ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
यो अ॑स्मै ह॒विषावि॑ध॒न्न तं पू॒षापि॑ मृष्यते। प्र॒थ॒मो वि॑न्दते॒ वसु॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयः । अ॒स्मै॒ । ह॒विषा । अवि॑धत् । न । तम् । पू॒षा । अपि॑ । मृ॒ष्य॒ते॒ । प्र॒थ॒मः । वि॒न्द॒ते॒ । वसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्मै हविषाविधन्न तं पूषापि मृष्यते। प्रथमो विन्दते वसु ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयः। अस्मै। हविषा। अविधत्। न। तम्। पूषा। अपि। मृष्यते। प्रथमः। विन्दते। वसु ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
को महाञ्छ्रीमान् भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यो हविषाऽस्मै वस्वविधत् प्रथमो वसु विन्दते तं पूषाऽपि न मृष्यते ॥४॥
पदार्थः
(यः) (अस्मै) (हविषा) दानेनादानेन वा (अविधत्) विदधाति (न) निषेधे (तम्) (पूषा) (अपि) (मृष्यते) सहते (प्रथमः) आदिमः शिल्पी (विन्दते) प्राप्नोति (वसु) बहुधनम् ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यः प्रथमतः शिल्पविद्यां प्राप्य क्रियया पदार्थान् निर्मिमीते स पुष्कलां श्रियं प्राप्नोति तत्सदृशः पुष्टः कोऽपि न भवति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन महान् श्रीमान् होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यः) जो (हविषा) देने वा लेने से (अस्मै) इसके लिये (वसु) बहुत धन का (अविधत्) विधान करता है वा (प्रथमः) पहिला कारुक धन (विन्दते) पाता है (तम्) उसको (पूषा) पुष्टि करनेवाला (अपि) भी (न) नहीं (मृष्यते) सहता है ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो पहिले से शिल्पविद्या को पाकर क्रिया से पदार्थों का निर्माण करता है, वह बहुत धन को प्राप्त होता है, उसके सदृश पुष्ट कोई नहीं होता है ॥४॥
विषय
missing
भावार्थ
( यः ) जो व्यक्ति (अस्मै ) इस प्रजाजन का ( हविषा ) लेने देने योग्य कर अन्नादि से ( अविधत् ) पीड़ित करता है और स्वयं ( प्रथमः ) मुख्य होकर ( वसु विन्दते ) धन लेता है, ( तं पूषा : अपि ) उसको प्रजापोषक राजा भी (न मृष्यते) कभी सहन नहीं करता ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, २, ४, ६, ७, ८, ९ गायत्री । ३, १० निचृद्गायत्री । ५ विराङ्गायत्री ।। षड्ज: स्वरः ।।
विषय
प्रभु पूजन व अविनाश
पदार्थ
[१] (यः) = जो भी उपासक (अस्मै) = इस पोषक प्रभु के लिये (हविषा अविधत्) = दानपूर्वक अदन के द्वारा पूजन करता है, (तम्) = उसे (पूषा) = ये पोषक प्रभु (अपि) = [ईषद् अर्थे] थोड़ा भी (न मृष्यते) = हिंसित नहीं करते। दानपूर्वक अदन ही यज्ञ शेष का सेवन है। यह यज्ञशेष का सेवन ही मनुष्य को अमृतत्व प्राप्त कराता है । [२] यह यज्ञशेष का सेवन करनेवाला (प्रथमः) = प्रथम स्थान को प्राप्त करता है [प्रथ विस्तारे] खूब ही अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है। यह (वसु विन्दते) = निवास के लिये आवश्यक सब धनों को यह प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- जब हम दानपूर्वक अदन करते हुए, सदा यज्ञशेष का सेवन करते हुए, प्रभु का पूजन करते हैं, तो हिंसित नहीं होते और सब वसुओं को प्राप्त करते हैं। वसुमान बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो प्रथम शिल्पविद्या प्राप्त करून पदार्थांची निर्मिती करतो त्याला खूप धन प्राप्त होते. त्याच्यासारखे समृद्ध कोणी नसते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Pusha, lord ruler and giver of nourishment and growth, does not hurt or challenge him who offers homage with creative and constructive projects in honour of him. Indeed, the first and original inventor and maker of basic things wins rewards of wealth for the invention.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who become great and wealthy-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened men! the nourishing king does not tolerate an artist (or any other person) who, by giving or taking unjustly becomes foremost and acquires much wealth. But he, who acquires wealth justly becomes unequalled.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that person, who gets the first hand knowledge of technology and none is equal to him in nourishment, growth and development.
Foot Notes
(मुष्यते) सहते । मृष-तितिक्षायाम् (दिवा.) । = Tolerates, puts up with. (हबिषा) दानेनादानेन वा । हु-दानादनर्योः आदाने च (जुहो.)। = By giving or taking.
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