ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं व॒ इन्द्रं॑ च॒तिन॑मस्य शा॒कैरि॒ह नू॒नं वा॑ज॒यन्तो॑ हुवेम। यथा॑ चि॒त्पूर्वे॑ जरि॒तार॑ आ॒सुरने॑द्या अनव॒द्या अरि॑ष्टाः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः॒ । इन्द्र॑म् । च॒तिन॑म् । अ॒स्य॒ । शा॒कैः । इ॒ह । नू॒नम् । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । हु॒वे॒म॒ । यथा॑ । चि॒त् । पूर्वे॑ । ज॒रि॒तारः॑ । आ॒सुः । अने॑द्याः । अ॒न॒व॒द्याः । अरि॑ष्टाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं व इन्द्रं चतिनमस्य शाकैरिह नूनं वाजयन्तो हुवेम। यथा चित्पूर्वे जरितार आसुरनेद्या अनवद्या अरिष्टाः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वः। इन्द्रम्। चतिनम्। अस्य। शाकैः। इह। नूनम्। वाजऽयन्तः। हुवेम। यथा। चित्। पूर्वे। जरितारः। आसुः। अनेद्याः। अनवद्याः। अरिष्टाः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथेह पूर्वेऽनेद्या अनवद्या अरिष्टा जरितार आसुस्तथा चिदस्य शाकैस्तं चतिनमिन्द्रं वो नूनं वाजयन्तो वयं हुवेम ॥४॥
पदार्थः
(तम्) (वः) युष्मान् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यप्रदम् (चतिनम्) आनन्दप्रदम् (अस्य) (शाकैः) शक्तिविशेषैः (इह) अस्मिन् संसारे (नूनम्) निश्चितम् (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः (हुवेम) (यथा) (चित्) (पूर्वे) आदिमाः (जरितारः) स्तावकाः (आसुः) भवन्ति (अनेद्याः) अनिन्दनीयाः (अनवद्याः) प्रशंसनीयाः (अरिष्टाः) अहिंसिताः ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा प्रशंसनीया आप्ताः पुरुषा धर्म्येषु कर्मसु वर्त्तित्वा कृतकृत्या भवन्ति तथैव वर्त्तित्वा सर्वे मनुष्या कृतकार्या भवन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे होवें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (इह) इस संसार में (पूर्वे) प्राचीन (अनेद्याः) नहीं करने योग्य (अनवद्याः) प्रशंसनीय (अरिष्टाः) नहीं हिंसित (जरितारः) स्तुति करनेवाले (आसुः) होते हैं, वैसे (चित्) भी (अस्य) इसके (शाकैः) सामर्थ्यविशेषों से (तम्) उस (चतिनम्) आनन्द और (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले को तथा (वः) तुम लोगों को (नूनम्) (वाजयन्तः) जनाते हुए हम लोग (हुवेम) ग्रहण करें ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे प्रशंसा करने योग्य यथार्थवक्ता पुरुष धर्मयुक्त कर्मों में वर्ताव करके कृतकृत्य होते हैं, वैसे ही वर्ताव करके सब मनुष्य कृतकार्य होवें ॥४॥
विषय
सदाचारी प्रजा होने के उद्देश्य से राजा की स्थापना ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुषषो ! प्रजाजनो ! ( नूनं ) निश्चय से हम लोग ( वः ) आप लोगों में से ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यशील, (चतिनम् ) शत्रु के नाशक, पुरुष को ( अस्य शाकैः ) उसकी शक्तियों और सामर्थ्यो से ( वाजयन्तः ) संग्रामों और ऐश्वर्यों की कामना करते हुए ( इह तं हुवेम) उस राष्ट्र में उसको प्राप्त करें । और ( यथाचित् ) जिस प्रकार ( पूर्वे ) पूर्व के ( जरितारः ) विद्वान् उपदेष्टा, ( अनेद्या: ) अनिन्दित आचरण ( अनवद्याः ) स्वच्छ पवित्र, (अरिष्टाः ) अहिंसित जीवन होकर (आसुः) रहे हों वैसे ही हम भी उत्तम आचार चरित्र वाले होकर रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ऋषिः अनेद्या: अनवद्या: अरिष्टाः
पदार्थ
[१] (अस्य शाकैः) = इसके सामर्थ्यो से (चतिनम्) = शत्रुओं का नाश करनेवाले (तं वः) [ त्वां ] = उस तुझ (इन्द्रम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (इह) = इस जीवन में (नूनम्) = निश्चय से (वाजयन्तः) = शक्ति प्राप्ति की कामना करते हुए हुवेम = पुकारते हैं। प्रभु की उपासना से ही वह शक्ति मिलती है, जो हमें शत्रुओं का वध करने में समर्थ करती है। [२] इस शक्ति को प्राप्त करके शत्रुओं का वध करते हुए हम ऐसे बनें (यथा चित्) = जैसे निश्चय से (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (जरितार) = स्तोता लोग (आसुः) = होते हैं। हम भी उनकी तरह ही (अनेद्या) = अनिन्दनीय, (अनवद्या:) = पापरहित व (अरिष्टाः) = अहिंसित हों ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के आराधन से हम शत्रु नाशक शक्ति को प्राप्त करके अनिन्दनीय, पापरहित, अहिंसित जीवनवाले बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे प्रशंसनीय आप्त (विद्वान) पुरुष धर्मयुक्त कर्म करून कृतकृत्य होतात तसे वागून सर्व माणसांनी कृतकृत्य व्हावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O children of the earth, for the sake of you all here in the world, we invoke, invite and adore that lord Indra, fearless giver of joy, with all his power and forces, in pursuit of knowledge, peace and progress, just as the sagely celebrants of all time do and live blameless, irreproachable, and safe and secure against fear and injury.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men (behave and act) is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! let us invite Indra - Giver of great wealth who is also giver of bliss with his great powers, enlightening you about him because he is, as are the ancient devotees of god free from all blame, without reproach and uninjured in this world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as admirable absolutely truthful and enlightened persons become blessed by engaging themselves in righteous deeds, so let all men be blessed by doing like wise.
Foot Notes
(पनेचा:) अनिन्दनीयाः । = Free from blame or reproach. (अनवद्याः) प्रशसनीयाः । = Admirables. (अरिष्टाः) अहिंसिता । = Uninjured or unharmed.
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