ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒रुत्व॑न्तं वृष॒भं वा॑वृधा॒नमक॑वारिं दि॒व्यं शा॒समिन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॒मव॑से॒ नूत॑नायो॒ग्रं स॑हो॒दामि॒ह तं हु॑वेम ॥११॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुत्व॑न्तम् । वृ॒ष॒भम् । व॒वृ॒धा॒नम् । अक॑वऽअरिम् । दि॒व्यम् । शा॒सम् । इन्द्र॑म् । वि॒श्व॒ऽसह॑म् । अव॑से । नूत॑नाय । उ॒ग्रम् । स॒हः॒ऽदाम् । इ॒ह । तम् । हु॒वे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम्। विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम ॥११॥
स्वर रहित पद पाठमरुत्वन्तम्। वृषभम्। ववृधानम्। अकवऽअरिम्। दिव्यम्। शासम्। इन्द्रम्। विश्वऽसहम्। अवसे। नूतनाय। उग्रम्। सहःऽदाम्। इह। तम्। हुवेम ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! वयमिह यं नूतनायाऽवसे मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासं विश्वासाहमुग्रं सहोदामिन्द्रं हुवेम तं यूयमप्याह्वयत ॥११॥
पदार्थः
(मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो मनुष्या विद्यन्ते यस्य तम् (वृषभम्) अत्युत्तमं पूर्णबलम् (वावृधानम्) अतिवर्धमानम् (अकवारिम्) न विद्यन्ते कवा शब्दायमाना अरयो यस्य तम् (दिव्यम्) कमनीयम् (शासम्) पक्षपातं विहाय शासनकर्तारम् (इन्द्रम्) शरीरात्मराजश्रिया सुशुम्भमानम् (विश्वासाहम्) यो विश्वं समग्रं कष्टं सहते तम् (अवसे) रक्षणाद्याय (नूतनाय) नवीनाय (उग्रम्) तेजस्विनम् (सहोदाम्) बलप्रदम् (हि) अस्मिन् राज्यकर्मणि (तम्) (हुवेम) स्वीकुर्याम ॥११॥
भावार्थः
राजप्रजाजनैः सर्वेषां रक्षणाय सर्वेभ्य उत्तमगुणकर्मस्वभावो राजा मन्तव्यः स च राजा सर्वेषां सम्मत्या सत्यं न्यायं सततं कुर्यात् ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! हम लोग (इह) इस राज्यकर्म में जिसको (नूतनाय) नवीन (अवसे) रक्षण आदि के लिये (मरुत्वन्तम्) श्रेष्ठ मनुष्य विद्यमान जिसके उस (वृषभम्) अतिश्रेष्ठ पूर्ण बलवाले (वावृधानम्) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होते हुए (अकवारिम्) नहीं विद्यमान हैं शब्द करते हुए शत्रु जिसके उस (दिव्यम्) सुन्दर (शासम्) पक्षपात का त्याग करके शासन करनेवाले (विश्वासाहम्) सम्पूर्ण कष्ट को सहनेवाले (उग्रम्) तेजस्वी (सहोदाम्) बल देनेवाले (इन्द्रम्) शरीर, आत्मा और राजशोभा से अत्यन्त शोभित का (हुवेम) हम स्वीकार करें (तम्) उसका आप लोग भी आह्वान कर स्वीकार कीजिये ॥११॥
भावार्थ
राजजनों और प्रजाजनों को चाहिये कि सब के रक्षण के लिये सब से उत्तम गुण, कर्म और स्वभाववाले राजा को स्वीकार करें और वह राजा सब की सम्मति से सत्य, न्याय का निरन्तर आचरण करे ॥११॥
विषय
अभ्युदयादि । प्रजा की नाना कामनाएं ।
भावार्थ
हम लोग ( अवसे) रक्षा कार्य के लिये, ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( मरुत्वन्तम् ) वायु के गुणों से युक्त सूर्यवत् तेजस्वी एवं मनुष्यों, वीर पुरुषों के स्वामी, ( वृषभं ) मेघवत् सुखों के वर्षण करने वाले, बैल के समान राज्य शकट को उठाने में समर्थ, ( वावृधानं ) स्वयं बढ़ने वाले ( अकवारिम् ) शत्रु भी जिसकी निन्दा न करते हों, ऐसे ( दिव्यम् ) ज्ञान और तेज में प्रसिद्ध, ( शासम् ) शस्त्र बल के तुल्य शासक, ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्ता, ( विश्वसाहम् ) सबको पराजित करने वाले, सब कष्टों को सहने वाले, ( उग्रम् ) बलवान् ( सहोदाम् ) बलप्रद, ( तं ) उस पुरुष को ( इह ) इस राष्ट्र में उच्चपद पर ( नूतनाय ) सर्वस्तुत्य, सदा नये से नये, ( अवसे ) रक्षा कार्य और ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( हुवेम ) आदर पूर्वक प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
