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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भुव॑नस्य पि॒तरं॑ गी॒र्भिरा॒भी रु॒द्रं दिवा॑ व॒र्धया॑ रु॒द्रम॒क्तौ। बृ॒हन्त॑मृ॒ष्वम॒जरं॑ सुषु॒म्नमृध॑ग्घुवेम क॒विने॑षि॒तासः॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुव॑नस्य । पि॒तर॑म् । गीः॒ऽभिः । आ॒भिः । रु॒द्रम् । दिवा॑ । व॒र्धय॑ । रु॒द्रम् । अ॒क्तौ । बृ॒हन्त॑म् । ऋ॒ष्वम् । अ॒जर॑म् । सु॒ऽसु॒म्नम् । ऋध॑क् । हु॒वे॒म॒ । क॒विना॑ । इ॒षि॒तासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवनस्य पितरं गीर्भिराभी रुद्रं दिवा वर्धया रुद्रमक्तौ। बृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नमृधग्घुवेम कविनेषितासः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुवनस्य। पितरम्। गीःऽभिः। आभिः। रुद्रम्। दिवा। वर्धय। रुद्रम्। अक्तौ। बृहन्तम्। ऋष्वम्। अजरम्। सुऽसुम्नम्। ऋधक्। हुवेम। कविना। इषितासः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कः प्रशंसनीयोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यथा कविनेषितासो वयमाभिर्गीर्भिर्भुवनस्य पितरमक्तौ रुद्रं बृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नं रुद्रमृधग्घुवेम तथैतं रुद्रं त्वं दिवा वर्धया ॥१०॥

    पदार्थः

    (भुवनस्य) संसारस्य (पितरम्) पालकम् (गीर्भिः) वाग्भिः (आभिः) वर्त्तमानाभिः (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारम् (दिवा) कामनया विद्यादीप्त्या वा (वर्धया) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रुद्रम्) यो रुद्रोगं द्रावयति तम् (अक्तौ) रात्रौ (बृहन्तम्) वर्धकम् (ऋष्वम्) महान्तम् (अजरम्) जराव्याधिरहितम् (सुषुम्नम्) सुष्ठु सुखयुक्तम् (ऋधक्) सत्यम् (हुवेम) स्तूयामहि (कविना) विदुषा (इषितासः) प्रेरिताः सन्तः ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वे मनुष्या विद्वत्प्रेरिताः सन्तो विद्याविनयव्यवहारे वृद्धा भूत्वा सर्वस्य जगतः पालकं परमात्मानं सत्येन व्यवहारेण प्रशंसन्तु यतोऽविनाशि सुखं प्राप्ताः सर्वे भवेयुः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कौन प्रशंसा करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जैसे (कविना) विद्वान् से (इषितासः) प्रेरणा किये हुए हम लोग (आभिः) इन वर्त्तमान (गीर्भिः) वाणियों से (भुवनस्य) संसार के (पितरम्) पालनेवाले (अक्तौ) रात्रि में (रुद्रम्) दुष्टों को रुलाने और (बृहन्तम्) बढ़ानेवाले (ऋष्वम्) बड़े (अजरम्) जरावस्थारहित (सुषुम्नम्) सुन्दर सुखयुक्त (रुद्रम्) रोग भगानेवाले जन की (ऋधक्) सत्य (हुवेम) स्तुति करें, वैसे इस रुद्र को आप (दिवा) कामना वा विद्यादीप्ति से (वर्धया) बढ़ाओ ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्य विद्वान् से प्रेरणा को पाये हुए विद्या और नम्रता के व्यवहार में वृद्ध होकर सब जगत् के पालनेवाले परमात्मा की सत्य व्यवहार से प्रशंसा करें, जिससे अविनाशी सुख को सब प्राप्त हों ॥१०॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे मनुष्य ( आभि: गीर्भि: ) इन नाना वाणियों से (भुवनस्य पितरं ) समस्त संसार के पालक ( रुद्रं ) रोगों, दुःखों को दूर करने वाले, प्रभु परमेश्वर को ( दिवा ) दिन के समय और उसी ( रुद्रम् ) दुष्टों को रुलाने वाले प्रभु को (अक्तौ) रात्रि के समय भी ( वर्धय ) सदा बढ़ा, सदा उसकी स्तुति कर। और हम (कविना ) विद्वान् पुरुष द्वारा ( इषितासः ) प्रेरित होकर ( बृहन्तम् ) महान् ( ऋष्वम् ) दर्शनीय ( अजरम्) अविनाशी, (सु-सुम्नम् ) उत्तम सुखमय प्रभु को ही ( ऋधक् हुवेम ) सत्य स्वरूप में स्तुति किया करें । इति षष्ठो वर्ग:॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दिन-रात 'भुवन पिता' का स्तवन

