ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पृ॒थू क॒रस्ना॑ बहु॒ला गभ॑स्ती अस्म॒द्र्य१॒॑क्सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि। यू॒थेव॑ प॒श्वः प॑शु॒पा दमू॑ना अ॒स्माँ इ॑न्द्रा॒भ्या व॑वृत्स्वा॒जौ ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थू इति॑ । क॒रस्ना॑ । ब॒हु॒ला । गभ॑स्ती॒ इति॑ । अ॒स्म॒द्र्य॑क् । सम् । मि॒मी॒हि॒ । श्रवां॑सि । यू॒थाऽइ॑व । प॒श्वः । प॒शु॒ऽपाः । दमू॑नाः । अ॒स्मान् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । आ॒जौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथू करस्ना बहुला गभस्ती अस्मद्र्य१क्सं मिमीहि श्रवांसि। यूथेव पश्वः पशुपा दमूना अस्माँ इन्द्राभ्या ववृत्स्वाजौ ॥
स्वर रहित पद पाठपृथू इति। करस्ना। बहुला। गभस्ती इति। अस्मद्र्यक्। सम्। मिमीहि। श्रवांसि। यूथाऽइव। पश्वः। पशुऽपाः। दमूनाः। अस्मान्। इन्द्र। अभि। आ। ववृत्स्व। आजौ ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यौ ते पृथू करस्ना बहुला गभस्ती वर्तेते ताभ्यां पशुपाः पश्वो यूथेवाऽस्मद्र्यक् सञ्छवांसि सं मिमीहि। दमूनाः सन्नाजावस्मानभ्याऽऽववृत्स्व ॥३॥
पदार्थः
(पृथू) विस्तीर्णौ (करस्ना) यौ करान् कर्तॄन् स्नापयतश्शोधयतस्तौ (बहुला) याभ्यां बहूँल्लाति तौ (गभस्ती) हस्तौ। गभस्ती इति बाहुनाम। (निघं०२.४) (अस्मद्र्यक्) योऽस्मानञ्चति सः (सम्) (मिमीहि) मन्यस्व (श्रवांसि) अन्नानि श्रवणानि वा (यूथेव) समूह इव (पश्वः) पशोः (पशुपाः) यः पशून् पाति (दमूनाः) दमनशीलः (अस्मान्) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद न्यायेश (अभि) (आ) (ववृत्स्व) अभ्यावर्तस्व (आजौ) संग्रामे ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। त एव श्रीमन्तो य आलस्यं विहाय सदा सत्कर्मणे प्रयतन्ते यथा पशुपालाः पशून् पालयित्वा समृद्धा भवन्ति तथैव पुरुषार्थिनो जना दारिद्र्यं विनाश्य श्रीपतयो जायन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनवाले और न्याय के ईश ! जो आपके (पृथू) विस्तीर्ण (करस्ना) जो करनेवालों को शुद्ध करनेवाले (बहुला) जिन से बहुतों को ग्रहण करते वे (गभस्ती) दोनों हाथ वर्त्तमान हैं उन दोनों से (पशुपाः) पशुओं के रखनेवाले (पश्वः) पशु के (यूथेव) समूह जैसे वैसे (अस्मद्र्यक्) हम लोगों की सेवा करनेवाले होते हुए (श्रवांसि) अन्नों वा श्रवणों का (सम्, मिमीहि) उत्तम प्रकार ग्रहण करिये और (दमूनाः) इन्द्रियों का निग्रह करनेवाले हुए (आजौ) सङ्ग्राम में (अस्मान्) हम लोगों के (अभि) चारों ओर से (आ, ववृत्स्व) अच्छे प्रकार वर्ताव करिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वे ही लक्ष्मीवान् होते हैं, जो आलस्य का त्याग करके सदा सत्कर्म के लिये प्रयत्न करते हैं और जैसे पशुओं के पालनेवाले पशुओं का पालन करके समृद्ध अर्थात् धनवान् होते हैं, वैसे ही पुरुषार्थी जन दारिद्र्य का विनाश करके धन के स्वामी होते हैं ॥३॥
विषय
पशुपालवत् प्रजा का पालक।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यशालिन् ! तू अपने ( पृथू ) अति विशाल ( करस्ना ) नाना कर्मों को करने वाले वा, आर्य जनों को शुद्ध, निर्दोष करने वाले ( गभस्ती ) ग्रहणशील, बाहुओं को (बहुला) बहुत धन प्राप्त करने वाला, बना और उनसे हमें ( श्रवांसि ) नाना प्रकार के अन्न, धन, यश और ज्ञानादि ( सं मिमीहि ) सम्मानपूर्वक प्रदान कर । (पशुपाः पश्वः यूथा इव ) पशुओं का पालक पुरुष जिस प्रकार पशुओं के यूथों को ( आवर्त्तते ) अपने वश करता है उसी प्रकार ( आजौ ) संग्राम काल में तू ( दमूनाः ) दमनशील जितेन्द्रियचित्त होकर ( अस्मान् अभि ) हमारे प्रति ( आ ववृत्स्व ) आ और हमारी रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'पृथू- करस्ना - बहुला' गभस्ती
