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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ भर॒ वृष॑णं॒ शुष्म॑मिन्द्र धन॒स्पृतं॑ शूशु॒वासं॑ सु॒दक्ष॑म्। येन॒ वंसा॑म॒ पृत॑नासु॒ शत्रू॒न्तवो॒तिभि॑रु॒त जा॒मीँरजा॑मीन् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । भ॒र॒ । वृष॑णम् । शुष्म॑म् । इ॒न्द्र॒ । ध॒न॒ऽस्पृत॑म् । शू॒शु॒ऽवांस॑म् । सु॒ऽदक्ष॑म् । येन॑ । वंसा॑म । पृत॑नासु । शत्रू॑न् । तव॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । उ॒त । जा॒मीन् । अजा॑मीन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो भर वृषणं शुष्ममिन्द्र धनस्पृतं शूशुवासं सुदक्षम्। येन वंसाम पृतनासु शत्रून्तवोतिभिरुत जामीँरजामीन् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। भर। वृषणम्। शुष्मम्। इन्द्र। धनऽस्पृतम्। शूशुऽवांसम्। सुऽदक्षम्। येन। वंसाम। पृतनासु। शत्रून्। तव। ऊतिऽभिः। उत। जामीन्। अजामीन् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं नो वृषणं शुष्मं धनस्पृतं शूशुवांसं सुदक्षमाऽऽभर। येन वयं तवोतिभिर्जामीनुताप्यजामीञ्छत्रून् पृतनासु वंसाम ॥८॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मभ्यम् (भर) धर (वृषणम्) शत्रुसामर्थ्यप्रतिबन्धकम् (शुष्मम्) बलम् (इन्द्र) दुष्टबलविदारक (धनस्पृतम्) धनं स्पृणन्ति येन तम् (शूशुवांसम्) शुभगुणव्यापिनम् (सुदक्षम्) उत्तमबलचातुर्यम् (येन) (वंसाम) विभजेम (पृतनासु) मनुष्यसेनासु (शत्रून्) (तव) (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (उत) (जामीन्) सम्बन्धिनो बन्ध्वादीन् (अजामीन्) असम्बन्धिनो दुष्टान् ॥८॥

    भावार्थः

    राजभिरेवं प्रयत्नो विधेयो येन मित्राणि शत्रवश्च विभक्ता भवेयुस्तथैवं बलं विधेयं येन शत्रवो विलीयेरन् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुष्टों के बलनाशक ! आप (नः) हम लोगों के लिये (वृषणम्) शत्रुओं के सामर्थ्य को रोकनेवाली (शुष्मम्) सेना और (धनस्पृतम्) धन को पूरण करते जिससे उस (शूशुवांसम्) शुभगुणव्यापिनी (सुदक्षम्) उत्तम बल की चतुराई को (आ) सब ओर से (भर) धारण करिये (येन) जिससे हम लोग (तव) आपके (ऊतिभिः) रक्षण आदिकों से (जामीन्) सम्बन्धी बन्धु आदिकों का (उत) और (अजामीन्) असम्बन्धी दुष्ट (शत्रून्) शत्रुओं का (पृतनासु) मनुष्यों की सेनाओं में (वंसाम) विभाग करें ॥८॥

    भावार्थ

    राजाओं को चाहिये कि ऐसा प्रयत्न करें जिससे मित्र और शत्रु पृथक्-पृथक् प्रतीत होवें और वैसी ही सेना रखनी चाहिये जिससे शत्रु नष्ट होवें ॥८॥

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    विषय

    उसके कर्तव्य । प्रजा का शक्तिवर्धन

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ( वृषणं ) बलवान्, उत्तम प्रबन्ध करने में चतुर, ( शुष्मम् ) शत्रुओं को शोषण करने वाले, सुखप्रद, ( धनस्पृतं ) धन को पूर्ण करने वाले, ( शू शुवांसम् ) अति उत्तम, प्रचुर, ( सु-दक्षम् ) उत्तम व्यवहारकुशल, और बलवान् पुरुष ( नः भर ) हमें प्रदान कर । ( येन ) जिसके द्वारा ( तव ऊतिभिः ) तेरे रक्षा कार्यों से सुरक्षित रहकर हम ( पृतनासु ) संग्रामों में ( जामीन् अजामीन् ) क्या बन्धु रूप और क्या बन्धुओं से भिन्न ( शत्रून् ) समस्त शत्रुओं को ( वंसाम ) विनाश करें वा उनका ( पृतनासु वंसाम ) मनुष्यों के बीच न्यायपूर्वक विभाग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृषणं 'शुष्मम्'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (वृषणम्) = सुखों का सेचन करनरेवाले (शुष्मम्) - शत्रु-शोषक बल को (आभर) = प्राप्त कराइये। जो बल (धनस्पृताम्) = हमारे धनों का पालक हो, (शूशुवांसम्) = वृद्धि का कारण बने । (सुदक्षम्) = उत्तम उन्नति का साधन हो । [२] (येन) = जिस बल के द्वारा (तव ऊतिभिः) = आपके रक्षणों से (जामीन् उत अजामीन्) = बन्धुरूप व अबन्धुरूप [अथवा जन्म के साथ उत्पन्न 'सहज' व इससे भिन्न 'कृत्रिम'] सभी (शत्रून्) = शत्रुओं को (पृतनासु) = संग्रामों में (वंसाम) = [हनाम] नष्ट कर सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें वह बल दें जिससे कि हम उत्तम धनों को प्राप्त करके उन्नत हों तथा सब शत्रुओं का पराभव कर सकें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने असा प्रयत्न करावा की, ज्यामुळे मित्र व शत्रू वेगवेगळे असावेत व अशी सेना बाळगावी की ज्यामुळे शत्रू नष्ट व्हावेत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of life and ruler of the world, bless us with that overwhelming vigour and power victorious in our struggles for wealth and prosperity ever rising in excellence, expertise and generosity by which, under your guidance and protection, we may be successful in our battles of life against negative forces and win over our own people and others unrelated, strangers and aliens.

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