ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 12
ऋषिः - ऋजिश्वाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र वी॒राय॒ प्र त॒वसे॑ तु॒रायाजा॑ यू॒थेव॑ पशु॒रक्षि॒रस्त॑म्। स पि॑स्पृशति त॒न्वि॑ श्रु॒तस्य॒ स्तृभि॒र्न नाकं॑ वच॒नस्य॒ विपः॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वी॒राय॑ । प्र । त॒वसे॑ । तु॒राय॑ । अज॑ । यू॒थाऽइ॑व । प॒शु॒ऽरक्षिः॑ । अस्त॑म् । सः । पि॒स्पृ॒श॒ति॒ । त॒न्वि॑ । श्रु॒तस्य॑ । स्तृऽभिः॑ । न । नाक॑म् । व॒च॒नस्य॑ । विपः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वीराय प्र तवसे तुरायाजा यूथेव पशुरक्षिरस्तम्। स पिस्पृशति तन्वि श्रुतस्य स्तृभिर्न नाकं वचनस्य विपः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वीराय। प्र। तवसे। तुराय। अज। यूथाऽइव। पशुऽरक्षिः। अस्तम्। सः। पिस्पृशति। तन्वि। श्रुतस्य। स्तृऽभिः। न। नाकम्। वचनस्य। विपः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किंवत् किं प्राप्नुयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो विपः स्तृभिर्नाकं न तन्वि श्रुतस्य वचनस्याऽजा यूथेव पशुरक्षिरस्तमिव वीराय तवसे तुरायास्तं प्र पिस्पृशति स सुखानि प्र पिस्पृशति ॥१२॥
पदार्थः
(प्र) (वीराय) शौर्यादिगुणोपेताय (प्र) (तवसे) वर्धकाय (तुराय) दुःखहिंसकाय (अजा) छागः (यूथेव) समूह इव (पशुरक्षिः) पशूनां रक्षकः (अस्तम्) गृहम् (सः) (पिस्पृशति) अत्यन्तं स्पृशति (तन्वि) शरीरे (श्रुतस्य) (स्तृभिः) नक्षत्रैः (न) इव (नाकम्) अविद्यमानदुःखमन्तरिक्षम् (वचनस्य) (विपः) मेधावी ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यो यथाऽजाऽवयो धावित्वा स्वसमुदायं यथा वा सायं समये गोपालो गृहं तथा सकलविद्याश्रवणं प्राप्नोति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किसके तुल्य किसको प्राप्त हों, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (विपः) मेधावीजन (स्तृभिः) नक्षत्रों से (नाकम्) जिसमें दुःख नहीं विद्यमान उस अन्तरिक्ष को (न) जैसे (तन्वि) शरीर में (श्रुतस्य) सुने हुए (वचनस्य) वचन का वा (अजा) छाग (यूथेव) समूहों को जैसे वैसे वा (पशुरक्षिः) पशुओं की रक्षा करनेवाला (अस्तम्) घर को जैसे वैसे (वीराय) शूरता आदि गुणों से युक्त (तवसे) बढ़ानेवाले (तुराय) दुःखनाशक के लिये घर का (प्र, पिस्पृशति) अत्यन्त स्पर्श करता (सः) वह सुखों का (प्र) अच्छे प्रकार अत्यन्त स्पर्श करता है ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य, जैसे भेड़ बकरी दौड़ के अपने झुण्ड को वा जैसे सायङ्काल में गोपाल घरको, वैसे समस्त विद्या के श्रवण को प्राप्त होता है ॥१२॥
विषय
missing
भावार्थ
( पशुरक्षिः अस्तम् यूथा इव ) पशुओं की रक्षा करने वाला, पशुपालक जिस प्रकार अपने पशुओं के रेबड़ों को अपने घर को हांक ले जाता है उसी प्रकार तू ( वीराय ) वीर, विविध विद्या के दाता, (तवसे) बलवान्, ( तुराय ) शत्रु हिंसक पुरुष के लिये ( प्र अजं ) स्तुतियें प्रकट कर, वा ( यूथा प्र अज) जन समूहों को उत्तम मार्ग में चल । ( नाकं स्तृभिः न ) अन्तरिक्ष जिस प्रकार नक्षत्रों से मण्डित होता है उसी प्रकार ( सः विपः ) वह विद्वान् भी ( श्रुतस्य ) श्रवण करने योग्य ( तन्वि स्तृभिः ) शरीर पर उत्तम आच्छादक वस्त्रों से सुशोभित होकर (श्रुतस्य वचनस्य ) श्रवण योग्य, उत्तम वचन का ( पिस्पृशति ) निरन्तर श्रवण किया करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्तृभिर्न नाकम्
पदार्थ
[१] (वीराय) = शत्रुओं के कम्पक [वि + ईर], (तवसे) = बलवान्, (तुराय) = त्वरित गमनवाले, स्फूर्तिवाले इस प्राणापान के लिये (प्र अजा) = तू प्रकर्षेण गतिवाला हो, शीघ्रता से प्राणसाधना में प्रवृत्त होनेवाला हो, उसी प्रकार इव जैसे कि सायंकाल (पशुरक्षिः) = पशुओं का रक्षक यूथा पशुसमूह को (अस्तम्) = गृह की ओर प्रेरित करता है । [२] (सः) = वह प्राणगण (वचनस्य) = इस स्तुतिवचनों के (वक्ता विपः) = मेधावी पुरुष के मस्तिष्क शरीर में (श्रुतस्य पिस्पृशति) = ज्ञानों का इस प्रकार सम्पर्क करता है, (न) = जैसे कि प्रभु (स्तृभिः) = नक्षत्रों से, सितारों से (नाकम्) = अन्तरिक्ष को [द्युलोक को] सजा [चमका] देते हैं। अर्थात् प्राणसाधना से मस्तिष्क ज्ञान-विज्ञान के नक्षत्रों से चमक उठता
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना हमें 'वीर, बलवान, स्फूर्तिवाला व ज्ञान-विज्ञान से दीप्त' बनाती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा मेंढ्या, बकऱ्या धावत येऊन आपल्या कळपात राहतात व गोपाळ सायंकाळी घरी येतो तसे माणूस संपूर्ण विद्या श्रवणाने प्राप्त करतो. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Reach the brave, the courageous and the instant destroyer of suffering and darkness, and, like a shepherd leading the flock home, let your words of prayer and adoration rest there, and just as the sky is decked and adorned by the stars, so the listener is touched at heart by the words of the prayerful man of the revealed Word.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men attain like whom-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! that exceedingly wise man, who touches with these hymns true body of that hero, who is destroyer of miseries, is increaser of strength as firmament is, bedecked by the stars like a she goat going to join her herd or like the herdsman driving his cattle to his home, enjoys happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A good and industrious man acquires the knowledge of all sciences, as goats and sheep reach their herd by running or as a herdsman takes his cattle to his home in the evening.
Foot Notes
(तुराय) दुःखहिसकाय । तूरी-गतित्वरण हिंसनयो: (दिवा.) अत्र हिन्सनार्थः। तु-गतिवृद्धिहिन्सासु-सौत्राधातुः (अदा.)। = For a destroyer of miseries. (तवसे) वर्धकाय। = For increaser of strength. (स्तृभिः) नक्षत्रैः। = By stars.
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