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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मण्डूकाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒न्यो अ॒न्यमनु॑ गृभ्णात्येनोर॒पां प्र॑स॒र्गे यदम॑न्दिषाताम् । म॒ण्डूको॒ यद॒भिवृ॑ष्ट॒: कनि॑ष्क॒न्पृश्नि॑: सम्पृ॒ङ्क्ते हरि॑तेन॒ वाच॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्यः । अ॒न्यम् । अनु॑ । गृ॒भ्णा॒ति॒ । ए॒नोः॒ । अ॒पाम् । प्र॒ऽस॒र्गे । यत् । अम॑न्दिषाताम् । म॒ण्डूकः॑ । यत् । अ॒भिऽवृ॑ष्टः । कनि॑स्कन् । पृश्निः॑ । स॒म्ऽपृ॒ङ्क्ते । हरि॑तेन । वाच॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्यो अन्यमनु गृभ्णात्येनोरपां प्रसर्गे यदमन्दिषाताम् । मण्डूको यदभिवृष्ट: कनिष्कन्पृश्नि: सम्पृङ्क्ते हरितेन वाचम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्यः । अन्यम् । अनु । गृभ्णाति । एनोः । अपाम् । प्रऽसर्गे । यत् । अमन्दिषाताम् । मण्डूकः । यत् । अभिऽवृष्टः । कनिस्कन् । पृश्निः । सम्ऽपृङ्क्ते । हरितेन । वाचम् ॥ ७.१०३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) यदा (अपाम्, प्रसर्गे) वृष्टिर्भवति तदा (एनोः) अनयोर्मध्यात् (अन्यः मण्डूकः) एको जलजन्तुः (अन्यम्, अनुगृभ्णाति) द्वितीयमुपेत्योपविशति, तथा (अमन्दिषाताम्) उभावपि सञ्जातहर्षौ भवतः (यत्) यदा च (अभिवृष्टः) अभिसिक्तो भवति तदा (पृश्निः कनिष्कन्) कश्चित्पृश्निवर्ण उत्प्लवमानः (हरितेन, वाचम्, सम्पृङ्क्ते) केनचिद्धरितवर्णेन स्ववाचं संयोजयति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (अपाम्, प्रसर्गे) वृष्टि होती है, तब (एनोः) इसमें से (अन्यः, मण्डूकः) एक जलजन्तु (अन्यम्, अनुगृभ्णाति) दूसरे के समीप जाकर बैठता है और (अमन्दिषाताम्) दोनों हर्षित होते हैं तथा (यत्) जब (अभिवृष्टः) यह अभिषिक्त होता है, तब यह (पृश्निः, कनिष्कन्) चित्रवर्णवाला कूदता हुआ (हरितेन, वाचम्, संपृङ्क्ते) दूसरे स्फूर्तिवाले के साथ वाणी को संयोजित करता है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे जीवो ! तुम प्रकृतिसिद्ध वर्षा आदि ऋतुओं में नूतन-नूतन भावों को ग्रहण करनेवाले जल-जन्तुओं से शिक्षा लाभ करो कि वे जिस प्रकार हर्षित होकर उद्योगी बनते हैं, इसी प्रकार तुम भी उद्योगी बनो ॥४॥

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    विषय

    मण्डूकों के दृष्टान्त से ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और नाना विद्याओं के विद्वानों के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अपां प्रसर्गे ) जलों के खूब होजाने पर (यत् अमन्दिषाताम्) जब दो मेंडक बहुत प्रसन्न होजाते (अन्यः अन्यम् अनुगृभ्णाति एक दूसरे को पकड़ लेता है, ( कनिष्कन् मंडूकः पृश्निः हरितेन वाचं सम्पृङक्ते ) पीला कूदता मेंडक हरे मेंडक से अपनी आवाज़ मिलाता है उसी प्रकार ( यत् ) जब (अपां प्रसर्गे) आप्त वेदज्ञानों के प्रदान करने के लिये गुरु शिष्य दोनों ( अमन्दिषाताम् ) अति प्रसन्न हो जाते हैं ( एनोः ) इन पूर्वोक्त गुरु और शिष्य दोनों में से ( अन्यः ) एक गुरु, आचार्य (अन्यम् ) दूसरे को ( अनुगृभ्णाति ) अनुग्रहपूर्वक स्वीकार करता है और ( यत् ) जो ( अभिवृष्टः ) अभिषेचित विद्याव्रत स्नातक ( मण्डूकः ) अति हर्षवान् हो ( कनिष्कन् ) अन्यों को विद्या प्रदान करता है तब ( पृश्निः ) वेद का विद्वान् या प्रश्न करने योग्य विद्वान् ( हरितेन ) ज्ञान ग्रहण करने वाले शिष्य से (वाचम् संपृङ्क्ते ) अपनी वाणी का सम्पर्क कराता है, उसको अपना ज्ञान वादानुवादपूर्वक प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ मण्डूका देवताः॥ छन्दः—१ आर्षी अनुष्टुप् । २, ६, ७, ८, १० आर्षी त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    विद्या का दान

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (अपां प्रस) = जलों के खूब हो जाने पर (यत् अमन्दिषाताम्) = जब दो मेंढक प्रसन्न हो जाते हैं (अन्यः अन्यम् अनुगृभ्णाति) = एक दूसरे को पकड़ लेता है, (कनिष्कन् मंडूकः पृश्निः हरितेन वाचं सम्पृङ्गे) = पीला, कूदता मेंढक हरे मेंढक से अपनी आवाज मिला है वैसे ही (यत्) = जब (अपां प्रसर्गे) = आप्त वेदज्ञानों के देने के लिये गुरु-शिष्य दोनों (अमन्दिषाताम्) = प्रसन्न हो जाते हैं (एनो:) = इन गुरु और शिष्य में से (अन्यः) = एक गुरु, (अन्यम्) = दूसरे को (अनुगृभ्णाति) = अनुग्रहपूर्वक स्वीकार करता है और (यत्) = जो (अभिवृष्ट:) = अभिषेचित विद्याव्रत-स्नातक (मण्डूकः) = हर्षवान् होकर (कनिष्कन्) = विद्या प्रदान करता है तब (पृश्नि:) = वेद का विद्वान् (हरितेन) = ज्ञान-ग्राहक शिष्य से (वाचम् संपृक्ते) = अपनी वाणी का सम्पर्क कराता है, उसे ज्ञान देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- गुरुजन अपने ब्रह्मचारी शिष्यों के साथ मिलकर अनुग्रहपूर्वक विद्या प्रदान करते हैं। तब ये शिष्य विद्याव्रत-स्नातक होकर प्रसन्नतापूर्वक समावर्त्तित होकर जाते हैं। अब ये विद्वान् भी अपने समीप आनेवाले शिष्यों को विद्या का दान करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    On the fall of divine showers they seize upon each other while both experience the ecstasy of meeting and the rain. When the celebrant is soaked in the rain, the spotted versatile one springs forward and communicates with the green one in concentration in the language of intimacy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे जीवांनो! तुम्ही प्रकृतिसिद्ध वर्षा इत्यादी ऋतूमध्ये नवनवीन भाव ग्रहण करणाऱ्या जलजंतूकडून शिकवण घ्या. ते ज्याप्रमाणे हर्षित होऊन उद्योगी बनतात. त्याच प्रकारे तुम्हीही उद्योगी बना. ॥४॥

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