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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स मे॒ वपु॑श्छदयद॒श्विनो॒र्यो रथो॑ वि॒रुक्मा॒न्मन॑सा युजा॒नः। येन॑ नरा नासत्येष॒यध्यै॑ व॒र्तिर्या॒थस्तन॑याय॒ त्मने॑ च ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मे॒ । वपुः॑ । छ॒द॒य॒त् । अ॒श्विनोः॑ । यः । रथः॑ । वि॒रुक्मा॑न् । मन॑सा । यु॒जा॒नः । येन॑ । न॒रा॒ । ना॒स॒त्या॒ । इ॒ष॒यध्यै॑ । व॒र्तिः । या॒थः । तन॑याय । त्मने॑ । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मे वपुश्छदयदश्विनोर्यो रथो विरुक्मान्मनसा युजानः। येन नरा नासत्येषयध्यै वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मे। वपुः। छदयत्। अश्विनोः। यः। रथः। विरुक्मान्। मनसा। युजानः। येन। नरा। नासत्या। इषयध्यै। वर्तिः। याथः। तनयाय। त्मने। च ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः केन किं प्राप्नुयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! योऽश्विनोर्विरुक्मान् मनसा युजानो रथो मे वपुश्छदयद्येन तनयाय त्मने च नरा नासत्या अध्यापकोपदेशकौ योगिनाविषयध्यै यो वर्त्तिस्तं याथः स युष्माभिर्विदित्वा मनसात्मनि नियोजनीयः ॥५॥

    पदार्थः

    (सः) (मे) मम (वपुः) शरीरं रूपं वा (छदयत्) बलयति (अश्विनोः) प्राणाऽपानयोः (यः) (रथः) रमणीयो व्यवहारः (विरुक्मान्) विविधदीप्तियुक्तः (मनसा) अन्तःकरणेन (युजानः) (येन) (नरा) नरौ नायकौ (नासत्या) अविद्यमानाऽसत्यौ (इषयध्यै) एषयितुम् (वर्त्तिः) मार्गः (याथः) प्राप्नुतः (तनयाय) सन्तानाय (त्मने) आत्मने (च) ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येन वायुना योगिनो विविधं विज्ञानं प्राप्नुवन्ति येन सर्वं जगत्सर्वे प्राणिनश्च जीवन्ति तदभ्यासेन परमात्मानं विदित्वा मुक्तिपथेनानन्दं प्राप्नुत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किससे किसको प्राप्त होवें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (यः) जो (अश्विनोः) प्राण और अपान के (विरुक्मान्) विविधदीप्तियुक्त (मनसा) अन्तःकरण से (युजानः) युक्त होता हुआ (रथः) रमणीय व्यवहार (मे) मेरे (वपुः) शरीर वा रूप को (छदयत्) बली करता है तथा (येन) जिससे (तनयाय) सन्तान के लिये (त्मने, च) और अपने लिये (नरा) नायक अग्रगामी (नासत्या) जिनके असत्य विद्यमान नहीं वे अध्यापक और उपदेशक योगीजन (इषयध्यै) चलने के लिये जो (वर्त्तिः) मार्ग है उसको (याथः) प्राप्त होते हैं (सः) वह तुम लोगों को चाहिये कि जानकर अन्तःकरण से आत्मा में निरन्तर यत्न =युक्त करने योग्य हो ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस वायु से योगीजन विविध प्रकार के विज्ञान को प्राप्त होते हैं तथा जिससे सब जगत् वा सब प्राणी जीते हैं, उसके अभ्यास से परमात्मा को जान कर मुक्ति-पथ से आनन्द को प्राप्त होओ ॥५॥