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (पृथू करस्ना) = विशाल कर्मों को करनेवाली (बहुला) = खूब दान देनेवाली (गभस्ती) = बाहुओं को (अस्मद्र्यक्) = हमारे अभिमुख (संमिमीहि) = बनाइये । तथा (श्रवांसि) = ज्ञानों को करिये । आपकी कृपा से हम खूब क्रियाशील दान देनेवाली भुजाओं को तथा ज्ञानों को प्राप्त करें। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का दमन करनेवाले आप (दमूना:) = दान्तमनवाले होते हुए (आजौ) = संग्राम में (अस्मान् अभ्याववृत्स्व) = हमें प्राप्त होइये, (इव) = जैसे (पशुपाः) = पशुओं का रक्षक (पश्वः यूथा) = पशुओं के झुण्डों को रक्षा के लिए प्राप्त होता है। प्रभु को प्राप्त करके हम संग्राम में विजयी हों ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें विशाल कर्म करनेवाली दानशील भुजाएँ प्राप्त कराएँ तथा संग्राम में हमें प्राप्त हों जिनसे हम विजयी बनें और शत्रुओं से अपना रक्षण कर पाएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे आळस सोडून सदैव सत्कर्मासाठी प्रयत्नशील असतात तेच श्रीमंत होतात व जसे पशुपालन करणारे पशूंचे पालन करून समृद्ध होतात तसेच पुरुषार्थी लोक दारिद्र्याचा नाश करून धनवान होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra,, lord of power and peaceful controller, extend your open, generous and sanctifying hand of plentiful abundance to us for the gift of food and energy, power and fame, and guide us constantly in our battle of life for victory like a shepherd watching, controlling and guiding his flock.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a king be is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! giver of much wealth and dispenser of justice, stretch out those hands of yours and extend towards us, your wide capacious arms and grant us good food materials. As herdsman guards the cattle and other animals, so being agreeable to us, listen to our requests. Being a man of self-control, move you round about us in the battles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only prosper who give up all laziness and try to do noble deeds. As herdsmen become rich by feeding and nourishing (and rearing) the animals, so industrious persons become wealthy by eradicating poverty.
Foot Notes
(गभस्ती) हस्तौ। गभस्ती इति बाहुनाम (NG 2, 4)। =Arms. (करस्ना) यौ करान् कर्त्तुन् स्नापयतः शोधयस्तौ । रुणाशीर्चे (अदा०) (ड) कृत्र-करणे ( तना०)। = Hands which purify the doers of good acts). (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद न्यायेश । इदिपरमेश्वर्य (भ्वा०) इद करणात् (NKT 10, 1, 8) अत्र न्यायकरणात् इत्यस्मिन्थे: गृहीतः । = Giver of great wealth and dispenser of justice.
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