ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 11
आ यु॑वानः कवयो यज्ञियासो॒ मरु॑तो ग॒न्त गृ॑ण॒तो व॑र॒स्याम्। अ॒चि॒त्रं चि॒द्धि जिन्व॑था वृ॒धन्त॑ इ॒त्था नक्ष॑न्तो नरो अङ्गिर॒स्वत् ॥११॥
स्वर सहित पद पाठआ । यु॒वा॒नः॒ । क॒व॒यः॒ । य॒ज्ञि॒या॒सः॒ । मरु॑तः । ग॒न्त । गृ॒ण॒तः । व॒र॒स्याम् । अ॒चि॒त्रम् । चि॒त् । हि । जिन्व॑थ । वृ॒धन्तः॑ । इ॒त्था । नक्ष॑न्तः । न॒रः॒ । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ युवानः कवयो यज्ञियासो मरुतो गन्त गृणतो वरस्याम्। अचित्रं चिद्धि जिन्वथा वृधन्त इत्था नक्षन्तो नरो अङ्गिरस्वत् ॥११॥
स्वर रहित पद पाठआ। युवानः। कवयः। यज्ञियासः। मरुतः। गन्त। गृणतः। वरस्याम्। अचित्रम्। चित्। हि। जिन्वथ। वृधन्तः। इत्था। नक्षन्तः। नरः। अङ्गिरस्वत् ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये युवानो यज्ञियासः कवयो मरुतोऽङ्गिरस्वद्वरस्यां गृणत आ गन्ताऽचित्रं वृधन्त इत्था नक्षन्तो नरश्चिज्जिन्वथा ते हि जगद्धितैषिणो भवन्ति ॥११॥
पदार्थः
(आ) (युवानः) प्राप्तयौवनाः (कवयः) सर्वशास्त्रविदः (यज्ञियासः) ये सत्यप्रियं व्यवहारं कर्तुमर्हन्ति (मरुतः) मनुष्याः (गन्त) प्राप्नुवन्तु (गृणतः) सत्यप्रशंसकान् (वरस्याम्) स्वीकर्त्तव्यां प्रशंसाम् (अचित्रम्) अनद्भुतम् (चित्) अपि (हि) यतः (जिन्वथा) प्राप्नुवन्ति। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृधन्तः) वर्धमानाः (इत्था) अनेन प्रकारेण (नक्षन्तः) प्राप्नुवन्तः (नरः) नायकाः (अङ्गिरस्वत्) प्रशस्ता अङ्गिरसो वायवस्तद्वत् ॥११॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वांसो युवानो भूत्वा सत्क्रियां कृत्वा सर्वान् वर्धयन्ति ते वृद्धियुक्ता भवन्ति ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्या क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (युवानः) युवा पुरुष (यज्ञियासः) सत्य प्रिय व्यवहार को करने योग्य हैं तथा (कवयः) सर्व शास्त्रवेत्ता (मरुतः) मनुष्य (अङ्गिरस्वत्) प्रशंसित वायुओं के समान (वरस्याम्) स्वीकार करने योग्य प्रशंसा को तथा (गृणतः) सत्य की प्रशंसा करनेवाले विद्वानों को (आ, गन्त) प्राप्त हों तथा (अचित्रम्) साधारण (वृधन्तः) बढ़ाने और (इत्था) इस प्रकार से (नक्षन्तः) व्याप्त होते हुए (नरः) नायक मनुष्य (चित्) ही (जिन्वथा) प्राप्त हों वे (हि) ही जगत्-हितैषी होते हैं ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वान् तथा युवावस्थावाले होकर और अच्छी क्रिया कर सब को बढ़ाते हैं, वे वृद्धियुक्त होते हैं ॥११॥
विषय
missing
भावार्थ
( अङ्गिरस्वत् मरुतः चित् अचित्रं जिन्वन्ति ) दीप्ति युक्त किरणों के समान वायुगण जिस प्रकार नाना ओषधि आदि से रहित क्षेत्र को जल बरसा कर तृप्त करते हैं उसी प्रकार हे ( युवानः कवयः ) युवा विद्वान् पुरुषो ! हे ( नरः ) नेता जनो ! आप लोग भी ( अंगिरस्वत् ) अग्नियों, किरणों या प्राणों के तुल्य ( नक्षन्तः ) स्थान २ पर जाते हुए (अचित्रं हि जिन्वथ) साधारण जन को ज्ञान से तृप्त करो और (वृधन्तः) बढ़ते, बढ़ाते हुए, ( यज्ञियासः ) उत्तम आदर सत्कार के योग्य होकर ( गृणतः ) उपदेश करने वाले पुरुष की (वरस्यां ) उत्तम वाणी को ( गन्त ) ग्रहण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'युवा कवि यज्ञिय' मरुत्
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो! आप (युवान:) = बुराई को दूर करनेवाले व अच्छाई को मिलानेवाले हो। (कवयः) = क्रान्तप्रज्ञ व बुद्धिमान् हो । (यज्ञियासः) = यज्ञशील हो। (गृणतः) = स्तोता की (वरस्याम्) = वरणीय स्तुति को (आगन्त) = प्राप्त होते हो । प्राणसाधना के द्वारा [क] दुरितों का दूरीकरण होकर भद्रों की प्राप्ति होती है । [ख] बुद्धि की सूक्ष्मता प्राप्त होती है, [ग] यज्ञशीलता की वृद्धि होती है, [घ] प्रभु स्तवन की ओर झुकाव बढ़ता है। [२] (इत्था) = इस प्रकार (अंगिरस्वत्) = गमनशील की तरह (नक्षन्तः) - हमारे अन्दर गति करते हुए (नरः) = उन्नतिपथ पर लेजानेवाले प्राणो! आप (अचित्रम्) = [अ चित्] अप्रकाशित भी, अचेतनावाले भी हमारे हृदयों को (जिन्वथ) = प्रीणित करते हो । प्राणसाधना से एक-एक अंग में स्फूर्ति का वर्धन होता है। हृदयों में प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना ही सब बुराइयों को दूर करनेवाली व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाली है। यह हमें 'ज्ञानी, यज्ञशील व स्तुतिप्रवण' बनाती है। यही हमारे हृदयों में प्रभु के प्रकाश को प्राप्त कराती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वान व युवा बनून सत्कार्य करून सर्वांना वाढवितात तीही वर्धित होतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come O Maruts, youthful, creative visionaries and adorable yajakas vibrant as winds, and listen to the exhortations of the celebrants: you are leading lights of nature and humanity, messengers and harbingers of the breath of life, reaching everywhere, advancing yourself and raising all thus, you revitalise even the less than ordinary lands and rejuvenate worse than terminable cases of suffering and bless them with new life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do- is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! those youthful leading persons, who are knowers of all the scriptures, fit to perform truthful dealing, like good air (or Pranas) approach those, who are real admirers of truth and get acceptable praise, who augment what is not even wonderful or significant and thus coming, satisfy all, become the well-wishers of the whole world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons, who having become youthful, (energetic) scholars, help in the development of all, grow harmoniously.
Foot Notes
(कवयः) सर्व शास्त्राविदः। = Knowers of all Shastras. (scriptures) (अङ्गिरस्वत्) प्रशस्ता अङ्गिरसो वायवस्तद्वत् । प्राणो वा अङ्गिरा: (Stph. Br. 6,1,2,28,5,2,3,4) प्राणौ वै यमोऽङ्गिरस्वान् (व तैत्तिरीयारण्ये 5, 7, 1, 9) = Like good airs.
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