विश्वासाहं उग्रं सहोदाम्
पदार्थ
[१] हम (नूतनाय) = सदा नवीन व प्रशंसनीय (अवसे) = रक्षण के लिए (इह) = इस जीवन में (तम्) = उस प्रभु को (हुवेम) = पुकारते हैं, जो (मरुत्वन्तम्) = प्रशस्त प्राणोंवाले हैं। वस्तुतः प्रभु इन प्राणों के द्वारा ही हमारा रक्षण करते हैं। इन प्राणों की साधना से हम सदा नीरोग व सशक्त बन पाते हैं । (वृषभम्) = वे प्रभु हमारे में शक्ति का सेचन करनेवाले हैं। प्राणायाम के द्वारा शक्ति का अंगप्रत्यंग में सेचन होता है । (वावृधानम्) = वे प्रभु खूब ही वृद्धि का कारण हैं। (अकवारिम्) = सब कुत्सित शत्रुओं के अभाववाले हैं। [२] हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (दिव्यम्) = प्रकाशमय (शासम्) = सबके शासक (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यवान् हैं। (विश्वासाहम्) = सब शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हैं, (उग्रम्) = तेजस्वी हैं, (सहोदाम्) = बल को देनेवाले हैं। इस बल के द्वारा वे हमें आत्मरक्षण के योग्य बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु प्रशस्त प्राणशक्ति व बल को देकर हमारा रक्षण करते हैं। हम सदा उस दिव्य परमैश्वर्यशाली तेजः- पुञ्ज शासक का आराधन करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
राजजन व प्रजाजन यांनी सर्वांचे रक्षण करण्यासाठी सर्वात उत्तम गुण, कर्म, स्वभावाच्या राजाचा स्वीकार करावा व राजानेही सर्वांच्या संमतीने सत्य न्यायाचे सतत आचरण करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here on the vedi of this dear green earth, for the protection of life and the environment and for progress of the latest order, we invoke, invite and celebrate Indra, lord of glory, commanding humanity and the winds, generously valorous, ever rising, free from detractors, divinely refulgent, all ruling, all forbearing and victorious, illustrious giver of both tolerance and fighting power over evil for victory of the good for constant growth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of people's duties is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ men! as we call upon for new protection, a man who has many admirable men as his assistants and warriors, is very mighty, and waxed in strength. Free from noisy foes, charming, ruling impartially, he shines with the beauty of body, soil and kingdom, putting up with all troubles patiently, (Such people are) full of splendor, giver of strength in the dealing of or for administration. So you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The people of the State and officers should accept a man as ruler who is endowed with the best virtues, actions and that king should administer true justice with the cooperation of all.
Translator's Notes
Griffith translated which is used as epithet or adjective of Indra a ‘Bull', which is ridiculous and absurd.
Foot Notes
(मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो मनुष्या विद्यन्ते यस्य तम् । मरुतो मितराविणेवाऽमितरोचिनेवा मरुद् द्रवन्तीति वा (NKT 11, 2, 14 ) तस्मान्ति भाषिणां तेजन्मित बलवंता वीराणां ग्रहणम् । = Him who has admirable men as his assistants and brave warriors. (अकवारिम्) न विद्यन्ते कवा: शब्दावमाना अरयो यस्य तम् । कु-शब्दे (अदा०) । = Who has no noisy foes. (दिव्यम) कमनीयम् दिवधातोरनेर्थेषु कान्त्येर्थ ग्रहणम् । कान्ति कामना = Charming, desirable.
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