त उत्तम ऐश्वर्य ( दधते ) धारण करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्ति: । ३, ४, ६, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। इति त्रयोदशर्चं मनोतासूक्तम् ।।

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    विषय

    'यज्ञ-स्तुति-ज्ञानदीप्तिहव्य पदार्थों का दान'

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (सः मर्तः ते) = वह मनुष्य आपका है (यः) = जो (ईजे) यज्ञ करता है, (शशमे च) = और स्तुति करता है तथा (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के साथ (हव्यदातिं आनट्) = हव्य पदार्थों के दान का व्यापन करता है। 'यज्ञ, स्तुति, ज्ञानदीप्ति व हव्य पदार्थों का दान' ये बातें प्रभुभक्त की पहिचान कराती हैं । [२] (यः) = जो (नमोभिः) = नमस्कारों के साथ (आहुतिं परिवेदा) = आहुति को जानता है, अर्थात् यज्ञशील बनता है, (सः) = वह (त्वा ऊतः) = आप से रक्षित हुआ हुआ (विश्वा इत्) = सब ही वामा सुन्दर वस्तुओं को दधते धारण करता है। 'नमन व यज्ञशीलता' सब सुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति का कारण बनती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – 'यज्ञ, स्तुति, ज्ञानदीप्ति, हव्य पदार्थों का दान' ये प्रभु-भक्त के लक्षण हैं। यह प्रभुभक्त सब सुन्दर पदार्थों को प्राप्त करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! प्रशंसित कार्य करणाऱ्या अग्नीला विशेषत्वाने जाणा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, giver of light and life, that man does honour and worship to you who brings and offers you yajna with sacred fuel and holy materials, who knows what to offer and offers the oblations with faith and surrender. Such a man protected and promoted by you is blest with honour and admirable capacity for action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened ! you are a person purifier like the fire. I associate myself with and admire the mortal who approaches you, who are giver of oblations in the fire with kindled fuel. He who knows well the nature of the-oblation that is to be put in the fire, being protected by you upholds all admirable actions with reverence and food offered to you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know the fire that is the doer of many admirable works.

    Foot Notes

    (ईजे ) सङ्गच्छ । ईजे is from यज-देवपूजा-सङ्गतिकरणदानेषु Here the second meaning of the root YAJ has been taken सङ्गतिकरण or association = I associate with. (शश मे) प्रशंसामि । शशमान इति अर्चतिकर्म्मा (NG 3, 14 ) = I admire (वामा ) प्रशस्यनि कर्माणि । वाम इति प्रशस्यनाम (NG 3, 8 ) = Admirable works.

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