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    विषय

    पक्षान्तर में योगी को उपदेश ।

    भावार्थ

    ( यत् रथ: ) जो रमणीय, सुखजनक व्यवहार ( विरुक्मान् ) विविध रूचियों से समृद्ध, ( मनसा युजानः ) चित्त से जुड़ने वाला है (येन ) जिससे ( नरा ) स्त्री और पुरुष दोनों (न-असत्या ) कभी परस्पर असत्याचरण न करते हुए वा नासिका अर्थात् मुख्य स्थान पर विराजते हुए, ( तनयाय त्मने च ) पुत्र लाभ और अपने जीवन या आत्मा के हितार्थ ( वर्त्तिः याथः ) जीवन-मार्ग व्यतीत करते हैं वह ( विरुक्मान् रथः ) विशेष कान्तिमान् रथ के समान आश्रय ( मे वपुः च्छदयत् ) मेरे शरीर को आश्रय, बल देता हुआ उसकी रक्षा करे । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'विरुक्मान्' रथ

    पदार्थ

    [१] (अश्विनो:) = प्राणापान का (यः) = जो (रथः) = रथ है, (सः) = वह मे (वपुः) = मेरे शरीर को (छदयत्) = तेज से आवृत करनेवाला हो । अर्थात् मैं इस शरीर रथ में प्राणसाधना द्वारा तेजस्विता का स्थापन करूँ। यह शरीर-रथ ऐसा बने कि (विरुक्मान्) = विशिष्ट दीप्तिवाला हो। (मनसा युजानः) = मन से युक्त हो । मन रूप उत्तम लगामवाला हो। [२] (येन) = जिस रथ से (नरः) = हमें आगे-आगे ले चलनेवाले (ना सत्या) = असत्यों से दूर रहनेवाले प्राणापानो! आप (इषयध्यै) = सब इष्ट कामनाओं को प्राप्त कराने के लिये (वर्तिः याथः) = इस शरीर गृह को प्राप्त होते हो और तनयाय शक्तियों के विस्तार के लिये होते हो (च) = तथा (त्मने) = आत्म प्राप्ति के लिये होते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इस शरीर को प्राणसाधना के द्वारा तेजस्वी व दीप्त बनायें। उत्तम मन से युक्त हुआ-हुआ यह शरीर शक्तियों के विस्तारवाला व अन्ततः प्रभु प्राप्तिवाला हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्या वायूने योगी विविध प्रकारचे विज्ञान प्राप्त करतात व ज्याच्यामुळे सर्व जग व सर्व प्राणी जीवित असतात त्याचा अभ्यास करून परमात्म्याला जाणावे व मुक्तीचा आनंद मिळवावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That brilliant chariot of the Ashvins, complementary currents of universal energy of divine nature, directed by the mind, may, I pray, vest my body and mind with light and energy, the chariot by which leading lights of humanity dedicated to Truth and Divinity go by the path of righteousness in search of enlightenment for themselves and their children.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men attain and how is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons ! that charming dealing, which is endowed with various luster of the Prana and Apana, that strengthens my body or form harnessed (performed) with mind, by which absolutely truthful leading men, teachers and preachers, who are Yogis go to the path of righteousness for them- selves and progeny to enlighten others. You should also know that and yoke it (perform) with mind.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! by the practice of Pranayama or (control of breath) Yogis acquire knowledge of various kinds and on which all the beings of the world live, by knowing all about it properly and practicing its control, know God and enjoy the bliss of emancipation.

    Foot Notes

    (वपु:) शरीरं रूपं वा । वपुः इति रूपनाम (NG 3, 7) शरीरार्थसु सुप्रसिद्ध एव । = Body or form. (छदयत्) बलयति । छद-संवरणे (चु) संवरणम्-सम्यग् वरणांतच्चवलस्यैव संभवतीति बलयतीति व्याख्यानम् । = Strengthens. (रथा) रमणीयो व्यवहारः । रथ:- रममाणोऽस्मिस्तिष्ठतीति (NKT 9, 2, 11) अत्र रमुक्रीडायाम् इत्यर्थमादाय रमणीयो व्यवहार इति व्याख्या | = Charming dealing.

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