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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्ते॒ मदः॑ पृतना॒षाळमृ॑ध्र॒ इन्द्र॒ तं न॒ आ भ॑र शूशु॒वांस॑म्। येन॑ तो॒कस्य॒ तन॑यस्य सा॒तौ मं॑सी॒महि॑ जिगी॒वांस॒स्त्वोताः॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । मदः॑ । पृ॒त॒ना॒षाट् । अमृ॑ध्रः । इन्द्र॑ । तम् । नः॒ । आ । भ॒र॒ । शू॒शु॒ऽवांस॑म् । येन॑ । तो॒कस्य॑ । तन॑यस्य । सा॒तौ । मं॒सी॒महि॑ । जि॒गी॒वांसः॑ । त्वाऽऊ॑ताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते मदः पृतनाषाळमृध्र इन्द्र तं न आ भर शूशुवांसम्। येन तोकस्य तनयस्य सातौ मंसीमहि जिगीवांसस्त्वोताः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। मदः। पृतनाषाट्। अमृध्रः। इन्द्र। तम्। नः। आ। भर। शूशुऽवांसम्। येन। तोकस्य। तनयस्य। सातौ। मंसीमहि। जिगीवांसः। त्वाऽऊताः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र राजन् ! ते योऽमृध्रः पृतनाषाण्मदोऽस्ति येन जिगीवांसस्त्वोता वयं तोकस्य तनयस्य सातौ रक्षां विद्यादानं च मंसीमहि त्वं तं शूशुवांसं न आ भर ॥७॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) तव (मदः) अतिहर्षः (पृतनाषाट्) यः पृतनाः सेनाः सहते सः (अमृध्रः) अहिंस्रः (इन्द्र) राजन् (तम्) (नः) अस्मभ्यम् (आ) (भर) (शूशुवांसम्) शुभगुणव्यापिनम् (येन) (तोकस्य) अपत्यस्य (तनयस्य) सुकुमारस्य (सातौ) संविभागे (मंसीमहि) विजानीयाम (जिगीवांसः) जेतुं शीलाः (त्वोताः) त्वया रक्षिताः ॥७॥

    भावार्थः

    हे प्रजाजना ! राजानं प्रत्येवं ब्रुवन्तु नोऽस्माकं सन्ताना यथा सुशिक्षिताः स्युस्तथा नियमान् विधेहि यतो विजयानन्दौ वर्धेयाताम् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (ते) आप का (यः) जो (अमृध्रः) नहीं हिंसा करने और (पृतनाषाट्) सेनाओं को सहनेवाला (मदः) आनन्द है (येन) जिससे (जिगीवांसः) जीतनेवाले (त्वोताः) आप से रक्षित हम लोग (तोकस्य) सन्तान (तनयस्य) सुकुमार के (सातौ) संविभाग में रक्षा और विद्यावान् को (मंसीमहि) जानें और आप (तम्) उस (शूशुवांसम्) श्रेष्ठ गुणों से व्याप्त को (नः) हम लोगों के लिये (आ, भर) सब प्रकार से धारण करिये ॥७॥

    भावार्थ

    हे प्रजाजनो ! आप लोग राजा के प्रति यह कहो कि हम लोगों के सन्तान जिस प्रकार उत्तम शिक्षित हों, वैसे नियमों को करिये जिससे विजय और आनन्द बढ़े ॥७॥

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    विषय

    उसके कर्तव्य । प्रजा का शक्तिवर्धन

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यः ) जो ( ते ) तेरा ( मदः ) अतिहर्ष, उपदेश वा हर्षकारी, उपदेष्टा ( पृतनाषाट् ) मनुष्यों वा सेनाओं को विजय करने में समर्थ और (अमृध्रः) कभी नाश न होने योग्य है, ( येन ) जिसके द्वारा हम (त्वोता:) तुझ से सुरक्षित रहकर (जिगीवांसः) विजयशील होकर (तोकस्य तनयस्य सातौ) पुत्र पौत्र के प्राप्त होने, और धन विभाग के कार्य में ठीक ज्ञान वा न्याय व्यवहार जान सके (तं ) उस ( शुशुवांसं ) उत्तम गुणों से युक्त, सर्वोत्तम न्यायकर्त्ता पुरुष को ( नः आभर ) हमें प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'पृतनाषाट्-अमृध्रः' मदः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो (ते) = आपका (मदः) = मद-शक्तिजनित उल्लास (पृतनाषाट्) = शत्रु-सैन्य का मर्षण करनेवाला व (अमृध्रः) = अहिंसित है, (तम्) = उसे (नः) = हमारे लिए (आभर) = सर्वथा प्राप्त कराइये। उस मद को, जो (शूशुवांसम्) = बढ़ने ही वाला है, न्यून होनेवाला नहीं। [२] (येन) = जिस मद के द्वारा (तोकस्य तनयस्य सातौ) = पुत्र-पौत्रों की प्राप्ति में (मंसीमहि) = हम सदा आपका स्तवन करें। और (त्वा ऊता:) = आपसे रक्षित हुए हुए (जिगीवांसः) = सदा विजयी हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-स्तवन करते हुए हम उस शक्ति-जनित उल्लास को प्राप्त करें जो - [क] शत्रुसंहार द्वारा हमारी वृद्धि का कारण बने, [ख] उत्तम पुत्र-पौत्रों को प्राप्त करानेवाला हो, [ग] सदा हमें विजयी बनाये ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे प्रजाजनांनो ! तुम्ही राजाला असे म्हणा की आमची संताने ज्या प्रकारे उत्तम शिक्षित होतील तसे नियम तयार करावेत, ज्यामुळे विजय प्राप्त होऊन आनंद वाढेल. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, invincible hero, ruler of life, bless us with that righteous passion of yours, challenging and victorious yet forbearing and unhurtful, which inspires all good virtues and by which, under your protection, we may triumph in life and live happy in the company of our children and grand children.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of kings duties is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! bring to us that friendly (non- violent) rapturous joy which pervades good virtues, and victorious in the battle, so that we who are conquerors by nature, protected by you may know (understand) your protection and gift of knowledge in the matter of our offspring.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O people of the State you should tell the king in this manner, you should get enacted such lands that our children may receive good education, so that victory and joy may grow more and more.

    Foot Notes

    (जिगीवांसः) जेतुं शीलाः जि-जये (भ्वा०) | = Of conquering nature. (शूशुवांसम् ) शुभगुणव्यापिनम् । (दुओ) शिव-गति वृद्धौ (भ्वा०) । = Pervading good virtues. (अमृध:) अहिंसाः । मृधु-मर्दने काशकृत्स्नधातु पाठे (6, 72)। = Non-violent, friendly.

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