ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 5
यदे॑षाम॒न्यो अ॒न्यस्य॒ वाचं॑ शा॒क्तस्ये॑व॒ वद॑ति॒ शिक्ष॑माणः । सर्वं॒ तदे॑षां स॒मृधे॑व॒ पर्व॒ यत्सु॒वाचो॒ वद॑थ॒नाध्य॒प्सु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ए॒षा॒म् । अ॒न्यः । अ॒न्यस्य॑ । वाच॑म् । शा॒क्तस्य॑ऽइव । वद॑ति । शिक्ष॑माणः । सर्व॑म् । तत् । ए॒षा॒म् । स॒मृधा॑ऽइव । पर्व॑ । यत् । सु॒ऽवाचः॑ । वद॑थन । अधि॑ । अ॒प्ऽसु ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदेषामन्यो अन्यस्य वाचं शाक्तस्येव वदति शिक्षमाणः । सर्वं तदेषां समृधेव पर्व यत्सुवाचो वदथनाध्यप्सु ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । एषाम् । अन्यः । अन्यस्य । वाचम् । शाक्तस्यऽइव । वदति । शिक्षमाणः । सर्वम् । तत् । एषाम् । समृधाऽइव । पर्व । यत् । सुऽवाचः । वदथन । अधि । अप्ऽसु ॥ ७.१०३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यस्मात् (अन्यः, शिक्षमाणः) इतरो लभ्यमानशिक्षः (शाक्तस्य, इव) शक्तिमतः शिक्षितस्येवान्यस्य जलजन्तोर्वचः सङ्गृह्य ब्रवीति तथा (तत्, एषाम्) तदैतेषामेतद्ध्वनीन् (सर्वम्, समृधा, इव, पर्व) प्रफुल्लिता विकलाङ्गा भवन्तः (अधि अप्सु) जलमध्ये (यत्, सुवाचः) यानि सुन्दरवचांसि तानि (वदथन) वदत ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जो कि (अन्यः, शिक्षमाणः) एक शिक्षा पानेवाला जलजन्तु (शाक्तस्य, इव) शक्तिमान् अर्थात् शिक्षा को पाये हुए की तरह दूसरे जलजन्तु के शब्द को सीख कर बोलता है, वैसे ही (तत्, एषाम्) तब इनके शब्दों को (सर्वं, समृधा, इव, पर्व) सम्पूर्ण अविकल अङ्गोंवाले होकर (अधि, अप्सु) जलों के मध्य में (यत्, सुवाचः) जो सुन्दर वाणी है उसको (वदथन) बोलो ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि जिस प्रकार जलजन्तु भी एक-दूसरे की चेष्टा से शिक्षालाभ करते हैं और एक ही प्रकार की भाषा सीखते हैं, इस प्रकार तुम भी परस्पर शिक्षालाभ करते हुए एक प्रकार की भाषा से भाषण करो ॥५॥
भावार्थ
( यत् ) जब ( एषाम् ) इन विद्वानों में से ( अन्यः )एक विद्वान् शिष्य ( शिक्षमाणः ) शिक्षा पाकर ( अन्यस्य शाक्तस्य ) दूसरे शक्तिमान्, अधिक विद्या, तप आदि से सम्पन्न गुरु की सिखाई ( वाचम् वदति ) वाणी को कहता है और ( यत् ) जब ( अप्सु अधि ) प्राप्त शिष्यों वा प्रजाओं के बीच इन विद्वानों में ( सुवाचः ) उत्तम वाणी के बोलनेहारे आप लोग ( वदथन ) उपदेश करते हैं ( तत् ) तब (एषां) इनका ( सर्वं ) समस्त ( पर्व ) पालन योग्य व्रत, ब्रह्मचर्यादि वा ( पर्व ) पालन योग्य ज्ञानकाण्ड, अध्ययन वेदादि ( समृधा इव ) समृद्ध उत्सवादि के समान हो जाता है । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ मण्डूका देवताः॥ छन्दः—१ आर्षी अनुष्टुप् । २, ६, ७, ८, १० आर्षी त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम्॥
विषय
वेद-प्रचार
पदार्थ
पदार्थ- (यत्) = जब (एषाम्) = इन विद्वानों में से (अन्यः) = एक विद्वान् शिष्य (शिक्षमाणः) = शिक्षा पाकर (अन्यस्य शाक्तस्य) = दूसरे विद्या आदि से सम्पन्न गुरु की (वाचम्) = वदतिवाणी को कहता है और (यत्) = जब (अप्सु अधि) = प्राप्त शिष्यों वा प्रजाओं के बीच, इन विद्वानों में (सुवाच:) = उत्तम वाणीवाले आप लोग (वदथन) = उपदेश करते हैं (तत्) = तब (एषां) = इनका (सर्वं) = समस्त (पर्व) = पालन योग्य व्रत, (वेदादि) = अध्ययन (समिधा इव) = समृद्ध उत्सवादि के समान हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- गुरुजनों के सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचारी शिष्य जब विद्वान् हो जावे तो वह अपने वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान को हजारों लोगों के समूह में प्रवचन के द्वारा तथा अपने समीप आए शिष्यों को उपदेश के द्वारा प्रदान करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
When one of these speaks to the other, they seem to repeat each other’s language like pupils repeating the words of the teacher. While communicating like this they jump and play on the water, their bodies swell with joy and the pride of being.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की ज्या प्रकारे जलजंतू एकमेकांच्या प्रयत्नाने शिकतात व एकाच प्रकारची भाषा शिकतात त्या प्रकारे तुम्हीही परस्पर शिकवण देऊन घेऊन एका प्रकारची भाषा बोला. ॥५॥
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