    पदार्थ

    [१] (आभिः गीर्भि:) = इन ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियों से (भुवनस्य पितरम्) = सारे ब्रह्माण्ड के रक्षक रुद्र रोगों के द्रावक प्रभु को (दिवा वर्धया) = दिन में बढ़ानेवाला हो, उस प्रभु का स्तवन करनेवाला हो । (रुद्रम्) = इस दुःख द्रावक प्रभु को ही (अक्तौ) = रात्रि में इन ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति वाणियों से बढ़ा । [२] (कविना) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी पुरुषों से (इषितास:) = प्रेरित हुएहुए हम इस (बृहन्तम्) = महान् (ऋष्वम्) = दर्शनीय (अजरम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले (सुषुम्नम्) = उत्तम आनन्दमय प्रभु को (ऋधग्) = सत्यस्वरूप में [truely] (हुवेम) = पुकारें व पूजें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम दिन-रात सब कार्यों को करते हुए प्रभु का पूजन करें। प्रभु ही ब्रह्माण्ड के रक्षक हैं। सब रोगों के द्रावक हैं। ज्ञानी लोग हमें इस महान् दर्शनीय अजर आनन्दमय प्रभु के उपासन के लिये ही प्रेरित करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी विद्वानांकडून प्रेरित होऊन सत्य व्यवहार करून विद्या व नम्रता यात वाढ करून सर्व जगाच्या पालनकर्त्या ईश्वराची प्रशंसा करावी. ज्यामुळे सर्वांना अक्षय सुख प्राप्त व्हावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With all these words of homage by day and in the night, adore and exalt Rudra, guardian sustainer of the world and destroyer of suffering and disease. Inspired and exhorted by the wise poet of vision, let us all in truth and sincerity invoke and adore Rudra, dispenser of justice and punishment, great giver of advancement, unaging and blissful giver of peace and well being.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who is to be ever praised or glorified―is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned man-as impelled by an enlightened person! you glorify God with these words, who is the father of the whole world, being Dispenser of justice, who causes the wicked to weep, and is destroyer of diseases, who is Great, Un-decaying, Blissful and True, day and night, so you should also glorify Him, with the light of knowledge or good desire.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men by truthful dealing should glorify God-impelled by the wise and being advanced in knowledge and humility, who is the sustainer of the world, so that they may attain abiding happiness.

    Foot Notes

    (ऋष्यम्) महान्तम् । ऋष्यः इति महन्नाम (NG 3, 3)। = Great. (अक्तौ) रात्रौ। = At night. (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारम् |= Who causes the wicked to weep, being the Dispenser of justice. (रुद्रम्) यो रुद्रोगं द्रावयति तम् । = Who destroys diseases. (ऋधक्) सत्यम् । ऋक् इति पदनाम (NG 4, 1) पद गतौ गतेष्त्रिष्वथेषु ज्ञानार्थं गृर्हत्वा सदा सत्य ज्ञान स्वरूप । = Absolutely True, Truly. (दिवा) कामनया विद्या दीप्त्या वा । दिवु-वातोऽनेकार्थेषु कान्तियुत्यार्थं ग्रहणम् । = With good desire or the luster of true knowledge.

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